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Bhagavad Gita Chapter 2 Verse 45 Shloka 45 | गीता अध्याय 2 श्लोक 45 अर्थ सहित | त्रैगुण्यविषया वेदा…..

श्रीमद् भागवत गीता अध्याय 2 श्लोक 45 (Bhagavad Gita Chapter 2 Verse 45 in Hindi): श्रीमद्भगवद्गीता भारतीय दर्शन का ऐसा ग्रंथ है, जो जीवन के हर पहलू पर गहन ज्ञान प्रदान करता है। यह न केवल एक धार्मिक पुस्तक है, बल्कि यह आत्मा, ब्रह्मांड, और भौतिक जीवन के बीच संतुलन को समझाने का भी एक अद्वितीय स्रोत है। गीता के श्लोक 2.45 (Bhagavad Gita Chapter 2 Shloka 45) में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को जीवन का महत्वपूर्ण संदेश दिया है, जो आज के युग में भी अत्यधिक प्रासंगिक है। यह श्लोक हमें भौतिकता से ऊपर उठकर आत्मज्ञान की ओर प्रेरित करता है।

श्रीमद् भागवत गीता अध्याय 2 श्लोक 45 (Bhagavad Gita Chapter 2 Verse 45)

गीता अध्याय 2 श्लोक 45 अर्थ सहित (Gita Chapter 2 Verse 45 in Hindi with meaning)

गीता अध्याय 2 श्लोक 45 अर्थ सहित (Gita Chapter 2 Verse 45 in Hindi with meaning) | Festivalhindu.com
Gita Chapter 2 Sloka 45

श्लोक 2.45: मूल पाठ और अर्थ

श्लोक:
त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन।
निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्॥

त्रै-गुण्य – प्राकृतिक तीनों गुणों से सम्बन्धित; विषयाः – विषयों में; वेदाः – वैदिक साहित्य; निस्त्रै-गुण्यः – प्रकृति के तीनों गुणों से परे; भव – होओ; अर्जुन – हे अर्जुन ; निर्द्वन्द्वः – द्वैतभाव से मुक्त;नित्य-सत्त्व-स्थः – नित्य शुद्धसत्त्व में स्थित; निर्योग-क्षेमः – लाभ तथा रक्षा के भावों से मुक्त; आत्म-वान् – आत्मा में स्थित |

वेदों में मुख्यतया प्रकृति के तीनों गुणों का वर्णन हुआ है | हे अर्जुन! इन तीनों गुणों से ऊपर उठो | समस्त द्वैतों और लाभ तथा सुरक्षा की सारी चिन्ताओं से मुक्त होकर आत्म-परायण बनो |

अर्थ:
श्रीकृष्ण अर्जुन को समझाते हैं कि वेद मुख्य रूप से प्रकृति के तीन गुणों (सत्व, रज, तम) पर आधारित हैं। हे अर्जुन! इन तीनों गुणों से ऊपर उठकर, सभी प्रकार के द्वैतभावों (सुख-दुख, शीत-गर्मी) और लाभ-हानि की चिंताओं से मुक्त होकर आत्मा में स्थित हो जाओ।


त्रैगुण्य: सत्व, रज, और तम

प्रकृति के तीन गुण, जिन्हें सत्व, रज और तम कहते हैं, हमारे हर भौतिक कार्य और अनुभव के मूल में हैं।

  1. सत्व गुण:
    यह पवित्रता, शांति और ज्ञान का प्रतीक है। सत्व गुण व्यक्ति को शांत और संतुलित बनाता है।
  2. रज गुण:
    यह सक्रियता, लालसा और संघर्ष का प्रतीक है। यह व्यक्ति को कर्म करने और अधिक पाने के लिए प्रेरित करता है।
  3. तम गुण:
    यह आलस्य, अज्ञानता और निष्क्रियता का प्रतीक है। यह व्यक्ति को निष्क्रिय और आत्मकेंद्रित बनाता है।

श्रीकृष्ण हमें बताते हैं कि जीवन को समझने और सही दिशा में आगे बढ़ने के लिए इन गुणों से ऊपर उठना आवश्यक है।


निस्त्रैगुण्य: गुणों से परे होने की आवश्यकता

त्रैगुण्य के प्रभाव में जीना मनुष्य को भौतिक जीवन में बांध देता है। हर कर्म और उसका फल इन गुणों के अधीन होता है।

  • श्रीकृष्ण का संदेश:
    वे कहते हैं कि यदि मनुष्य इन गुणों से ऊपर उठ जाए, तो वह आत्मा के शुद्ध स्वरूप को समझ सकता है। यह स्थिति आत्मज्ञान और शांति की ओर ले जाती है।

निर्द्वन्द्व: द्वैतभाव से मुक्ति

सुख-दुख, लाभ-हानि, और शीत-गर्मी जैसे द्वैतभाव जीवन का हिस्सा हैं।

  • जीवन के द्वैत:
    हर व्यक्ति को सुख और दुख दोनों का सामना करना पड़ता है।
  • द्वैतों से ऊपर उठने की कला:
    मनुष्य को इन विरोधाभासों को सहन करना सीखना चाहिए। जब वह इनसे प्रभावित होना बंद कर देता है, तो वह आत्मा के उच्चतम स्तर पर पहुंच जाता है।

निर्योगक्षेम: लाभ और हानि की चिंता से मुक्ति

योगक्षेम का अर्थ है लाभ प्राप्त करना और उसकी रक्षा करना। लेकिन श्रीकृष्ण बताते हैं कि लाभ और हानि की चिंता से मुक्त होकर मनुष्य को अपने कर्म करने चाहिए।

  • कर्म में निष्ठा:
    अपने कार्यों को भगवान को समर्पित करने से यह चिंता समाप्त हो जाती है।
  • दिव्य अवस्था:
    जब मनुष्य लाभ और हानि की अपेक्षा से मुक्त हो जाता है, तो वह ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण की स्थिति में पहुंचता है।

आत्मवान: आत्मा में स्थित होने का महत्व

श्रीकृष्ण कहते हैं कि आत्मवान बनना यानी आत्मा के स्वरूप को पहचानना और उसमें स्थित होना।

  1. आत्मा का शुद्ध स्वरूप:
    आत्मा शाश्वत, अजर और अमर है।
  2. आत्मा में स्थिति का लाभ:
    जब मनुष्य आत्मा को पहचान लेता है, तो वह भौतिक जीवन के बंधनों से मुक्त हो जाता है।

जीवन में इस श्लोक का महत्व

  1. भौतिक जीवन से मुक्ति:
    इस श्लोक में बताया गया है कि मनुष्य को भौतिक सुख-दुख, लाभ-हानि और अन्य द्वैतों से मुक्त होकर आत्मा में स्थित होना चाहिए।
  2. आध्यात्मिक जागरण:
    यह श्लोक हमें सिखाता है कि आत्मज्ञान प्राप्त करने के लिए भौतिक इच्छाओं को त्यागना जरूरी है।
  3. कर्म योग का संदेश:
    श्रीकृष्ण हमें बताते हैं कि अपने कर्मों को ईश्वर को समर्पित करना और उनके फल की चिंता न करना सच्चा कर्म योग है।

जीवन में इस श्लोक को अपनाने के उपाय

  • सुख-दुख को समान मानें।
  • लाभ और हानि की चिंता छोड़ें।
  • आत्मा की ओर ध्यान केंद्रित करें।
  • भगवान की इच्छा में समर्पित रहें।
  • द्वैतताओं को सहन करने की शक्ति विकसित करें।

निष्कर्ष

श्रीमद्भगवद्गीता का श्लोक 2.45 हमें भौतिक जीवन के बंधनों से मुक्त होकर आत्मा के शुद्ध स्वरूप को पहचानने का मार्ग दिखाता है। यह श्लोक न केवल अर्जुन के लिए, बल्कि हर व्यक्ति के लिए प्रेरणा का स्रोत है। सुख-दुख, लाभ-हानि और द्वैतताओं से ऊपर उठकर, भगवान के प्रति पूर्ण समर्पण ही शांति और मुक्ति का मार्ग है।
श्रीकृष्ण का यह संदेश हमारे जीवन को सरल, शांत और आध्यात्मिक रूप से समृद्ध बना सकता है।

Resources : श्रीमद्भागवत गीता यथारूप – बक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद, गीता प्रेस

अध्याय 2 (Chapter 2)

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