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Bhagavad Gita Chapter 2 Verse 71 Shloka | गीता अध्याय 2 श्लोक 71 अर्थ सहित | विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्र्चरति निःस्पृहः

श्रीमद् भागवत गीता अध्याय 2 श्लोक 71 (Bhagavad Gita Chapter 2 Verse 71 in Hindi): श्रीमद्भगवद्गीता का हर श्लोक मानव जीवन को दिशा और प्रेरणा देने वाला है। श्लोक 2.71 में भगवान श्रीकृष्ण ने शांति प्राप्ति का ऐसा मार्ग बताया है जो केवल अध्यात्मिक ही नहीं, बल्कि व्यावहारिक जीवन में भी अत्यंत प्रासंगिक है। इसमें यह समझाया गया है कि इच्छाओं, ममता और अहंकार का त्याग करके ही मनुष्य वास्तविक शांति को प्राप्त कर सकता है। यह श्लोक उन सभी के लिए मार्गदर्शक है जो जीवन में आत्मसंतोष और स्थिरता की खोज कर रहे हैं।

श्रीमद् भागवत गीता अध्याय 2 श्लोक 71 (Bhagavad Gita Chapter 2 Verse 71)

गीता अध्याय 2 श्लोक 71 अर्थ सहित (Gita Chapter 2 Verse 71 in Hindi with meaning)

गीता अध्याय 2 श्लोक 71 अर्थ सहित (Gita Chapter 2 Verse 71 in Hindi with meaning) | Festivalhindu.com
Gita Chapter 2 Verse 71

भागवत गीता अध्याय 2 श्लोक 2.71 और भावार्थ

भागवत गीता अध्याय 2 श्लोक 2.71
विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः।
निर्ममो निरहङ्कारः स शान्तिमधिगच्छति।।

अर्थ

विहाय – छोड़कर; कामान् – इन्द्रियतृप्ति की भौतिक इच्छाएँ; यः – जो; सर्वान् – समस्त; पुमान् – पुरुष; चरति – रहता है; निःस्पृहः – इच्छारहित; निर्ममः – ममतारहित; निरहङ्कार – अहंकारशून्य; सः – वह; शान्तिम् – पूर्ण शान्ति को; अधिगच्छति – प्राप्त होता है |


इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि जो व्यक्ति सभी प्रकार की इंद्रियजनित इच्छाओं को छोड़ देता है, जो इच्छाओं से मुक्त होकर, ममता और अहंकार को त्यागकर जीवन जीता है, वही सच्ची शांति को प्राप्त करता है।

भावार्थ
इस श्लोक का भावार्थ यह है कि मानव जीवन की सभी समस्याओं का मूल हमारी भौतिक इच्छाएँ, ममता और अहंकार हैं। जब तक व्यक्ति इनसे मुक्त नहीं होता, तब तक उसे शांति प्राप्त नहीं हो सकती। इच्छाओं का त्याग करना आसान नहीं है, लेकिन यही शांति का एकमात्र मार्ग है।

इच्छाओं का त्याग: शांति का प्रथम चरण

हमारा मन स्वाभाविक रूप से इच्छाओं की ओर आकर्षित होता है। यह इच्छाएँ भौतिक सुख-सुविधाओं से लेकर सामाजिक स्वीकृति तक हो सकती हैं। लेकिन जब यह इच्छाएँ पूरी नहीं होतीं, तो मनुष्य क्रोध, निराशा और तनाव का शिकार हो जाता है। श्रीकृष्ण हमें यह सिखाते हैं कि इच्छाओं को संतुष्ट करने का प्रयास करने की बजाय, उन्हें नियंत्रित और त्याग करना सीखना चाहिए।

इच्छाओं को त्यागने का अर्थ यह नहीं है कि हम जीवन के प्रति उदासीन हो जाएँ। बल्कि इसका अर्थ है कि हम उन इच्छाओं का परित्याग करें जो केवल इंद्रियों की तृप्ति के लिए हैं। जो व्यक्ति ऐसा करता है, वह आत्मिक संतोष और स्थिरता प्राप्त करता है।

ममता का त्याग: आत्मज्ञान का मार्ग

शांति प्राप्ति में दूसरा बड़ा अवरोध ममता है। ममता का अर्थ है किसी वस्तु, व्यक्ति या संबंध के प्रति अत्यधिक लगाव। यह लगाव अक्सर हमें वास्तविकता से दूर कर देता है। उदाहरण के लिए, जब हम किसी भौतिक वस्तु को अपना मानते हैं, तो उसके खो जाने पर दुःख होना स्वाभाविक है।

श्रीमद्भगवद्गीता सिखाती है कि संसार में हर वस्तु और हर संबंध अस्थायी हैं। हम संसार में खाली हाथ आते हैं और खाली हाथ जाते हैं। फिर भी, हम सांसारिक वस्तुओं पर स्वामित्व का दावा करते हैं। श्रीकृष्ण हमें यह समझाते हैं कि हर वस्तु ईश्वर की देन है और इसे उसी भावना से उपयोग करना चाहिए।

ममता का त्याग करने से हम जीवन के प्रति एक व्यापक दृष्टिकोण विकसित कर पाते हैं। यह हमें आत्मज्ञान की ओर ले जाता है, जहाँ हम संसार के अस्थायी स्वरूप को समझ पाते हैं।

अहंकार का त्याग: शांति का अंतिम चरण

अहंकार वह दीवार है जो हमें दूसरों से और यहाँ तक कि स्वयं से भी अलग करती है। यह हमारे रिश्तों, सामाजिक जीवन और आंतरिक शांति के लिए सबसे बड़ी बाधा है। अहंकार के कारण व्यक्ति स्वयं को दूसरों से श्रेष्ठ मानता है और यह भावना उसे आत्मिक विकास से दूर ले जाती है।

श्लोक 2.71 में श्रीकृष्ण यह सिखाते हैं कि अहंकार को छोड़ना ही सच्ची शांति का मार्ग है। अहंकार छोड़ने का अर्थ है कि हम स्वयं को ईश्वर का सेवक मानें और अपने कार्यों को उनकी इच्छा के अनुरूप करें।

अहंकार को छोड़ने से न केवल हमारे रिश्तों में सुधार होता है, बल्कि हमें अपने जीवन में भी स्थिरता और संतुलन प्राप्त होता है।

कृष्णभावनामृत: इच्छाओं की दिशा बदलने का मार्ग

श्रीकृष्ण यह स्पष्ट करते हैं कि इच्छाओं को पूरी तरह से नष्ट करना असंभव है। इच्छाएँ मनुष्य के स्वभाव का हिस्सा हैं। लेकिन इन इच्छाओं की दिशा को बदलना आवश्यक है।

कृष्णभावनामृत का अर्थ है अपनी इच्छाओं को ईश्वर की सेवा और उनकी तुष्टि के लिए समर्पित करना। जब हम अपने जीवन को श्रीकृष्ण की भक्ति के प्रति समर्पित करते हैं, तो हमारी इच्छाएँ धीरे-धीरे भौतिकता से ऊपर उठने लगती हैं।

यह मार्ग न केवल आत्मसाक्षात्कार की ओर ले जाता है, बल्कि हमें वास्तविक शांति का अनुभव भी कराता है।

संपूर्ण शांति का सूत्र

भगवान श्रीकृष्ण ने इस श्लोक में शांति प्राप्ति के सभी पहलुओं को समेटा है। उन्होंने यह समझाया है कि इच्छाओं, ममता और अहंकार का त्याग करके ही सच्ची शांति को पाया जा सकता है।

मुख्य बिंदु:

  1. इच्छाओं का परित्याग: भौतिक सुखों की लालसा को छोड़कर आत्मिक संतोष प्राप्त करें।
  2. ममता का त्याग: सांसारिक वस्तुओं और संबंधों के प्रति अति-लगाव से बचें।
  3. अहंकार का त्याग: स्वयं को ईश्वर का सेवक मानकर विनम्र बनें।
  4. कृष्णभावनामृत: अपनी इच्छाओं को ईश्वर की सेवा के प्रति समर्पित करें।

निष्कर्ष

श्लोक 2.71 मानव जीवन के गहन सत्य को प्रकट करता है। यह शांति प्राप्ति का एक ऐसा मार्ग प्रस्तुत करता है जो न केवल आध्यात्मिक है, बल्कि व्यवहारिक भी है। इच्छाओं, ममता और अहंकार का त्याग ही आत्मिक संतोष और स्थायी शांति का सूत्र है।

भगवान श्रीकृष्ण के बताए मार्ग का अनुसरण करके हम न केवल अपने जीवन को शांति और स्थिरता से भर सकते हैं, बल्कि दूसरों के लिए भी एक प्रेरणा बन सकते हैं। यही इस श्लोक का सार और संदेश है।

Resources : श्रीमद्भागवत गीता यथारूप – बक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद, गीता प्रेस

अध्याय 2 (Chapter 2)

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