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Bhagavad Gita Chapter 2 Verse-Shloka 60 – गीता अध्याय 2 श्लोक 60 अर्थ सहित – यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य…..

श्रीमद् भागवत गीता अध्याय 2 श्लोक 60 (Bhagavad Gita Chapter 2 Verse 60 in Hindi): श्रीमद्भगवद गीता मानव जीवन के लिए एक अद्भुत मार्गदर्शन है, जो जीवन के विभिन्न पहलुओं पर गहन संदेश प्रस्तुत करती है। गीता के श्लोक 2.60 में भगवान श्रीकृष्ण ने इन्द्रियों के चंचल स्वभाव और उनकी शक्ति के विषय में बताया है। यह श्लोक न केवल साधकों के लिए चेतावनी है, बल्कि प्रत्येक व्यक्ति को यह समझाता है कि इन्द्रियाँ इतनी प्रबल होती हैं कि विवेकवान मनुष्य को भी अपने वश में कर लेती हैं। जीवन में सफलता और आध्यात्मिक उन्नति के लिए इन्द्रियों का नियंत्रण अत्यंत आवश्यक है।

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श्रीमद् भागवत गीता अध्याय 2 श्लोक 60 (Bhagavad Gita Chapter 2 Verse 60)

गीता अध्याय 2 श्लोक 60 अर्थ सहित (Gita Chapter 2 Verse 60 in Hindi with meaning)

गीता अध्याय 2 श्लोक 60 अर्थ सहित (Gita Chapter 2 Verse 60 in Hindi with meaning) | Festivalhindu.com
Gita Chapter 2 Verse 60

भागवत गीता अध्याय 2 श्लोक 2.60

“यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्र्चितः |
इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः ||”


भागवत गीता अध्याय 2 श्लोक 2.60 का अर्थ

यततः – प्रयत्न करते हुए; हि – निश्चय ही; अपि – के बावजूद; कौन्तेय – हे कुन्तीपुत्र; पुरुषस्य – मनुष्य की; विपश्र्चितः – विवेक से युक्त; इन्द्रियाणि – इन्द्रियाँ; प्रमाथीनि – उत्तेजित; हरन्ति – फेंकती हैं; प्रसभम् – बल से; मनः – मन को |

हे कुन्तीपुत्र अर्जुन! इन्द्रियाँ इतनी वेगवान और उत्तेजक हैं कि वे उस विवेकी पुरुष के मन को भी बलपूर्वक हर लेती हैं, जो उन्हें वश में करने का प्रयास करता है।


भावार्थ: इन्द्रियों की प्रबलता

श्रीकृष्ण इस श्लोक में अर्जुन को समझा रहे हैं कि इन्द्रियाँ मानव मन पर अत्यंत प्रभाव डालती हैं। इन्द्रियाँ भौतिक संसार के विषयों से जुड़ी होती हैं और मनुष्य को अपने वश में करके उसे आध्यात्मिक पथ से विचलित कर देती हैं। यहाँ तक कि जिन व्यक्तियों ने वर्षों की तपस्या और संयम से ज्ञान प्राप्त किया है, उन्हें भी ये इन्द्रियाँ भटका सकती हैं।

प्रमुख बिंदु:

  1. इन्द्रियाँ चंचल और अत्यंत वेगवान होती हैं।
  2. विवेकी और ज्ञानवान मनुष्य को भी ये वश में कर सकती हैं।
  3. बिना इन्द्रियों के नियंत्रण के, आध्यात्मिक उन्नति असंभव है।

तात्पर्य: महान साधकों के उदाहरण

श्रीकृष्ण के इस कथन को समझने के लिए हमें इतिहास में झाँकना होगा। अनेक महान ऋषि-मुनियों, योगियों और तपस्वियों ने इन्द्रियों को वश में करने का प्रयास किया, लेकिन उनमें से कई इन्द्रियों के प्रभाव के कारण भटक गए।

1. महर्षि विश्वामित्र

महर्षि विश्वामित्र ने कठोर तपस्या की थी। उनकी तपस्या इतनी प्रबल थी कि उन्होंने स्वर्ग में भी हलचल मचा दी थी। लेकिन उनकी साधना को भंग करने के लिए इन्द्रदेव ने अप्सरा मेनका को उनके सामने भेजा। मेनका के सौंदर्य को देखकर महर्षि का मन विचलित हो गया और वे तपस्या छोड़कर विषय-भोग में लिप्त हो गए। इस उदाहरण से यह स्पष्ट होता है कि इन्द्रियों का प्रभाव कितना गहरा और विनाशकारी हो सकता है।

2. सौभरि मुनि की कथा

श्रीमद्भागवतम् में सौभरि मुनि का प्रसंग मिलता है। सौभरि मुनि महान तपस्वी थे, जिन्होंने यमुना नदी के जल में वर्षों तक तपस्या की थी। लेकिन एक दिन उन्होंने जल में दो मछलियों को मैथुन क्रिया करते हुए देखा। यह दृश्य उनके मन को विचलित कर गया। उनका तप भंग हो गया और वे भौतिक सुख की ओर प्रवृत्त हो गए।

सौभरि मुनि ने राजा मान्धाता की पचास राजकुमारियों से विवाह किया। उन्होंने अपनी योग शक्ति से पचास रूप धारण किए और पचास महलों में अपनी पत्नियों के साथ रहने लगे। सहस्त्रों वर्षों तक भोग-विलास में लिप्त रहने के बाद भी उनकी इच्छाएँ समाप्त नहीं हुईं। अंततः उन्होंने स्वयं अपने पतन को महसूस किया और कहा:
“अहो इमं पश्यत मे विनाशं”
अर्थात, “मेरे जीवन को देखो, जो इन्द्रिय-भोग के कारण अधोगति को प्राप्त हुआ।”

यह कथा हमें यह सीख देती है कि इन्द्रियों के प्रलोभन से बचना अत्यंत कठिन है, चाहे व्यक्ति कितना भी शक्तिशाली और तपस्वी क्यों न हो।

3. महर्षि पराशर और सत्यवती

महर्षि पराशर एक महान तपस्वी और विद्वान थे। उन्होंने कठिन तपस्या और योग से महान शक्ति अर्जित की थी। एक बार जब वे नदी पार करने के लिए नाव में बैठे, तो वहाँ सत्यवती नाम की स्त्री उनकी नाव चला रही थी। सत्यवती के सौंदर्य को देखकर महर्षि पराशर का मन विचलित हो गया। उनकी तपस्या और संयम के बावजूद इन्द्रियाँ उन्हें आकर्षित कर गईं। महर्षि ने सत्यवती से संबंध बनाए और उनके संयोग से व्यास जी का जन्म हुआ।

यह घटना दर्शाती है कि कितनी भी बड़ी तपस्या और ज्ञान के बावजूद इन्द्रियाँ महान साधकों को भी अपने वश में कर सकती हैं।


4. महर्षि अत्रि और अप्सरा

महर्षि अत्रि त्रिमूर्ति के भक्त और महान तपस्वी थे। उनकी तपस्या इतनी प्रबल थी कि स्वर्गलोक में हलचल मच गई। इन्द्र ने उनकी तपस्या को भंग करने के लिए एक अप्सरा को भेजा। अप्सरा के नृत्य और सौंदर्य को देखकर महर्षि अत्रि का ध्यान विचलित हो गया। वे अपनी साधना भूलकर क्षणिक आकर्षण में फँस गए।

इस घटना से यह शिक्षा मिलती है कि इन्द्रियों का प्रभाव इतना तीव्र होता है कि साधक का वर्षों का संयम भी भंग हो सकता है।


5. राजा नहुष का पतन

राजा नहुष का नाम पुराणों में एक महान और धर्मपरायण राजा के रूप में मिलता है। अपनी तपस्या और पुण्य के कारण उन्होंने इन्द्र का स्थान प्राप्त किया। लेकिन जब वे स्वर्ग में शासन करने लगे, तो इन्द्राणी (इन्द्र की पत्नी) के सौंदर्य पर मोहित हो गए। उनके मन में कामवासना जागृत हो गई और उन्होंने इन्द्राणी को अपने पास बुलाने का प्रयास किया।

उनकी इस वासना के कारण देवताओं ने उन्हें शाप दिया और राजा नहुष को स्वर्ग से पतन का सामना करना पड़ा। इस घटना से यह सिद्ध होता है कि इन्द्रियाँ किसी को भी पतन की ओर ले जा सकती हैं, चाहे वह कितना भी पुण्यात्मा क्यों न हो।


6. राजा ययाति की कथा

महान राजा ययाति का नाम भारतीय पुराणों में आदर से लिया जाता है। राजा ययाति अत्यंत शक्तिशाली और पुण्यवान राजा थे। लेकिन इन्द्रियों के अधीन होकर वे भोग-विलास में लिप्त हो गए। उन्हें शाप मिला कि वे वृद्ध हो जाएँगे। शाप से मुक्ति के लिए उन्होंने अपने पुत्रों से उनकी युवावस्था माँगी। पुत्र पुरु ने उन्हें अपनी युवावस्था दी, और राजा ययाति सहस्त्रों वर्षों तक भोग-विलास में लिप्त रहे।

अंततः उन्हें यह बोध हुआ कि इन्द्रिय-भोगों से कभी तृप्ति नहीं होती। राजा ययाति ने कहा:
“न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति।
हविषा कृष्णवर्त्मेव भूय एवाभिवर्धते।।”

अर्थात, “जैसे अग्नि में घी डालने से वह और अधिक भड़कती है, उसी प्रकार इन्द्रियों की वासनाएँ भोग से कभी शांत नहीं होतीं, बल्कि और बढ़ जाती हैं।”


5. सावित्री और सत्यवान की कथा

सावित्री का चरित्र एक आदर्श नारी का प्रतीक है। उन्होंने अपने पति सत्यवान के लिए मृत्यु को भी पराजित कर दिया। लेकिन उनकी कथा में भी यह तथ्य निहित है कि इन्द्रियों की शक्ति का सामना करने के लिए अडिग संकल्प और दृढ़ आत्मविश्वास की आवश्यकता होती है।

सावित्री ने कठिन तपस्या और व्रत के बल पर अपने पति सत्यवान को मृत्यु से वापस लाने में सफलता पाई। यहाँ सावित्री का चरित्र यह दिखाता है कि जब मनुष्य अपने मन और इन्द्रियों पर नियंत्रण प्राप्त कर लेता है, तो असंभव को भी संभव बना सकता है।


6. विष्णु के अवतार: वामन और बलि

भौतिक संपत्ति और शक्ति की वासना मनुष्य को कितना विवेकहीन बना सकती है, इसका उदाहरण बलि राजा की कथा में मिलता है। वामन अवतार के रूप में भगवान विष्णु ने राजा बलि की परीक्षा ली। बलि राजा को अपनी शक्ति और दानशीलता पर गर्व था। उन्होंने तीन पग भूमि दान करने की प्रतिज्ञा कर ली।

भगवान वामन ने तीन पग में संपूर्ण पृथ्वी, स्वर्ग और बलि राजा का अभिमान हर लिया। बलि को यह बोध हुआ कि इन्द्रियों के अधीन होकर भौतिक वस्तुओं पर अधिकार जमाना अंततः विनाश की ओर ले जाता है।


7. उर्वशी और अर्जुन

महाभारत में वर्णित एक कथा के अनुसार, अर्जुन जब स्वर्गलोक में गए, तब अप्सरा उर्वशी ने उन्हें अपने प्रेमजाल में फँसाने का प्रयास किया। उर्वशी का सौंदर्य इतना अद्वितीय था कि कोई भी उसे देखकर मोहित हो जाता। लेकिन अर्जुन ने अपने मन और इन्द्रियों पर नियंत्रण रखते हुए उर्वशी को माता समान मानते हुए उसके प्रस्ताव को ठुकरा दिया।

इस घटना से अर्जुन का आत्मसंयम और इन्द्रिय-निग्रह का आदर्श सामने आता है। अर्जुन का यह चरित्र दर्शाता है कि कठोर साधना और भगवान के प्रति भक्ति से इन्द्रियों पर विजय प्राप्त की जा सकती है।


8. महाराज भरत की कथा

महाराज भरत ने अपना राज्य छोड़कर वन में कठोर तपस्या की। लेकिन एक दिन उन्होंने एक मृग के बच्चे को देखा, जिसे शेर ने मार दिया था। करुणा के वश में आकर उन्होंने उस मृग की देखभाल शुरू कर दी। धीरे-धीरे उनका मन तपस्या से हटकर उस मृग के प्रति आसक्त हो गया।

महाराज भरत का यह उदाहरण दर्शाता है कि इन्द्रियाँ सिर्फ भोग-विलास में ही नहीं, बल्कि करुणा और स्नेह जैसे गुणों के माध्यम से भी मन को विचलित कर सकती हैं।


इन्द्रियाँ: मनुष्य के पतन का कारण

इन्द्रियाँ मानव मन पर गहरा प्रभाव डालती हैं। वे भौतिक संसार के विषयों की ओर आकर्षित करती हैं और मनुष्य को स्थायी सुख की जगह अस्थायी सुख के पीछे भटकाती हैं। इन्द्रियों को वश में न करने पर ये निम्नलिखित समस्याओं का कारण बनती हैं:

  1. मन की चंचलता: इन्द्रियाँ मन को स्थिर नहीं रहने देतीं और उसे इधर-उधर भटकाती रहती हैं।
  2. आध्यात्मिक पतन: इन्द्रियों के अधीन व्यक्ति का ध्यान ईश्वर से हटकर भौतिक भोगों की ओर चला जाता है।
  3. वासनाओं की वृद्धि: इन्द्रिय-भोग कभी समाप्त नहीं होते, बल्कि और अधिक तुष्टि की लालसा बढ़ती जाती है।
  4. विवेक का नाश: इन्द्रियों के प्रभाव में व्यक्ति अपना विवेक खो बैठता है और सही-गलत का निर्णय नहीं कर पाता।

इन्द्रियाँ: अनियंत्रित घोड़े के समान

भगवान श्रीकृष्ण के अनुसार, इन्द्रियाँ अनियंत्रित घोड़े के समान हैं, जो साधक को किसी भी दिशा में खींच सकती हैं। जब तक मन और इन्द्रियों को वश में नहीं किया जाता, तब तक जीवन में स्थायी सुख और शांति प्राप्त करना असंभव है।

मुख्य चुनौतियाँ:

  1. इन्द्रियों की वेगवती प्रकृति: इन्द्रियाँ तुरंत उत्तेजित हो जाती हैं और मन को विचलित कर देती हैं।
  2. मन और इन्द्रियों का आपसी संबंध: मन और इन्द्रियाँ एक-दूसरे को प्रभावित करती हैं। जब इन्द्रियाँ भटकती हैं, तो मन भी भटक जाता है।
  3. भौतिक संसार के विषय: भौतिक वस्तुएँ जैसे – भोजन, धन, और शारीरिक सुख इन्द्रियों को आकर्षित करते हैं।

इन्द्रिय-निग्रह के उपाय

1. सत्संग का महत्त्व

संतों और भक्तों के संग से व्यक्ति के मन को शांति मिलती है। सत्संग के माध्यम से व्यक्ति भौतिक विषयों से ऊपर उठकर आध्यात्मिक आनंद की ओर अग्रसर होता है।

2. साधना और ध्यान

ध्यान और योग के माध्यम से मन और इन्द्रियों को अनुशासित किया जा सकता है। नियमित साधना से मनुष्य अपनी चंचलता पर काबू पा सकता है।

3. कृष्णभावनामृत

श्रीकृष्ण के चरणकमलों में मन लगाने से इन्द्रियों पर विजय प्राप्त की जा सकती है। जब मन ईश्वर की भक्ति में लीन हो जाता है, तब भौतिक भोग स्वतः ही नीरस लगने लगते हैं।

यामुनाचार्य का उदाहरण:
यामुनाचार्य कहते हैं:
“यदवधि मम चेतः कृष्णपदारविन्दे
नवनवरसधामन्युद्यतं रन्तुमासीत्।
तदवधि बात नारीसंगमे स्मर्यमाने
भवति मुखविकारः सुष्ठु निष्ठीवनं च ||”

अर्थात, जब से मेरा मन भगवान श्रीकृष्ण के चरणकमलों की सेवा में लग गया है, तब से स्त्री-संग का विचार आते ही मैं उस पर थू-थू करता हूँ।

4. संयमित जीवन

आहार-विहार और दिनचर्या में संयम अपनाने से इन्द्रियाँ नियंत्रण में आती हैं। सात्त्विक आहार और जीवनशैली से मनुष्य इन्द्रिय-भोगों से बच सकता है।


महत्वपूर्ण उदाहरण: राजा अम्बरीष

राजा अम्बरीष ने अपनी भक्ति के बल पर महान योगी दुर्वासा मुनि को भी पराजित कर दिया था। उनका मन सदा श्रीकृष्ण की भक्ति में लीन रहता था। वे कहते हैं:
“स वै मनः कृष्णपदारविन्दयोः वचांसि वैकुण्ठगुणानुवर्णने”
अर्थात, उन्होंने अपने मन को भगवान श्रीकृष्ण के चरणकमलों में लगा रखा था और वाणी से भगवान के गुणों का वर्णन करते रहते थे।


निष्कर्ष

भगवान श्रीकृष्ण के श्लोक 2.60 का संदेश हमें यह सिखाता है कि इन्द्रियाँ अत्यंत प्रबल होती हैं। महान ऋषि-मुनियों और तपस्वियों का उदाहरण हमें चेतावनी देता है कि इन्द्रियों के प्रलोभन से बचना अत्यंत कठिन है। लेकिन यह असंभव नहीं है। यदि हम भगवान श्रीकृष्ण की शरण में जाएँ और उनके भजन, कीर्तन और साधना में मन को स्थिर करें, तो इन्द्रियों पर विजय प्राप्त की जा सकती है।

“मन और इन्द्रियों पर विजय ही जीवन की सबसे बड़ी सफलता है।”

Resources : श्रीमद्भागवत गीता यथारूप – बक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद, गीता प्रेस

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