श्रीमद् भागवत गीता अध्याय 2 श्लोक 54 (Bhagavad Gita Chapter 2 Verse 54 in Hindi): भगवद्गीता, जो सनातन धर्म का अमूल्य ग्रंथ है, मनुष्य के जीवन में ज्ञान, भक्ति और कर्म के महत्व को दर्शाती है। इसके दूसरे अध्याय का श्लोक 2.54 (Bhagavad Gita Chapter 2 Shloka 54) विशेष रूप से महत्वपूर्ण है, क्योंकि इसमें अर्जुन ने एक ऐसा प्रश्न उठाया है जो हर जिज्ञासु मनुष्य के लिए प्रेरणादायक है। अर्जुन का यह प्रश्न केवल शाब्दिक नहीं है, बल्कि गहन आत्मचिंतन का मार्ग भी प्रशस्त करता है। आइए, इस श्लोक को विस्तार से समझें।
श्रीमद् भागवत गीता अध्याय 2 श्लोक 54 (Bhagavad Gita Chapter 2 Verse 54)
श्लोक 2 . 54
Bhagavad Gita Chapter 2 Verse-Shloka 54
अर्जुन उवाच
स्थित प्रज्ञस्य का भाषा समाधि स्थस्य केशव |
स्थितधीः किं प्रभाषेत किमासीत व्रजेत किम् || ५४ ||
गीता अध्याय 2 श्लोक 54 अर्थ सहित (Gita Chapter 2 Verse 54 in Hindi with meaning)

स्थितप्रज्ञ की पहचान: श्रीमद्भगवद्गीता के श्लोक 2.54 का गहन विश्लेषण
श्लोक
अर्जुन उवाच
स्थित प्रज्ञस्य का भाषा समाधि स्थस्य केशव |
स्थितधीः किं प्रभाषेत किमासीत व्रजेत किम् || ५४ ||
शब्दार्थ
- अर्जुन उवाच – अर्जुन ने कहा
- स्थित-प्रज्ञस्य – स्थिर प्रज्ञा (स्थिर बुद्धि) वाले व्यक्ति की
- का भाषा – क्या भाषा
- समाधि-स्थस्य – समाधि में स्थित व्यक्ति की
- केशव – हे कृष्ण
- स्थित-धीः – स्थिरचित्त व्यक्ति
- किम प्रभाषेत – क्या बोलता है
- किम आसीत – कैसे रहता है
- व्रजेत किम् – कैसे चलता है
अर्जुन बोले – हे कृष्ण! वह व्यक्ति जो अध्यात्म में पूरी तरह स्थित है (स्थितप्रज्ञ), उसके लक्षण क्या हैं? वह कैसी वाणी बोलता है और उसकी भाषा क्या होती है? वह किस प्रकार बैठता और चलता है?
भावार्थ
अर्जुन भगवान श्रीकृष्ण से यह जिज्ञासा प्रकट करते हैं कि वह व्यक्ति, जो ईश्वर की चेतना में पूरी तरह स्थिर है, उसके क्या लक्षण हैं? उसकी वाणी, आचरण और जीवनशैली कैसी होती है? अर्जुन के इस प्रश्न में केवल व्यक्तिगत जिज्ञासा नहीं, बल्कि हर उस साधक की चिंता झलकती है जो जीवन के उच्चतम आध्यात्मिक लक्ष्य को प्राप्त करना चाहता है।
तात्पर्य: स्थितप्रज्ञ का स्वभाव
हर व्यक्ति का स्वभाव उसकी स्थिति और दृष्टिकोण को प्रकट करता है। उदाहरण के लिए:
- धनी व्यक्ति अपनी संपत्ति, पहनावे और विलासिता से पहचाना जाता है।
- विद्वान व्यक्ति अपने ज्ञान, भाषा और व्यवहार से पहचाना जाता है।
उसी प्रकार, स्थितप्रज्ञ (जो स्थिर बुद्धि और चेतना में स्थित है) का स्वभाव भी उसकी वाणी, सोच, आचरण और जीवनशैली में प्रकट होता है। यह व्यक्ति भौतिक जीवन से ऊपर उठकर, आध्यात्मिक चेतना में स्थिर हो चुका होता है।
स्थितप्रज्ञ के लक्षण: गीता का मार्गदर्शन
श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण स्थितप्रज्ञ व्यक्ति के लक्षणों को विस्तार से समझाते हैं।
स्थितप्रज्ञ का जीवन तीन मुख्य आधारों पर टिका होता है:
- वाणी का संयम
- आचरण की स्थिरता
- सोच की गहराई
1. वाणी का संयम
स्थितप्रज्ञ व्यक्ति की वाणी उसके व्यक्तित्व का सबसे महत्वपूर्ण पहलू होती है। कहा गया है:
“वाणी किसी मनुष्य की पहचान होती है।”
- स्थितप्रज्ञ केवल उन बातों को बोलता है जो सत्य, मधुर और कल्याणकारी हों।
- उसकी वाणी से अहंकार और कठोरता पूरी तरह गायब होती है।
- वह केवल भगवान, उनकी महिमा और धर्म के विषय में चर्चा करता है।
2. आचरण की स्थिरता
स्थितप्रज्ञ का आचरण उसकी स्थिरता को दर्शाता है।
- वह किसी भी परिस्थिति में विचलित नहीं होता।
- सुख-दुख, लाभ-हानि, और सफलता-असफलता में समान रहता है।
- उसका जीवन सादगी, अनुशासन और शांति का प्रतीक होता है।
3. सोच की गहराई
स्थितप्रज्ञ की सोच उसकी आत्मा की गहराई को दर्शाती है।
- वह हर घटना में भगवान की इच्छा देखता है।
- मोह और आसक्ति से मुक्त होकर वह केवल परमात्मा में स्थिर रहता है।
- उसकी सोच केवल भलाई, सच्चाई और धर्म के इर्द-गिर्द घूमती है।
स्थितप्रज्ञ के 5 प्रमुख गुण
गीता के अनुसार, स्थितप्रज्ञ व्यक्ति में निम्नलिखित गुण स्पष्ट रूप से दिखाई देते हैं:
- समभाव:
- वह हर परिस्थिति को समान दृष्टि से देखता है।
- सुख-दुख, जय-पराजय में समान रहता है।
- निर्मोह:
- भौतिक वस्तुओं और इच्छाओं से परे होता है।
- न तो किसी चीज़ को पाने की लालसा और न ही खोने का दुख।
- संयम:
- इंद्रियों और इच्छाओं पर पूरा नियंत्रण।
- अपनी भावनाओं और विचारों को नियंत्रित रखना।
- मधुर वाणी:
- उसकी वाणी में हमेशा शांति और मिठास होती है।
- वह किसी को अपमानित या दुखी नहीं करता।
- आध्यात्मिकता:
- हर समय भगवान का स्मरण और उनकी महिमा का गायन करता है।
- उसका जीवन भगवान की सेवा और भक्ति के लिए समर्पित होता है।
स्थितप्रज्ञ का जीवन: एक आदर्श
स्थितप्रज्ञ का जीवन हमें यह सिखाता है कि सच्चा सुख और शांति केवल भगवान में स्थिर होने से मिलती है।
उनके जीवन के मुख्य पहलू:
- सादगी और शांति:
उनका जीवन सादगी से भरा होता है, जिसमें दिखावा या प्रदर्शन का कोई स्थान नहीं। - सेवा और भक्ति:
वह दूसरों की मदद और भगवान की सेवा में लगा रहता है। - वैराग्य और ध्यान:
उसकी दिनचर्या ध्यान, साधना और वैराग्य से ओतप्रोत होती है।
स्थिर बुद्धि का महत्व: आधुनिक संदर्भ में
आज की व्यस्त और तनावपूर्ण दुनिया में, स्थितप्रज्ञ का जीवन हमें सही दिशा दिखा सकता है।
- तनावमुक्त जीवन:
स्थितप्रज्ञ के गुणों को अपनाकर हम अपने जीवन से अनावश्यक तनाव को दूर कर सकते हैं। - सकारात्मक सोच:
उनका दृष्टिकोण हमें हर स्थिति में सकारात्मक बने रहने की प्रेरणा देता है। - संबंधों में मधुरता:
उनकी वाणी और व्यवहार हमें अपने रिश्तों को मजबूत और मधुर बनाने का मार्ग दिखाते हैं।
निष्कर्ष
श्रीकृष्ण ने गीता में स्थितप्रज्ञ का वर्णन केवल एक आध्यात्मिक मार्गदर्शन के रूप में नहीं, बल्कि हर व्यक्ति के लिए एक जीवन आदर्श के रूप में किया है। अर्जुन का प्रश्न हर साधक के मन में उठने वाले प्रश्नों का प्रतिनिधित्व करता है।
स्थितप्रज्ञ का जीवन हमें सिखाता है कि आत्मा की शांति, वाणी की मधुरता और आचरण की स्थिरता ही सच्ची सफलता और संतुष्टि का मार्ग है।
इसलिए, गीता के इस उपदेश को अपने जीवन में अपनाकर हम न केवल स्वयं को, बल्कि अपने समाज को भी बेहतर बना सकते हैं।
Resources : श्रीमद्भागवत गीता यथारूप – बक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद, गीता प्रेस