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Bhagavad Gita Chapter 2 Verse 72 Shloka 72 | गीता अध्याय 2 श्लोक 72 अर्थ सहित | एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति

श्रीमद् भागवत गीता अध्याय 2 श्लोक 72 (Bhagavad Gita Chapter 2 Verse 72 in Hindi): श्रीमद्भगवद्गीता, जिसे हम ‘गीता’ के नाम से जानते हैं, केवल एक धार्मिक ग्रंथ नहीं है, बल्कि यह जीवन का वह मार्गदर्शक है जो मानव को आध्यात्मिकता, ज्ञान और मुक्ति की ओर ले जाता है। गीता का प्रत्येक श्लोक गहराई से भरा हुआ है, और इनमें से एक है श्लोक 2.72। यह श्लोक हमें ब्राह्मी-स्थिति, यानी आध्यात्मिक चेतना और मुक्ति की अवस्था का ज्ञान कराता है। यह श्लोक न केवल आध्यात्मिक प्रगति का मार्ग दिखाता है, बल्कि यह भी बताता है कि मनुष्य इस जीवन में कैसे परमधाम को प्राप्त कर सकता है।

श्रीमद् भागवत गीता अध्याय 2 श्लोक 72 (Bhagavad Gita Chapter 2 Verse 72)

गीता अध्याय 2 श्लोक 72 अर्थ सहित (Gita Chapter 2 Verse 72 in Hindi with meaning)

गीता अध्याय 2 श्लोक 72 अर्थ सहित (Gita Chapter 2 Verse 72 in Hindi with meaning) | Festivalhindu.com
Gita Chapter 2 Verse 72

भागवत गीता अध्याय 2 श्लोक 2.72 का परिचय और व्याख्या

श्लोक 2.72 में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं:

“एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति।
स्थित्वास्यामन्तकालेSपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति।।”

इस श्लोक का अर्थ है कि यह ब्राह्मी-स्थिति, जो पूर्ण आध्यात्मिक अवस्था है, उसे प्राप्त करने के बाद व्यक्ति कभी मोहित नहीं होता। यदि कोई इस स्थिति में मृत्यु को प्राप्त करता है, तो वह भगवान के परमधाम को जाता है।

ब्राह्मी-स्थिति का अर्थ है वह अवस्था, जहाँ आत्मा भौतिक इच्छाओं, माया और संसारिक बंधनों से मुक्त हो जाती है। यह वह चेतना है जिसमें व्यक्ति भगवान के प्रति पूर्ण रूप से समर्पित होता है।

भगवद्गीता में ब्राह्मी-स्थिति का महत्व

ब्राह्मी-स्थिति केवल एक आध्यात्मिक लक्ष्य नहीं है, बल्कि यह जीवन की सबसे ऊँची अवस्था है। गीता में इसे “मुक्ति” और “भगवद्धाम की प्राप्ति” से जोड़ा गया है। जब आत्मा इस अवस्था में पहुँचती है, तो वह माया के बंधनों से मुक्त होकर भगवान के धाम में प्रवेश करती है।

भगवद्गीता के अनुसार, ब्राह्मी-स्थिति तक पहुँचना कठिन है, लेकिन असंभव नहीं। यह जीवन में सही दृष्टिकोण, आध्यात्मिक अभ्यास और भगवान की कृपा से प्राप्त की जा सकती है। इस अवस्था में व्यक्ति केवल आत्मा को ही समझता है और सभी भौतिक इच्छाओं का अंत कर देता है।

भावार्थ और तात्पर्य

श्लोक 2.72 का भावार्थ हमें यह सिखाता है कि दिव्य चेतना प्राप्त करना मानव जीवन का सबसे बड़ा उद्देश्य है। यह वह अवस्था है जहाँ मनुष्य अपने आप को भौतिक शरीर, मन और बुद्धि से परे देखता है। आत्मा का शुद्धिकरण, माया के बंधनों से मुक्ति और भगवान के प्रति समर्पण, यह सभी ब्राह्मी-स्थिति की ओर ले जाते हैं।

तात्पर्य यह है कि भगवद्भक्ति या कृष्णभावनामृत वह मार्ग है, जिससे आत्मा तुरंत इस दिव्य अवस्था को प्राप्त कर सकती है। यह आवश्यक नहीं कि इस अवस्था में पहुँचने के लिए कई जन्मों की साधना की जाए। उदाहरण के लिए, खट्वांग महाराज ने अपनी मृत्यु से कुछ मिनट पहले भगवान की शरण में जाकर इस अवस्था को प्राप्त कर लिया था।

निर्वाण और मोक्ष का अर्थ

गीता में “निर्वाण” का अर्थ है भौतिकतावादी जीवन शैली का अंत। यह वह अवस्था है जहाँ आत्मा भौतिक जीवन के त्रिगुणों (सत्व, रजस और तमस) से परे चली जाती है। बौद्ध दर्शन में निर्वाण को शून्यता के रूप में परिभाषित किया गया है, लेकिन गीता का दृष्टिकोण इससे भिन्न है। गीता के अनुसार, निर्वाण का अर्थ है आत्मा का परमधाम में प्रवेश और भगवान के साथ एकत्व।

जब आत्मा भगवान की कृपा से शुद्ध हो जाती है, तो उसे दिव्य ज्ञान, दिव्य प्रेम और दिव्य आनंद प्राप्त होता है। इस अवस्था में आत्मा न केवल भौतिक संसार के बंधनों से मुक्त होती है, बल्कि उसे माया के अंधकार से भी मुक्ति मिल जाती है।

त्रिगुणों और पंच क्लेशों से मुक्ति

गीता में यह स्पष्ट रूप से कहा गया है कि ब्राह्मी-स्थिति प्राप्त करने के लिए आत्मा को त्रिगुणों और पंच क्लेशों से ऊपर उठना होगा। त्रिगुण सत्व, रजस और तमस के रूप में जाने जाते हैं, जो भौतिक संसार को नियंत्रित करते हैं। इन गुणों से परे जाकर ही आत्मा ब्राह्मी-स्थिति में पहुँच सकती है।

पंच क्लेश, यानी काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार, आत्मा को भौतिक जीवन में फँसाए रखते हैं। जब आत्मा इनसे मुक्त हो जाती है, तो उसे ब्राह्मी-स्थिति का अनुभव होता है।

भगवद्गीता और ब्राह्मी-स्थिति का व्यावहारिक दृष्टिकोण

श्रीकृष्ण के अनुसार, ब्राह्मी-स्थिति केवल एक आदर्श नहीं है, बल्कि इसे हर मनुष्य अपने जीवन में प्राप्त कर सकता है। यह जीवन की सबसे ऊँची अवस्था है, जो मनुष्य को मृत्यु के समय भगवान के परमधाम में ले जाती है।

  1. कृष्णभावनामृत का अभ्यास:
    • यह अभ्यास व्यक्ति को भक्ति और भगवान के प्रति समर्पण के माध्यम से आत्मा को शुद्ध करने में मदद करता है।
    • जो व्यक्ति कृष्णभावनामृत में स्थित होता है, वह पहले ही भगवद्धाम में प्रवेश कर चुका होता है।
  2. भौतिक इच्छाओं से मुक्त होना:
    • ब्राह्मी-स्थिति प्राप्त करने के लिए भौतिक इच्छाओं और सांसारिक बंधनों का त्याग करना आवश्यक है।
    • यह आत्मा को भगवान की ओर ले जाने वाला सबसे बड़ा कदम है।
  3. भगवान की कृपा:
    • श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं कि भगवान की कृपा से ही आत्मा ब्राह्मी-स्थिति में पहुँच सकती है।
    • जब आत्मा भगवान के प्रति समर्पित होती है, तो भगवान उसे अपनी दिव्य कृपा प्रदान करते हैं।

ऋग्वेद और भगवद्गीता का सामंजस्य

श्लोक 2.72 का संदेश ऋग्वेद में दिए गए विचारों से मेल खाता है। ऋग्वेद में कहा गया है:
“तद्विष्णोः परमं पदं सदा पश्यन्ति सूरयः।”
इसका अर्थ है कि दिव्य आत्माएँ हमेशा भगवान के परमधाम को देखती हैं। यह बात गीता के इस श्लोक के सार को भी पुष्ट करती है कि जब आत्मा ब्राह्मी-स्थिति में पहुँचती है, तो वह भगवान के परमधाम में प्रवेश करती है।

प्रेरणादायक उदाहरण: खट्वांग महाराज

खट्वांग महाराज का उदाहरण इस बात को स्पष्ट करता है कि ब्राह्मी-स्थिति प्राप्त करने के लिए समय सीमा कोई बाधा नहीं है। उन्होंने मृत्यु से कुछ मिनट पहले भगवान की शरण में जाकर यह दिव्य अवस्था प्राप्त की। यह दर्शाता है कि भगवान की कृपा से आत्मा तुरंत माया के बंधनों से मुक्त हो सकती है।

श्लोक 2.72 का आध्यात्मिक संदेश

यह श्लोक हमें सिखाता है कि मानव जीवन का मुख्य उद्देश्य आत्मा को शुद्ध करना और भगवान के परमधाम को प्राप्त करना है। यह केवल भौतिक जीवन का अंत नहीं है, बल्कि यह दिव्य जीवन का प्रारंभ है।

  • जो व्यक्ति इस ब्राह्मी-स्थिति में होता है, वह सभी भौतिक सुख-दुखों से परे होता है।
  • मृत्यु के समय भी इस चेतना में स्थित आत्मा भगवान के धाम में प्रवेश करती है।
  • यह अवस्था भगवान के प्रति पूर्ण समर्पण और भक्ति से प्राप्त की जा सकती है।

निष्कर्ष

श्रीमद्भगवद्गीता का श्लोक 2.72 हमें जीवन के सबसे गहरे और उच्चतम सत्य का ज्ञान कराता है। यह श्लोक ब्राह्मी-स्थिति, निर्वाण और भगवद्भक्ति के माध्यम से आत्मा के शुद्धिकरण और मुक्ति का मार्ग दिखाता है।

ब्राह्मी-स्थिति केवल एक आध्यात्मिक लक्ष्य नहीं है, बल्कि यह जीवन का सबसे बड़ा सत्य है। इसे प्राप्त करने के बाद आत्मा माया के बंधनों से मुक्त होकर भगवान के परमधाम में प्रवेश करती है।

“भगवद्गीता के इस श्लोक का सार यही है कि भगवान की कृपा और भक्ति से आत्मा सदा के लिए दिव्य चेतना में स्थित हो सकती है और भगवान के साथ एकत्व प्राप्त कर सकती है।”

Resources : श्रीमद्भागवत गीता यथारूप – बक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद, गीता प्रेस

अध्याय 2 (Chapter 2)

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