श्रीमद् भागवत गीता अध्याय 2 श्लोक 58 (Bhagavad Gita Chapter 2 Verse 58 in Hindi): भगवद्गीता के द्वितीय अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण ने आत्मसंयम, इन्द्रिय-नियंत्रण और आत्म-विकास के विषय में गहन ज्ञान प्रदान किया है। श्लोक 2.58(Bhagavad Gita Chapter 2 Shloka 58) में कछुए का उदाहरण देकर यह समझाया गया है कि जीवन में स्थिरता और मानसिक शांति प्राप्त करने के लिए अपनी इन्द्रियों को नियंत्रित करना कितना महत्वपूर्ण है। यह श्लोक केवल आध्यात्मिक मार्गदर्शन ही नहीं, बल्कि दैनिक जीवन में भी उपयोगी है।
श्रीमद् भागवत गीता अध्याय 2 श्लोक 58 (Bhagavad Gita Chapter 2 Verse 58)
श्लोक 2 . 58
Bhagavad Gita Chapter 2 Verse-Shloka 58
यदा संहरते चायं कुर्मोSङ्गानीव सर्वशः |
इन्द्रियानीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता || ५८ ||
गीता अध्याय 2 श्लोक 58 अर्थ सहित (Gita Chapter 2 Verse 58 in Hindi with meaning)

भागवत गीता श्लोक 2.58 (Bhagavad Geeta Chapter 2 Verse 58) और इसका अर्थ
श्लोक:
यदा संहरते चायं कुर्मोऽङ्गानीव सर्वशः।
इन्द्रियानीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥
शब्दार्थ:
- यदा – जब
- संहरते – संकुचित करता है
- च – भी
- अयम् – यह
- कूर्मः – कछुआ
- अङ्गानि – अंग
- इव – जैसा
- सर्वशः – पूरी तरह
- इन्द्रियाणि – इन्द्रियाँ
- इन्द्रियार्थेभ्यः – इन्द्रिय विषयों से
- तस्य – उसकी
- प्रज्ञा – चेतना
- प्रतिष्ठिता – स्थिर
भावार्थ:
जिस प्रकार कछुआ अपने अंगों को खींचकर अपने खोल में छिपा लेता है, उसी प्रकार जो व्यक्ति अपनी इन्द्रियों को इन्द्रिय-विषयों से दूर कर लेता है, उसकी चेतना स्थिर हो जाती है।
भागवत गीता श्लोक 2.58 का तात्पर्य: आत्मसंयम का महत्व
भगवद्गीता के इस श्लोक में आत्मसंयम का महत्व स्पष्ट रूप से समझाया गया है। भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को यह संदेश दे रहे हैं कि जो व्यक्ति अपनी इन्द्रियों को नियंत्रित कर लेता है, वही सच्चे ज्ञान और स्थिरता को प्राप्त कर सकता है। इन्द्रियाँ बहुत शक्तिशाली और स्वतंत्र होती हैं। यदि इन्हें नियंत्रण में न रखा जाए, तो ये मनुष्य को गलत दिशा में ले जा सकती हैं।
कछुए का उदाहरण और इन्द्रिय-नियंत्रण
कछुआ संकट के समय अपने अंगों को संकुचित कर अपने खोल में छिपा लेता है और जब समय अनुकूल होता है, तब ही वह उन्हें बाहर निकालता है। इसी प्रकार, एक योगी या आत्म-सिद्ध व्यक्ति अपनी इन्द्रियों को नियंत्रण में रखता है और केवल आवश्यक कार्यों के लिए उनका उपयोग करता है।
इच्छाएँ और उनका दंश
श्रीमद्भागवत (9.19.14) में कहा गया है:
“जैसे आग में घी डालने से वह शांत नहीं होती, बल्कि और प्रबल हो जाती है, उसी प्रकार इच्छाओं की पूर्ति से वे कभी समाप्त नहीं होतीं।”
यह दर्शाता है कि इच्छाओं को नियंत्रित करने से ही मन और इन्द्रियाँ शांत हो सकती हैं। इच्छाओं का पीछा करना मृगतृष्णा के समान है, जो कभी तृप्ति प्रदान नहीं करती।
इन्द्रिय-नियंत्रण के लिए उपाय
- ध्यान और योग का अभ्यास:
ध्यान और योग मन को शांत करते हैं और इन्द्रियों को नियंत्रित करने में सहायता करते हैं। - सत्संग और शास्त्रों का अध्ययन:
शास्त्रों और संतों के उपदेशों का अध्ययन जीवन में सही मार्गदर्शन प्रदान करता है। - अनावश्यक भोग-विलास से बचाव:
अपनी इच्छाओं को सीमित करना और केवल आवश्यकताओं पर ध्यान देना आत्मसंयम की ओर पहला कदम है। - आत्मनिरीक्षण:
अपने विचारों और कार्यों का नियमित मूल्यांकन करें और उन्हें सुधारने का प्रयास करें। - भगवान की सेवा:
अपनी इन्द्रियों और कर्मों को भगवान की सेवा में लगाना, आत्मिक उन्नति का सर्वोत्तम मार्ग है।
कछुए से सीखें जीवन का मंत्र
कछुए के जीवन से हमें तीन महत्वपूर्ण बातें सीखने को मिलती हैं:
- संकट में धैर्य:
कठिन परिस्थितियों में अपनी ऊर्जा को संकुचित कर धैर्य बनाए रखना। - सही समय पर सही निर्णय:
आवश्यकता होने पर ही अपनी क्षमताओं और संसाधनों का उपयोग करना। - बाहरी दुनिया से स्वतंत्रता:
बाहरी परिस्थितियों के बजाय अपने मन और विचारों पर नियंत्रण रखना।
इन्द्रियों की तुष्टि का भ्रम
इन्द्रियों की तुष्टि करना, उनके विषयों को शांत करने का समाधान नहीं है। यह ठीक वैसा ही है जैसे जलती आग में घी डालकर उसे बुझाने का प्रयास करना। इससे आग शांत होने के बजाय और भड़कती है। श्रीमद्भागवत में इसे खाज रोग से भी तुलना की गई है। खुजलाहट से अस्थायी राहत मिलती है, लेकिन समस्या और बढ़ जाती है।
आध्यात्मिक दृष्टिकोण
भगवद्गीता में कहा गया है कि आत्म-संयम केवल इन्द्रिय-नियंत्रण तक सीमित नहीं है, बल्कि इसे भगवान की सेवा में लगाना चाहिए। जब हम अपनी इन्द्रियों को भगवान की सेवा के लिए उपयोग करते हैं, तो वे सही दिशा में कार्य करती हैं। यह आत्मा को स्थिरता और शांति प्रदान करता है।
कामनाओं का त्याग और भगवान का आनंद
भगवान के प्रति प्रेम और सेवा में लीन होकर हम अपनी इच्छाओं और कामनाओं का त्याग कर सकते हैं। यही वह मार्ग है, जिससे आत्मा को सच्चा आनंद मिलता है।
भागवत गीता श्लोक 2.58 को समझाने के लिए व्यावहारिक उदाहरण
भगवद्गीता के इस श्लोक का संदेश आत्मसंयम और इन्द्रिय-नियंत्रण पर आधारित है। इसे सरलता और व्यावहारिकता से समझने के लिए नीचे कुछ उदाहरण दिए गए हैं:
1. क्रोध के समय धैर्य रखना
स्थिति: मान लीजिए कि आप किसी विवाद में उलझ गए हैं और दूसरा व्यक्ति आपको उकसाने की कोशिश कर रहा है।
समाधान:
- यदि आप उस कछुए की तरह व्यवहार करें, जो अपने अंगों को संकट के समय खोल में समेट लेता है, तो आप अपनी प्रतिक्रिया (क्रोध) पर नियंत्रण रख सकते हैं।
- शांत रहकर स्थिति का समाधान ढूंढें। क्रोध में बोलने या कार्य करने से अक्सर समस्या और बढ़ जाती है।
- जब स्थिति अनुकूल हो, तो सोच-समझकर कदम उठाएं।
शिक्षा: अपनी इन्द्रियों (जैसे वाणी और हाव-भाव) को संयमित रखना आत्म-नियंत्रण का प्रमाण है।
2. सोशल मीडिया का उपयोग
स्थिति: मान लीजिए कि आप सोशल मीडिया स्क्रॉल कर रहे हैं और अनावश्यक समय बर्बाद कर रहे हैं।
समाधान:
- कछुए की तरह, अपनी इन्द्रियों को “खोल में समेट” लें।
- अपने फोन को बंद करें और उसे केवल उपयोगी जानकारी या कार्यों के लिए ही खोलें।
- फोकस करें कि सोशल मीडिया का उपयोग सिर्फ रचनात्मक उद्देश्यों के लिए किया जाए।
शिक्षा: इन्द्रिय-विषयों (सोशल मीडिया) से दूरी बनाकर अपनी ऊर्जा को सही दिशा में लगाना आत्म-संयम है।
3. अनियमित खान-पान पर नियंत्रण
स्थिति: अगर आप बार-बार जंक फूड खाने की इच्छा करते हैं, लेकिन जानते हैं कि यह आपकी सेहत के लिए हानिकारक है।
समाधान:
- कछुए की तरह, अपनी जीभ (स्वादेंद्रिय) को नियंत्रित करें।
- अपने भोजन की योजना बनाएं और पौष्टिक भोजन का चयन करें।
- जंक फूड को अपनी दिनचर्या से हटाने के लिए धीरे-धीरे प्रयास करें।
शिक्षा: इच्छाओं को नियंत्रित कर, संयमित खान-पान अपनाना आत्म-विकास का संकेत है।
4. परीक्षा की तैयारी
स्थिति: आप पढ़ाई के समय बार-बार टीवी देखने, गेम खेलने या दोस्तों के साथ समय बिताने की इच्छा करते हैं।
समाधान:
- कछुए की तरह, अपने मन को इन व्यर्थ चीजों से हटाकर पढ़ाई में लगाएं।
- “पढ़ाई का समय केवल पढ़ाई के लिए” का नियम अपनाएं।
- जब पढ़ाई पूरी हो जाए, तो आराम या मनोरंजन के लिए समय निकालें।
शिक्षा: इच्छाओं को स्थगित करना और प्राथमिकताओं पर ध्यान केंद्रित करना आत्म-संयम का उदाहरण है।
5. नकारात्मक परिस्थितियों में सकारात्मक बने रहना
स्थिति: जब आपके आस-पास लोग नकारात्मक बातें कर रहे हों और आपको भी इसमें शामिल होने के लिए प्रोत्साहित कर रहे हों।
समाधान:
- कछुए की तरह, नकारात्मक वातावरण से अपने मन और इन्द्रियों को बचाएं।
- सकारात्मक सोच बनाए रखें और खुद को उन चर्चाओं में शामिल होने से रोकें।
- अपने समय और ऊर्जा का उपयोग किसी रचनात्मक कार्य में करें।
शिक्षा: अपनी इन्द्रियों और मन को बाहरी नकारात्मक प्रभावों से बचाना, मानसिक शांति बनाए रखने का सबसे अच्छा तरीका है।
6. बुरी आदतों से बचाव
स्थिति: मान लीजिए कि किसी ने आपको धूम्रपान या अन्य बुरी आदतों में शामिल होने का प्रस्ताव दिया।
समाधान:
- कछुए की तरह, अपनी इच्छाओं को नियंत्रित करें और उस आदत को अपनाने से मना कर दें।
- अपनी ऊर्जा को किसी सकारात्मक गतिविधि जैसे व्यायाम, ध्यान या पढ़ाई में लगाएं।
- अपने लिए एक स्वस्थ दिनचर्या बनाएं।
शिक्षा: बुरी आदतों से दूरी बनाना और अपने जीवन को सही दिशा में ले जाना इन्द्रिय-नियंत्रण का प्रमाण है।
7. विपरीत परिस्थितियों में प्रतिक्रिया न देना
स्थिति: अगर कोई व्यक्ति आपको अपमानित करता है या आपको भड़काने की कोशिश करता है।
समाधान:
- कछुए की तरह, अपनी वाणी और हाव-भाव को नियंत्रित करें।
- उस समय चुप रहें और स्थिति को शांत करने की कोशिश करें।
- बाद में, यदि आवश्यक हो, तो सही समय पर सही तरीके से उत्तर दें।
शिक्षा: तत्काल प्रतिक्रिया देने के बजाय धैर्य और संयम दिखाना, स्थिर चेतना का उदाहरण है।
व्यावहारिक जीवन में भागवत गीता श्लोक 2.58 का उपयोग
- कठिन समय में धैर्य बनाए रखें।
- अपनी इन्द्रियों और इच्छाओं को नियंत्रित करें।
- अनावश्यक चीजों से ध्यान हटाकर सही उद्देश्यों पर केंद्रित करें।
- मन और इन्द्रियों को भगवान की सेवा में लगाएं।
- शास्त्रों और संतों के मार्गदर्शन का पालन करें।
निष्कर्ष
भगवद्गीता का श्लोक 2.58 हमें आत्मसंयम और इन्द्रिय-नियंत्रण का महत्व सिखाता है। कछुए का उदाहरण यह दर्शाता है कि सही समय पर इन्द्रियों को नियंत्रित करना और उनका उपयोग करना, जीवन में स्थिरता और शांति प्राप्त करने का मार्ग है। इच्छाओं का त्याग और भगवान की सेवा में समर्पण, आत्मिक उन्नति और आनंद का मुख्य स्रोत है।
आइए, हम सभी इस श्लोक के गूढ़ संदेश को अपने जीवन में अपनाकर एक सुखी, शांत और आत्मिक जीवन की ओर अग्रसर हों।
Resources : श्रीमद्भागवत गीता यथारूप – बक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद, गीता प्रेस