श्रीमद् भागवत गीता अध्याय 2 श्लोक 47 (Bhagavad Gita Chapter 2 Verse 47 in Hindi): श्रीमद्भगवद्गीता का श्लोक 2.47(Bhagavat Geeta Chapter 2 Shloka 47) “कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन” हमें जीवन के वास्तविक उद्देश्य का बोध कराता है। यह श्लोक केवल एक साधारण उपदेश नहीं, बल्कि कर्मयोग का गहन दर्शन है। इसमें भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को यह सिखाया कि हमारा अधिकार केवल कर्म करने में है, लेकिन उसके परिणामों पर नहीं। यह श्लोक न केवल अर्जुन के लिए, बल्कि आज भी हर व्यक्ति के जीवन में मार्गदर्शक है।
श्रीमद् भागवत गीता अध्याय 2 श्लोक 47 (Bhagavad Gita Chapter 2 Verse 47)
श्लोक 2 . 47
Bhagavad Gita Chapter 2 Verse-Shloka 47
कर्मण्यवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन |
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोSस्त्वकर्मणि || ४७ ||
गीता अध्याय 2 श्लोक 47 अर्थ सहित (Gita Chapter 2 Verse 47 in Hindi with meaning)

श्रीमद् भागवत गीता श्लोक 2.47: कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन | गहन विश्लेषण और जीवन में इसकी प्रासंगिकता
श्लोक 2.47: भगवद्गीता का सार
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि।।
भगवान श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को दिया गया यह श्लोक केवल महाभारत के युद्धक्षेत्र तक सीमित नहीं है। यह शाश्वत सत्य को उजागर करता है और हर इंसान के जीवन में प्रासंगिक है। यह श्लोक न केवल कर्मयोग का आधार है, बल्कि भारतीय दर्शन और अध्यात्म का महत्वपूर्ण सिद्धांत भी है।
श्लोक का शाब्दिक अर्थ और व्याख्या
श्लोक का अर्थ:
कर्मणि – कर्म करने में; एव – निश्चय ही; अधिकारः – अधिकार; ते – तुम्हारा; मा – कभी नहीं; फलेषु – (कर्म) फलों में; कदाचन – कदापि; मा – कभी नहीं; कर्म-फल – कर्म का फल; हेतुः – कारण; भूः – होओ; मा – कभी नहीं; ते – तुम्हारी; सङ्गः- आसक्ति; अस्तु – हो; अकर्मणि – कर्म न करने में |
“तुम्हें अपने कर्म करने का अधिकार है, किंतु कर्म के फलों के तुम अधिकारी नहीं हो। तुम अपने कर्मों को उनके फलों का कारण मत मानो और न ही कर्म न करने में आसक्ति रखो।”
इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण ने कर्म, फल और आसक्ति के बीच का संतुलन स्पष्ट किया है। यह श्लोक चार मुख्य विचारों पर आधारित है:
- कर्म पर अधिकार।
- फल से अनासक्ति।
- कर्ता होने का अभिमान छोड़ना।
- निष्क्रियता से बचना।
भावार्थ: श्लोक का गहन विश्लेषण
कर्म पर अधिकार: कर्मण्येवाधिकारस्ते
भगवान श्रीकृष्ण के अनुसार, हमें केवल अपने कार्यों पर अधिकार है। इसका मतलब यह है कि हमें अपने कर्तव्य का पालन पूरे समर्पण के साथ करना चाहिए, लेकिन उसके परिणाम की चिंता छोड़ देनी चाहिए।
उदाहरण:
एक विद्यार्थी पढ़ाई करता है। उसका कर्तव्य है कि वह पूरी मेहनत और ईमानदारी से पढ़ाई करे। परिणाम यानी परीक्षा में मिले अंक कई कारकों पर निर्भर करते हैं, जैसे सवालों की कठिनाई, परीक्षा के समय की मानसिक स्थिति आदि।
फल से अनासक्ति: मा फलेषु कदाचन
यह वाक्यांश हमें सिखाता है कि हमें अपने कर्म का परिणाम भगवान पर छोड़ देना चाहिए। जब हम फल की चिंता करते हैं, तो हमारा ध्यान कार्य से हटकर परिणाम पर चला जाता है। इससे हमारी दक्षता कम हो जाती है।
कर्तापन का अभिमान न करें: मा कर्मफलहेतुर्भूः
कर्म का फल केवल हमारे प्रयासों का परिणाम नहीं है। इसमें ईश्वर की कृपा, हमारे पूर्वकर्म और परिस्थितियों का भी योगदान होता है। इसलिए अपने प्रयासों का कर्ता होने का अभिमान छोड़ना चाहिए।
उदाहरण:
एक माली पौधों को पानी देता है, खाद डालता है, लेकिन फूल खिलने की प्रक्रिया प्राकृतिक है। माली केवल माध्यम है, कर्ता नहीं।
निष्क्रियता से बचें: मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि
निष्क्रियता और आलस्य जीवन के लिए बाधक हैं। भगवान ने अर्जुन को कर्म करने के लिए प्रेरित किया। निष्क्रियता से न केवल हमारा विकास रुकता है, बल्कि यह समाज और परिवार के प्रति हमारी जिम्मेदारी से भी दूर ले जाती है।
कर्म, विकर्म और अकर्म: एक विस्तृत विवेचना
भगवद्गीता में कर्म के तीन स्वरूपों का उल्लेख मिलता है:
- कर्म (स्वधर्म):
वे कार्य जो हमारे स्वभाव और कर्तव्यों के अनुरूप हैं। ये कार्य प्रकृति के गुणों के आधार पर निर्धारित होते हैं। - विकर्म:
वे कार्य जो धर्म और नैतिकता के विरुद्ध होते हैं। इन्हें अज्ञानता और लोभ के कारण किया जाता है। - अकर्म:
कर्म न करने की स्थिति, यानी निष्क्रियता। यह भी घातक है क्योंकि यह आलस्य और जिम्मेदारियों से भागने का प्रतीक है।
भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को सिखाया कि न तो विकर्म करना उचित है और न ही अकर्म। केवल निष्काम भाव से कर्म करना ही सच्चा धर्म है।
श्रीमद् भागवत गीता श्लोक 2.47(Bhagavad Gita Chapter 2 Verse 47) का गूढ़ तात्पर्य
श्रीकृष्ण ने अर्जुन को युद्ध के मैदान में यह श्लोक सुनाया, जब वह अपने कर्तव्यों से विमुख होकर मोह और शोक में फंस गया था। इस श्लोक के माध्यम से उन्होंने अर्जुन को निम्नलिखित संदेश दिए:
1. कर्म पर ध्यान केंद्रित करें, फल पर नहीं
हमें केवल अपने कर्तव्यों का पालन करना चाहिए। कर्म का फल कई कारकों पर निर्भर करता है, जैसे भाग्य, समय, परिस्थिति, और ईश्वर की इच्छा। फल की चिंता करने से हमारी ऊर्जा और ध्यान बंट जाता है।
2. कर्म का फल हमारे सुख के लिए नहीं है
श्रीकृष्ण के अनुसार, सभी कर्म ईश्वर की सेवा के लिए किए जाने चाहिए। मनुष्य को अपने कर्मों का फल स्वयं भोगने की इच्छा नहीं रखनी चाहिए।
3. कर्ताभाव का त्याग करें
यह समझना आवश्यक है कि हम केवल एक माध्यम हैं। सभी कर्मों का असली कर्ता परमात्मा है। यह अहंकार त्यागने और समर्पण का भाव विकसित करने का संदेश देता है।
4. अकर्मण्यता से बचें
निष्क्रियता का कोई स्थान नहीं है। कर्म करना ही जीवन का सार है। कर्म न करने की प्रवृत्ति जीवन को जड़ बना देती है।
कर्मयोग का महत्व और दर्शन
कर्मयोग का अर्थ है अपने कर्तव्यों का पालन बिना किसी स्वार्थ और फल की चिंता के करना। यह जीवन जीने की एक ऐसी शैली है, जो मानसिक शांति और आत्मिक संतोष प्रदान करती है।
कर्मयोग के मुख्य सिद्धांत:
- निष्काम कर्म:
किसी भी कार्य को बिना किसी स्वार्थ या फल की इच्छा के करना। - समर्पण:
अपने सभी कार्यों को भगवान को समर्पित करना। - धैर्य और सहनशीलता:
कठिन परिस्थितियों में भी धैर्य रखना और फल की चिंता न करना। - संतोष:
अपने प्रयासों में संतोष प्राप्त करना, चाहे परिणाम कुछ भी हो।
श्रीमद् भागवत गीता श्लोक 2.47 (Bhagavad Gita Chapter 2 Verse 47) का जीवन में महत्व
व्यक्तिगत विकास में योगदान
यह श्लोक हमें सिखाता है कि फल की चिंता किए बिना अपने कार्य पर ध्यान केंद्रित करना ही सच्ची सफलता है।
उदाहरण:
यदि एक खिलाड़ी मैच खेलने के दौरान केवल जीतने की चिंता करेगा, तो उसका प्रदर्शन खराब हो सकता है। लेकिन अगर वह केवल अपने खेल पर ध्यान देगा, तो परिणाम बेहतर होगा।
मानसिक शांति का स्रोत
जब हम फल की चिंता छोड़ देते हैं, तो हमारा मन शांत रहता है। चिंता और तनाव से मुक्त होकर हम बेहतर निर्णय ले सकते हैं।
समाज और धर्म के प्रति कर्तव्य
इस श्लोक का पालन करने से व्यक्ति अपने समाज और धर्म के प्रति जिम्मेदार बनता है। वह स्वार्थ से ऊपर उठकर परोपकार और सेवा को प्राथमिकता देता है।
कर्म और फल का वैज्ञानिक दृष्टिकोण
कर्म का नियम:
सभी कार्य का परिणाम होता है, लेकिन वह कई कारकों पर निर्भर करता है। हमारा कर्म केवल उन कारकों में से एक है।
फल का नियम:
फल हमारे वर्तमान कर्म, पूर्वकर्म, और परिस्थिति पर आधारित है। इसलिए, केवल कर्म पर ध्यान देना ही हमारे लिए सही है।
श्रीमद् भागवत गीता श्लोक 2.47 (Bhagavad Gita Chapter 2 Verse 47) का आध्यात्मिक महत्व
यह श्लोक हमें भगवान पर पूर्ण विश्वास रखना सिखाता है। जब हम अपने कार्य भगवान को समर्पित करते हैं, तो हम जीवन के हर पहलू में संतोष और आनंद प्राप्त करते हैं।
आध्यात्मिक जीवन में इसका प्रभाव:
- ईश्वर के प्रति विश्वास बढ़ता है।
- अहंकार समाप्त होता है।
- मानसिक तनाव और दुःख कम होते हैं।
निष्क्रियता और आलस्य का त्याग
भगवान श्रीकृष्ण के अनुसार, निष्क्रियता से मनुष्य का पतन होता है। कर्म से ही जीवन चलता है, और आलस्य हर विकास को रोक देता है।
निष्क्रियता के परिणाम:
- आत्मसम्मान की हानि।
- समाज में योगदान की कमी।
- धार्मिक और नैतिक मूल्यों का ह्रास।
कर्मण्येवाधिकारस्ते: आज के समय में प्रासंगिकता
आज के युग में भी यह श्लोक उतना ही प्रासंगिक है जितना महाभारत के समय था। प्रतिस्पर्धा और सफलता के इस दौर में, फल की चिंता से मुक्त होकर कर्म करना ही सफलता का असली मार्ग है।
प्रोफेशनल जीवन में:
इस श्लोक का पालन करने से हम अपने कार्यक्षेत्र में अधिक उत्पादक और संतुलित हो सकते हैं।
पारिवारिक जीवन में:
फल की चिंता छोड़कर रिश्तों पर ध्यान देने से संबंध मजबूत होते हैं।
निष्कर्ष: शाश्वत ज्ञान का स्रोत
भगवान श्रीकृष्ण का यह श्लोक न केवल अर्जुन के लिए बल्कि समस्त मानव जाति के लिए मार्गदर्शक है। यह सिखाता है कि कर्म ही धर्म है, और फल की चिंता किए बिना कर्म करना ही सच्चा जीवन है। श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को दिए गए इस उपदेश का सार यह है कि कर्म ही जीवन का सार है। हमें अपने कर्तव्यों का पालन पूरी निष्ठा से करना चाहिए, लेकिन उनके परिणामों के प्रति आसक्त नहीं होना चाहिए। यह श्लोक जीवन को सार्थक बनाने का मार्ग दिखाता है और हमें सिखाता है कि निष्काम कर्म ही सच्ची सफलता और आत्मसंतोष का आधार है।
“कर्म करो, फल की चिंता मत करो। यही सच्चा जीवन है।”
Resources : श्रीमद्भागवत गीता यथारूप – बक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद, गीता प्रेस