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Bhagavad Gita Chapter 2 Verse 59 Shloka 59 | गीता अध्याय 2 श्लोक 59 अर्थ सहित | विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य…..

श्रीमद् भागवत गीता अध्याय 2 श्लोक 59 (Bhagavad Gita Chapter 2 Verse 59 in Hindi): भगवद्गीता, जो सनातन धर्म के प्रमुख ग्रंथों में से एक है, हमें जीवन के मूलभूत सत्य और आध्यात्मिक मार्गदर्शन की राह दिखाती है। अध्याय 2 का 59वां श्लोक इस बात पर प्रकाश डालता है कि इन्द्रिय भोगों से स्थायी रूप से मुक्त होने का वास्तविक उपाय क्या है। यह श्लोक न केवल अध्यात्म के प्रति हमारी समझ को गहरा करता है, बल्कि यह भी स्पष्ट करता है कि सांसारिक सुखों से विरक्ति केवल तब संभव है जब आत्मा भगवान के दिव्य रस का अनुभव कर लेती है।

श्रीमद् भागवत गीता अध्याय 2 श्लोक 59 (Bhagavad Gita Chapter 2 Verse 59)

गीता अध्याय 2 श्लोक 59 अर्थ सहित (Gita Chapter 2 Verse 59 in Hindi with meaning)

गीता अध्याय 2 श्लोक 59 अर्थ सहित (Gita Chapter 2 Verse 59 in Hindi with meaning) | Festivalhindu.com
Gita Chapter 2 Verse 59

भागवत गीता श्लोक 2.59 और भावार्थ

श्लोक:
विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः।
रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते।।

विषयाः – इन्द्रियभोग की वस्तुएँ; विनिवर्तन्ते – दूर रहने के लिए अभ्यास की जाति हैं; निराहारस्य – निषेधात्मक प्रतिबन्धों से; देहिनः – देहवान जीव के लिए; रस-वर्जम् – स्वाद का त्याग करता है; रसः – भोगेच्छा; अपि – यद्यपि है; अस्य – उसका; परम् – अत्यन्त उत्कृष्ट वस्तुएँ; दृष्ट्वा – अनुभव होने पर; निवर्तते – वह समाप्त हो जाता है |

देहधारी जीव इन्द्रियभोग से भले ही दूर हो जाए, लेकिन उसकी इच्छाएँ मन में बनी रहती हैं। परंतु जब उसे परम रस का अनुभव होता है, तो वह उन इच्छाओं से मुक्त होकर भक्ति में स्थिर हो जाता है।

भावार्थ:
मनुष्य इन्द्रियभोग से दूर तो हो सकता है, लेकिन उनकी लालसा मन के भीतर बनी रहती है। यह लालसा तब तक समाप्त नहीं होती जब तक कि आत्मा को परमात्मा के दिव्य रस का अनुभव न हो जाए। एक बार जब व्यक्ति इस परम आनंद का अनुभव कर लेता है, तो सांसारिक भोगों के प्रति उसकी रुचि स्वतः ही समाप्त हो जाती है।


इन्द्रियभोग और संयम

संयम का महत्व और सीमाएँ

संयम एक महत्वपूर्ण साधन है, परंतु यह इन्द्रियभोग की लालसा को पूरी तरह समाप्त नहीं कर सकता। यह वैसा ही है जैसे किसी रोगी को एक विशेष भोजन से दूर रहने का परामर्श दिया जाता है। वह भोजन भले ही न खाए, लेकिन उसके प्रति उसकी इच्छा बनी रहती है। इसी प्रकार यम, नियम, आसन, प्राणायाम, और ध्यान जैसे अभ्यास इन्द्रियों को नियंत्रित करने में सहायक होते हैं, परंतु वे मन की गहरी इच्छाओं को मिटा नहीं सकते।

अस्थायी संयम का उदाहरण

जब कोई व्यक्ति उपवास करता है, तो वह भोजन से तो दूर रहता है, लेकिन उसकी भूख की इच्छा पूरी तरह समाप्त नहीं होती। जैसे ही उपवास समाप्त होता है, भूख का अनुभव फिर से लौट आता है। इसी प्रकार, जब तक मन में इन्द्रिय सुखों की लालसा के बीज विद्यमान रहते हैं, तब तक उनका उन्मूलन संभव नहीं है।


परम रस की अनुभूति: स्थायी समाधान

दिव्य प्रेम का अनुभव

भागवत गीता श्लोक 2.59 इस गूढ़ सत्य को उजागर करता है कि सांसारिक भोगों से स्थायी मुक्ति तभी संभव है जब आत्मा परमात्मा के दिव्य प्रेम और आनंद का अनुभव कर ले। यह दिव्य अनुभव आत्मा की आंतरिक प्रकृति के अनुरूप होता है।

तैत्तिरीयोपनिषद का समर्थन

तैत्तिरीयोपनिषद में उल्लेख है:
रसो वै सः। रसं ह्येवायं लब्धवाऽऽनन्दी भवति।
इस उपनिषद के अनुसार, भगवान सत्-चित्-आनन्द स्वरूप हैं। जब आत्मा भगवान के सौंदर्य और दिव्यता का अनुभव करती है, तो वह आनंद में डूब जाती है। यही आनंद उसे सांसारिक सुखों से स्वाभाविक रूप से विरक्ति प्रदान करता है।

भगवद्भक्ति का प्रभाव

जब व्यक्ति भगवान की भक्ति में तल्लीन हो जाता है, तो उसे ऐसा दिव्य रस प्राप्त होता है, जिसकी तुलना भौतिक संसार की किसी भी वस्तु से नहीं की जा सकती। यह अनुभव मन और इन्द्रियों को स्थायी रूप से नियंत्रित कर देता है।


इन्द्रियभोगों की निवृत्ति: आध्यात्मिक दृष्टिकोण

  1. संसारिक सुखों की क्षणभंगुरता:
    सांसारिक सुख क्षणिक होते हैं और आत्मा को स्थायी तृप्ति प्रदान नहीं कर सकते।
  2. आध्यात्मिक अनुभव की स्थायित्व:
    भगवान के दिव्य प्रेम का अनुभव आत्मा को स्थायी आनंद प्रदान करता है।
  3. भक्ति मार्ग का महत्व:
    भगवद्भक्ति के माध्यम से मनुष्य स्वाभाविक रूप से सांसारिक सुखों से ऊपर उठ जाता है।
  4. कामनाओं का दमन नहीं, दिशा परिवर्तन:
    भगवद्गीता कामनाओं के दमन का उपदेश नहीं देती, बल्कि उन्हें परमात्मा की ओर निर्देशित करने का ज्ञान देती है।

संतों की दृष्टि में भगवद्भक्ति

संत रामकृष्ण परमहंस का संदेश

संत रामकृष्ण परमहंस इस सिद्धांत को अत्यंत सुंदर ढंग से व्यक्त करते हैं:
“भक्ति परम सत्ता के प्रति दिव्य प्रेम है जिसके प्राप्त होने पर निकृष्ट भाव स्वतः समाप्त हो जाते हैं।”
उनके अनुसार, जब आत्मा भगवान के दिव्य प्रेम का अनुभव करती है, तो सांसारिक इच्छाएँ स्वतः समाप्त हो जाती हैं।

आध्यात्मिक संतुलन का मार्ग

संतों का मानना है कि भक्ति न केवल इन्द्रिय संयम का सबसे सरल मार्ग है, बल्कि यह आत्मा को उसके शाश्वत उद्देश्य तक भी पहुँचाती है।


मुख्य शिक्षाएँ

  • संयम की सीमाएँ:
    संयम केवल बाहरी रूप से इन्द्रियों को नियंत्रित करता है, मन की गहरी इच्छाओं को नहीं।
  • भक्ति की शक्ति:
    भगवान की भक्ति मनुष्य को दिव्य आनंद प्रदान कर सांसारिक इच्छाओं से मुक्त कर देती है।
  • दिव्य रस का अनुभव:
    आत्मा की सच्ची तृप्ति केवल भगवान के दिव्य प्रेम से संभव है।
  • आध्यात्मिक मार्ग:
    सांसारिक इच्छाओं का उन्मूलन केवल अध्यात्मिक अनुभव से हो सकता है।

निष्कर्ष

भगवद्गीता का श्लोक 2.59 हमें यह सिखाता है कि इन्द्रिय संयम का उद्देश्य केवल इच्छाओं को दबाना नहीं है, बल्कि उन्हें भगवान की ओर निर्देशित करना है। जब आत्मा परमात्मा के दिव्य रस का अनुभव कर लेती है, तो सांसारिक सुखों के प्रति उसकी लालसा स्वतः समाप्त हो जाती है। यह स्थायी विरक्ति और आनंद का द्वार खोलता है।

“भगवद्भक्ति के मार्ग पर चलकर मनुष्य न केवल इन्द्रियभोग से ऊपर उठ सकता है, बल्कि परमात्मा के शाश्वत आनंद में तल्लीन होकर सच्ची तृप्ति प्राप्त कर सकता है।”

Resources : श्रीमद्भागवत गीता यथारूप – बक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद, गीता प्रेस

अध्याय 2 (Chapter 2)

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