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Bhagavad Gita Chapter 2 Verse 42, 43 Shloka 42, 43 | गीता अध्याय 2 श्लोक 42, 43 अर्थ सहित | यामिमां पुष्पितां…..कामात्मानः स्वर्गपरा…..

श्रीमद् भागवत गीता अध्याय 2 श्लोक 42, 43 (Bhagavad Gita Chapter 2 Verse 42, 43 in Hindi): श्रीभगवद्गीता भारतीय संस्कृति और दर्शन का ऐसा ग्रंथ है, जो जीवन के गहन अर्थों और आध्यात्मिक ज्ञान को उजागर करता है। इसके प्रत्येक श्लोक में जीवन की किसी न किसी गूढ़ समस्या का समाधान छुपा हुआ है। गीता के अध्याय 2 में श्लोक 42 और 43 (Bhagavad Geeta Chapter 2 Shloka 42, 43) विशेष रूप से उन लोगों के बारे में बताते हैं, जो वेदों के कर्मकाण्ड भाग में उलझे रहकर स्वर्गीय सुख और भौतिक ऐश्वर्य को जीवन का अंतिम लक्ष्य मान लेते हैं। इन श्लोकों में भगवान श्रीकृष्ण ने स्पष्ट रूप से यह समझाया है कि भौतिक सुख केवल अस्थायी होते हैं और आत्मा की शाश्वत शांति के लिए इनसे ऊपर उठना अनिवार्य है।

श्रीमद् भागवत गीता अध्याय 2 श्लोक 42 (Bhagavad Gita Chapter 2 Verse 42)

श्रीमद् भागवत गीता अध्याय 2 श्लोक 43 (Bhagavad Gita Chapter 2 Verse 43)

गीता अध्याय 2 श्लोक 42, 43 अर्थ सहित (Gita Chapter 2 Verse 42, 43 in Hindi with meaning)

गीता अध्याय 2 श्लोक 42, 43 अर्थ सहित (Gita Chapter 2 Verse 42, 43 in Hindi with meaning) | Festivalhindu.com
Gita Chapter 2 Verse 42, 43

श्लोक 2.42-43

“यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्र्चितः।
वेदवादरताः पार्थ नान्यदस्तीति वादिनः।।”

“कामात्मानः स्वर्गपरा जन्मकर्मफलप्रदाम्।
क्रियाविशेषबहुलां भोगैश्र्वर्यगतिं प्रति।।”

याम् इमाम् – ये सब; पुष्पिताम् – दिखावटी; वाचम् – शब्द; प्रवदन्ति – कहते हैं; अविपश्र्चितः – अल्पज्ञ व्यक्ति; वेद-वाद-रताः – वेदों के अनुयायी; पार्थ – हे पार्थ; न – कभी नहीं; अन्यत् – अन्य कुछ; अस्ति – है; इति – इस प्रकार; वादिनः – बोलनेवाले; काम-आत्मनः – इन्द्रियतृप्ति के इच्छुक; स्वर्ग-पराः – स्वर्ग प्राप्ति के इच्छुक; जन्म-कर्म-फल-प्रदाम् – उत्तम जन्म तथा अन्य सकाम कर्मफल प्रदान करने वाला; क्रिया-विशेष – भड़कीले उत्सव; बहुलाम् – विविध; भोग – इन्द्रियतृप्ति; ऐश्र्वर्य – तथा ऐश्र्वर्य; गतिम् – प्रगति; प्रति – की ओर |

अल्पज्ञानी मनुष्य वेदों के उन अलंकारिक शब्दों के प्रति अत्यधिक आसक्त रहते हैं, जो स्वर्ग की प्राप्ति, अच्छे जन्म, शक्ति इत्यादि के लिए विविध सकाम कर्म करने की संस्तुति करते हैं | इन्द्रियतृप्ति तथा ऐश्र्वर्यमय जीवन की अभिलाषा के कारण वे कहते हैं कि इससे बढ़कर और कुछ नहीं है |

भावार्थ:
इन श्लोकों में भगवान श्रीकृष्ण उन व्यक्तियों की चर्चा कर रहे हैं, जो वेदों के अलंकारिक और दिखावटी शब्दों में उलझे रहते हैं। वे स्वर्ग की प्राप्ति और भौतिक सुखों के लिए कर्मकाण्ड करते हैं और इन्हें ही जीवन का अंतिम लक्ष्य मानते हैं। उनका पूरा ध्यान इन्द्रियतृप्ति और ऐश्वर्यपूर्ण जीवन पर होता है। वे सोचते हैं कि स्वर्ग में जाने के लिए यज्ञ और अन्य कर्मकाण्ड ही पर्याप्त हैं।


तात्पर्य

इन श्लोकों का तात्पर्य यह है कि वेदों के कर्मकाण्ड भाग में बताई गई विधियां केवल उन लोगों के लिए हैं, जो भौतिक सुख और स्वर्गीय ऐश्वर्य के प्रति आकर्षित रहते हैं। ये लोग आत्मज्ञान और आध्यात्मिक उन्नति से दूर रहते हैं। श्रीकृष्ण बताते हैं कि भौतिक सुख और स्वर्गीय ऐश्वर्य केवल अस्थायी हैं, और यह आत्मा के वास्तविक लक्ष्य, यानी परमात्मा की प्राप्ति में बाधा उत्पन्न करते हैं।


मुख्य बिंदु

1. अल्पज्ञान का प्रभाव

अल्पज्ञ व्यक्ति वेदों के कर्मकाण्ड भाग को ही पूर्ण सत्य मान लेते हैं। वे यह समझ नहीं पाते कि वेदों का मुख्य उद्देश्य आत्मा की उन्नति और परमात्मा से जुड़ाव है। उनके लिए वेद केवल तड़क-भड़क वाले यज्ञों और कर्मकाण्डों का संग्रह बनकर रह जाते हैं।

2. स्वर्गीय सुख की मृगतृष्णा

स्वर्ग का वर्णन ऐसे स्थान के रूप में किया गया है, जहां सोम-रस, इन्द्रियतृप्ति, और दैवी स्त्रियों का संग मिलता है। ऐसे सुख के प्रति आसक्त लोग यह भूल जाते हैं कि यह सब अस्थायी है। स्वर्ग में बिताया गया समय कर्मों के अनुसार सीमित होता है, और उसके बाद फिर से जन्म-मृत्यु के चक्र में फंसना पड़ता है।

3. इन्द्रियतृप्ति और भौतिक ऐश्वर्य का मोह

जो लोग केवल भौतिक सुख और ऐश्वर्य की प्राप्ति में लगे रहते हैं, वे आत्मा की वास्तविक आवश्यकता को नजरअंदाज कर देते हैं। उनका ध्यान केवल इन्द्रियों की तृप्ति और भौतिक उन्नति पर केंद्रित रहता है, जो अंततः दुःख का कारण बनती है।

4. आध्यात्मिक उन्नति का महत्व

इन श्लोकों में भगवान श्रीकृष्ण यह स्पष्ट करते हैं कि भौतिक सुख और स्वर्गीय ऐश्वर्य आत्मा के लिए स्थायी समाधान नहीं हैं। आत्मा की शाश्वत शांति और मुक्ति केवल परमात्मा की भक्ति और आत्मज्ञान से संभव है।


आधुनिक जीवन में श्लोक की प्रासंगिकता

आज का मानव जीवन भी स्वर्गीय सुख और भौतिक ऐश्वर्य की मृगतृष्णा में उलझा हुआ है। लोग अपनी इन्द्रियों को तृप्त करने के लिए अधिक से अधिक धन कमाने, भौतिक सुख-सुविधाओं का उपभोग करने और सामाजिक प्रतिष्ठा प्राप्त करने में लगे रहते हैं। परंतु यह सब सुख अस्थायी हैं और अंततः मनुष्य को भीतर से खाली कर देते हैं।

भौतिक जीवन के मोह को त्यागें:

  • भौतिक वस्तुएं केवल क्षणिक सुख देती हैं।
  • इनसे आत्मा की शांति और संतुष्टि नहीं मिलती।

आध्यात्मिक जीवन को अपनाएं:

  • ध्यान, योग, और भक्ति मार्ग अपनाकर जीवन को सच्चे अर्थों में सफल बनाएं।
  • आत्मा का परम लक्ष्य परमात्मा की प्राप्ति है, न कि भौतिक ऐश्वर्य।

जीवन पर श्लोक का प्रभाव

श्रीभगवद्गीता के श्लोक 2.42-43 का मुख्य संदेश यह है कि हमें अपने जीवन में स्थायी सुख और शांति के लिए आध्यात्मिकता को अपनाना चाहिए। ये श्लोक हमें यह समझने में मदद करते हैं कि भौतिक सुखों की लालसा हमें हमारे वास्तविक लक्ष्य से दूर कर देती है।

क्या सीखें:

  • कर्मकाण्ड का पालन करें, लेकिन केवल स्वार्थ के लिए नहीं।
  • अपने कर्मों को ईश्वर के प्रति समर्पित करें।
  • भौतिक सुखों की तृष्णा को त्यागकर आत्मा की उन्नति के लिए प्रयास करें।

निष्कर्ष

श्रीभगवद्गीता के श्लोक 2.42-43 हमें यह समझाते हैं कि स्वर्गीय सुख और भौतिक ऐश्वर्य की मृगतृष्णा आत्मा के वास्तविक उद्देश्य को भटका देती है। इन श्लोकों का गूढ़ संदेश है कि हमें अपने जीवन को तात्कालिक सुखों से ऊपर उठाकर परमात्मा की भक्ति और आत्मा की उन्नति के लिए समर्पित करना चाहिए।

“आध्यात्मिक ज्ञान को अपनाएं और अपने जीवन को शाश्वत सुख की ओर अग्रसर करें।”

Resources : श्रीमद्भागवत गीता यथारूप – बक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद, गीता प्रेस

अध्याय 2 (Chapter 2)

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