श्रीमद् भागवत गीता अध्याय 2 श्लोक 35 (Bhagavad Gita Chapter 2 Verse 35 in Hindi): भगवद गीता का हर श्लोक गहरे जीवन-निर्देशों से भरा हुआ है, और श्लोक 2.35(Bhagavad Gita Chapter 2 Shloka 35) में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को एक ऐसी चेतावनी देते हैं जो आज भी हमारी जिंदगी में प्रासंगिक है। यह श्लोक हमें साहस, सम्मान और कर्तव्य की गहरी समझ देता है। भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को बताते हैं कि युद्धभूमि से पीछे हटने पर लोग उसका अपमान करेंगे और उसकी प्रतिष्ठा को ठेस पहुँचेगी। यह श्लोक साहसपूर्ण जीवन जीने का पाठ पढ़ाता है और डर से विमुखता के परिणामों को उजागर करता है।
श्रीमद् भागवत गीता अध्याय 2 श्लोक 35 (Bhagavad Gita Chapter 2 Verse 35)
श्लोक 2 . 35
Bhagavad Gita Chapter 2 Verse-Shloka 35
भयाद्रणादुपरतं मंस्यन्ते त्वां महारथाः |
येषां च त्वं बहुमतो भूत्वा यास्यसि लाघवम् || ३५ ||
गीता अध्याय 2 श्लोक 35 अर्थ सहित (Gita Chapter 2 Verse 35 in Hindi with meaning)

श्लोक 2.35 का अर्थ और भावार्थ
भयाद्रणादुपरतं मंस्यन्ते त्वां महारथाः |
येषां च त्वं बहुमतो भूत्वा यास्यसि लाघवम् ||
शब्दार्थ:
- भयात्: भय के कारण
- रणात्: युद्ध से
- उपरतम्: विमुख या पीछे हटना
- मंस्यन्ते: मानेंगे या सोचेंगे
- त्वाम्: तुमको
- महारथाः: महान योद्धा
- बहुमतो: अत्यंत सम्मानित
- लाघवम्: तुच्छता या अपमान
जिन-जिन महाँ योद्धाओं ने तुम्हारे नाम तथा यश को सम्मान दिया है वे सोचेंगे कि तुमने डर के मारे युद्धभूमि छोड़ दी है और इस तरह वे तुम्हें तुच्छ मानेंगे |
भावार्थ:
इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि यदि वह युद्धभूमि से डर के कारण पीछे हटेगा तो लोग उसकी वीरता पर संदेह करेंगे और उसकी प्रतिष्ठा का ह्रास हो जाएगा। जिन महायोद्धाओं ने अर्जुन का सम्मान किया है, वे सोचेंगे कि अर्जुन ने भयवश युद्ध का त्याग किया। इससे अर्जुन की छवि धूमिल हो जाएगी और लोग उसे तुच्छ समझने लगेंगे।
श्लोक 2.35 का तात्पर्य: सम्मान और साहस की चेतावनी
भगवान श्रीकृष्ण का यह कथन अर्जुन को यह स्पष्ट करता है कि युद्धभूमि में उसका कर्तव्य केवल विजय प्राप्त करना नहीं है, बल्कि सम्मान और आत्म-सम्मान की रक्षा भी उतनी ही महत्वपूर्ण है। यदि अर्जुन पीछे हटता है, तो उसका समाज में जो स्थान और सम्मान है, वह नष्ट हो जाएगा। अर्जुन का युद्ध न केवल व्यक्तिगत गौरव के लिए है, बल्कि उन लोगों के सम्मान की रक्षा के लिए भी है जिन्होंने उस पर भरोसा किया है।
भय का त्याग और कर्तव्य के प्रति अडिग रहना
भगवान श्रीकृष्ण द्वारा दी गई यह चेतावनी न केवल अर्जुन के लिए, बल्कि सभी के लिए एक महत्वपूर्ण संदेश है। वे यह स्पष्ट करते हैं कि किसी भी प्रकार के भय से कर्तव्य से विमुख होना प्रतिष्ठा के विनाश का कारण बन सकता है। इसीलिए, साहस के साथ अपने कार्यों का निर्वहन करना ही सम्मान को बनाए रखने का मार्ग है।
श्लोक 2.35 से जीवन के महत्वपूर्ण पाठ
भगवद गीता का यह श्लोक हमें कई महत्वपूर्ण जीवन-पाठ सिखाता है, जो हर व्यक्ति के जीवन में उतने ही प्रासंगिक हैं जितने अर्जुन के लिए थे। आइए जानते हैं इस श्लोक से हमें कौन-कौन से मुख्य पाठ मिलते हैं:
- कर्तव्य का निर्वहन: कठिनाइयों से भागकर कोई भी कर्तव्य को सही ढंग से पूरा नहीं कर सकता। इसलिए हमें हर परिस्थिति का सामना करते हुए अपने कर्तव्यों का निर्वहन करना चाहिए।
- आत्म-सम्मान की सुरक्षा: दूसरों का सम्मान पाने के लिए सबसे पहले हमें अपने आत्म-सम्मान का मूल्य समझना चाहिए। यदि हम स्वयं अपने आत्म-सम्मान को नहीं समझेंगे, तो दूसरों का सम्मान भी खो देंगे।
- साहस का महत्व: साहस किसी भी कठिन परिस्थिति में मजबूती से खड़ा रहने का एक शक्तिशाली गुण है। शत्रु और कठिनाइयों का सामना करने के लिए साहस अत्यंत आवश्यक है।
- प्रतिकूल परिस्थितियों में दृढ़ता: किसी भी प्रकार की प्रतिकूल स्थिति में स्वयं को कमजोर मानकर पीछे हटना समाज में तुच्छता की भावना उत्पन्न करता है। इसलिए, मुश्किल समय में भी डटे रहना ही सच्ची वीरता है।
महत्वपूर्ण बिंदु
भगवद गीता के इस श्लोक में छुपा ज्ञान हमारे जीवन के हर क्षेत्र में महत्वपूर्ण है। यहाँ कुछ मुख्य बिंदु दिए गए हैं जिन्हें हमें इस श्लोक से समझना चाहिए:
- समाज में अपनी प्रतिष्ठा बनाए रखने के लिए हमें अपनी जिम्मेदारियों का ईमानदारी से पालन करना चाहिए।
- कठिन परिस्थितियों में भी डटे रहना ही सच्चे साहस की निशानी है।
- किसी भी प्रकार के भय से विमुख होना हमारी प्रतिष्ठा को हानि पहुँचाता है।
- आत्म-सम्मान का मूल्य समझना और उसकी रक्षा करना हर व्यक्ति का कर्तव्य है।
निष्कर्ष:
भगवान श्रीकृष्ण का यह श्लोक न केवल अर्जुन के लिए बल्कि प्रत्येक व्यक्ति के लिए प्रेरणा का स्रोत है। यह श्लोक हमें साहस, कर्तव्य और आत्म-सम्मान का महत्व सिखाता है। जीवन में कितनी भी कठिन परिस्थितियाँ क्यों न आएँ, हमें अपने कर्तव्यों से विमुख नहीं होना चाहिए। शत्रु और कठिनाइयों का सामना करते हुए हमें साहस और दृढ़ता से आगे बढ़ना चाहिए। इस प्रकार श्लोक 2.35 हमें बताता है कि डर से भागना न केवल हमारी प्रतिष्ठा को हानि पहुँचाता है बल्कि हमारे आत्म-सम्मान को भी कमजोर करता है।
Resources : श्रीमद्भागवत गीता यथारूप – बक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद, गीता प्रेस