You are currently viewing Bhagavad Gita Chapter 2 Verse 17 Shloka 17 | गीता अध्याय 2 श्लोक 17 अर्थ सहित | अविनाशि तु तद्विद्धि येन…..

Bhagavad Gita Chapter 2 Verse 17 Shloka 17 | गीता अध्याय 2 श्लोक 17 अर्थ सहित | अविनाशि तु तद्विद्धि येन…..

श्रीमद् भागवत गीता अध्याय 2 श्लोक 17 (Bhagavad Gita Chapter 2 Verse 17 in Hindi): श्रीमद्भगवद्गीता हिंदू धर्म का एक प्रमुख ग्रंथ है, जो जीवन के विभिन्न पहलुओं पर गहन और व्यापक दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है। इसमें आत्मा, शरीर, कर्म, धर्म और मोक्ष जैसे विषयों पर विचार किया गया है। गीता के दूसरे अध्याय के 17वें श्लोक(Gita Chapter 2 Shloka 17) में भगवान श्रीकृष्ण ने आत्मा की अविनाशी और शाश्वत प्रकृति का वर्णन किया है। इस श्लोक के माध्यम से उन्होंने अर्जुन को समझाया कि आत्मा अजर-अमर है और किसी भी प्रकार से इसका विनाश नहीं किया जा सकता।

श्रीमद् भागवत गीता अध्याय 2 श्लोक 17 (Bhagavad Gita Chapter 2 Verse 17)

गीता अध्याय 2 श्लोक 17 अर्थ सहित (Geeta Chapter 2 Verse 17 in Hindi with meaning)

गीता अध्याय 2 श्लोक 17 अर्थ सहित (Geeta Chapter 2 Verse 17 in Hindi with meaning) | Festivalhindu.com
Geeta Chapter 2 Verse 17 in Hindi

श्लोक:

अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम्।
विनाशमव्ययस्यास्य न कश्र्चित्कर्तुमर्हति।।

भावार्थ:

अविनाशि – नाशरहित; तु – लेकिन; तत् – उसे; विद्धि – जानो; येन – जिससे; सर्वम् – सम्पूर्ण शरीर; इदम् – यह; ततम् – परिव्याप्त; विनाशम् – नाश; अव्ययस्य – अविनाशी का; अस्य – इस; न कश्र्चित् – कोई भी नहीं; कर्तुम् – करने के लिए; अर्हति – समर्थ है |

“जो सारे शरीर में व्याप्त है उसे ही अविनाशी समझो। उस अव्यय आत्मा को नष्ट करने में कोई भी समर्थ नहीं है।”


आत्मा का अमरत्व: शाश्वत सत्य

इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को यह बोध कराया है कि शरीर नाशवान है, लेकिन आत्मा अविनाशी है। आत्मा वह शाश्वत तत्व है जो जन्म और मृत्यु के बंधनों से परे है। भगवान ने स्पष्ट किया है कि आत्मा का कोई विनाश नहीं हो सकता। शरीर का अंत होता है, लेकिन आत्मा का नहीं। यह सिद्धांत हिंदू दर्शन का मूलभूत सत्य है और इसे ही गीता में बार-बार दोहराया गया है।

शरीर और आत्मा के बीच का अंतर

शरीर और आत्मा के बीच एक स्पष्ट अंतर है। शरीर भौतिक और नाशवान है, जबकि आत्मा अदृश्य और अविनाशी है। शरीर एक आवरण है, जिसमें आत्मा वास करती है। शरीर का नाश हो सकता है, लेकिन आत्मा अजर-अमर है।

मुख्य बिंदु:

  • शरीर का विनाश: शरीर पंच महाभूतों से बना है, जो समय के साथ नष्ट हो जाते हैं।
  • आत्मा का अमरत्व: आत्मा शाश्वत है और इसे किसी भी प्रकार से नष्ट नहीं किया जा सकता।

आत्मा की सूक्ष्मता और उसकी व्याप्ति

भगवद्गीता के इस श्लोक में आत्मा की सूक्ष्मता और उसकी व्यापकता को भी बताया गया है। आत्मा इतनी सूक्ष्म है कि इसे किसी भी भौतिक साधन से मापा नहीं जा सकता। उपनिषदों में इसका वर्णन किया गया है कि आत्मा का माप बाल के अग्रभाग के दस हजारवें भाग के बराबर है। यह अदृश्य और सूक्ष्म होने के बावजूद, सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त है और यही शरीर की चेतना का कारण है।

आत्मा की सूक्ष्मता का वर्णन

उपनिषदों में आत्मा को अत्यंत सूक्ष्म बताया गया है। श्र्वेताश्र्वतर उपनिषद् में इसे इस प्रकार वर्णित किया गया है:

बालाग्रशतभागस्य शतधा कल्पितस्य च।
भागो जीवः स विज्ञेयः स चानन्त्याय कल्पते।।

अर्थात, “यदि बाल के अग्रभाग को एक सौ भागों में विभाजित किया जाए और फिर इनमें से प्रत्येक भाग को एक सौ भागों में विभाजित किया जाए, तो इस तरह के प्रत्येक भाग की माप आत्मा का परिमाप है।”

आत्मा की व्याप्ति: चेतना का स्रोत

शरीर में चेतना आत्मा की उपस्थिति का प्रतीक है। जब तक आत्मा शरीर में रहती है, तब तक शरीर में जीवन होता है। आत्मा के निकलते ही शरीर एक निर्जीव वस्तु बन जाता है। आत्मा की उपस्थिति से ही शरीर में विभिन्न प्रकार की शारीरिक क्रियाएं होती हैं।

मुख्य बिंदु:

  • आत्मा का सूक्ष्म परिमाण: आत्मा अत्यंत सूक्ष्म है और इसे किसी भी भौतिक साधन से देखा या मापा नहीं जा सकता।
  • चेतना का स्रोत: आत्मा ही शरीर में चेतना का कारण है और इसके बिना शरीर एक निर्जीव वस्तु मात्र है।

वैदिक और आधुनिक दृष्टिकोण: आत्मा का अस्तित्व

वैदिक साहित्य और आधुनिक विज्ञान दोनों ही आत्मा के अस्तित्व को स्वीकारते हैं। वैदिक दृष्टिकोण में आत्मा को परम सत्य और परम शक्ति का अंश माना गया है, जो शरीर में वास करती है। वहीं, आधुनिक विज्ञान भी इस तथ्य को मानता है कि शरीर की सभी क्रियाओं का स्रोत हृदय है, जो आत्मा का वासस्थान है।

आधुनिक विज्ञान और आत्मा

हालांकि आधुनिक विज्ञान आत्मा के अस्तित्व को पूरी तरह से नहीं समझा पाया है, लेकिन विज्ञान भी इस बात को स्वीकारता है कि शरीर की सारी ऊर्जा का स्रोत हृदय है। जब तक आत्मा शरीर में रहती है, तब तक शरीर क्रियाशील रहता है। आत्मा के निकल जाने पर शरीर की सभी क्रियाएं बंद हो जाती हैं।

मुण्डक उपनिषद् में आत्मा का वर्णन

मुण्डक उपनिषद् में आत्मा को लेकर एक और गहन विवेचना प्रस्तुत की गई है:

एषोऽणुरात्मा चेतसा वेदितव्यो यस्मिन्प्राणः पञ्चधा संविवेश।
प्राणैश्चितं सर्वमोतं प्रजानां यस्मिन् विशुद्धे विभवत्येष आत्मा।।

अर्थात, “आत्मा आकार में अणु तुल्य है, जिसे पूर्ण बुद्धि के द्वारा जाना जा सकता है। यह अणु-आत्मा पाँच प्रकार के प्राणों में तैर रहा है (प्राण, अपान, व्यान, समान और उड़ान); यह हृदय के भीतर स्थित है और देहधारी जीव के पूरे शरीर में अपने प्रभाव का विस्तार करता है।”


हठ-योग और आत्मा की मुक्ति

हठ-योग का उद्देश्य भी आत्मा को शुद्ध करना और उसे भौतिक बंधनों से मुक्त करना है। विभिन्न आसनों के माध्यम से योगी पाँच प्रकार के प्राणों को नियंत्रित करते हैं, जो आत्मा को घेरे रहते हैं। हठ-योग का उद्देश्य भौतिक लाभ नहीं, बल्कि आत्मा की मुक्ति है।

आत्मा की शुद्धि और योग

योग की विधियां आत्मा को शुद्ध करने और उसे परमात्मा से मिलाने के लिए की जाती हैं। योग के माध्यम से व्यक्ति आत्मा को उसके शुद्ध स्वरूप में पहचान सकता है और उसके माध्यम से परम सत्य की प्राप्ति कर सकता है।

मुख्य बिंदु:

  • हठ-योग का उद्देश्य: आत्मा की शुद्धि और उसे भौतिक बंधनों से मुक्त करना है।
  • प्राणों का नियंत्रण: हठ-योग के माध्यम से पांच प्रकार के प्राणों को नियंत्रित किया जाता है, जो आत्मा को घेरे रहते हैं।

निष्कर्ष: आत्मा की अमरता और शाश्वतता

श्रीमद्भगवद्गीता के श्लोक 2.17 में आत्मा की अविनाशी और शाश्वत प्रकृति का गहन विवेचन प्रस्तुत किया गया है। इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण ने आत्मा को नाशरहित और अपरिवर्तनीय बताया है। शरीर का नाश हो सकता है, लेकिन आत्मा का नहीं। आत्मा अत्यंत सूक्ष्म है और सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त है। इसका अस्तित्व वैदिक साहित्य और आधुनिक विज्ञान दोनों में ही स्वीकारा गया है। योग और अध्यात्म की विधियों के माध्यम से आत्मा को उसके शुद्ध और वास्तविक स्वरूप में पहचानना संभव है।

इस प्रकार, श्लोक 2.17 आत्मा की अमरता और शाश्वतता का प्रतीक है, जो यह दर्शाता है कि आत्मा न तो जन्म लेती है और न ही मरती है। यह शाश्वत सत्य है, जिसे समझना और स्वीकार करना जीवन के गूढ़ रहस्यों को समझने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है।

Resources : श्रीमद्भागवत गीता यथारूप – बक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद, गीता प्रेस

अध्याय 2 (Chapter 2)

123456
789101112
131415161718
192021222324
252627282930
313233343536
373839404142
434445464748
495051525354
555657585960
616263646566
676869707172

Leave a Reply