श्रीमद् भागवत गीता अध्याय 2 श्लोक 64 (Bhagavad Gita Chapter 2 Verse 64 in Hindi): यह लेख श्रीमद्भगवद्गीता के श्लोक 2.64 (Bhagavad Gita Chapter 2 Shloka 64) के महत्व और व्यावहारिक जीवन में उसकी भूमिका को समझाने का प्रयास करता है। इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण हमें राग और द्वेष से मुक्त होकर, इन्द्रियों को संयमित करने और भगवत्कृपा प्राप्त करने का मार्ग बताते हैं। यह श्लोक हमारे मानसिक और आध्यात्मिक जीवन को संतुलित और शुद्ध बनाने में सहायक है।
श्रीमद् भागवत गीता अध्याय 2 श्लोक 64 (Bhagavad Gita Chapter 2 Verse 64)
गीता अध्याय 2 श्लोक 64 अर्थ सहित (Gita Chapter 2 Verse 64 in Hindi with meaning)
भागवत गीता अध्याय 2 श्लोक 2.64 का अर्थ और महत्व
श्लोक:
रागद्वेषविमुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्र्चरन्।
आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति।।
राग – आसक्ति; द्वेष – तथा वैराग्य से; विमुक्तैः – मुक्त रहने वाले से; तु – लेकिन; विषयान् – इन्द्रियविषयों को; इन्द्रियैः – इन्द्रियों के द्वारा; चरन् – भोगता हुआ; आत्म-वश्यैः – अपने वश में; विधेय-आत्मा – नियमित स्वाधीनता पालक; प्रसादम् – भगवत्कृपा को; अधिगच्छति – प्राप्त करता है |
अनुवाद:
जो व्यक्ति राग (आसक्ति) और द्वेष (वैराग्य) से मुक्त होकर इन्द्रियों को संयमित रखते हुए विषयों का भोग करता है, वह आत्मा को अपने वश में रखने वाला और संयमित चित्त वाला होता है। ऐसे व्यक्ति को भगवान की कृपा प्राप्त होती है।
भागवत गीता अध्याय 2 श्लोक 2.64 का भावार्थ
श्रीकृष्ण इस श्लोक में बताते हैं कि जब व्यक्ति अपने मन और इन्द्रियों को संयमित करता है और राग-द्वेष से मुक्त रहता है, तभी उसे दिव्य शांति और भगवत्कृपा की प्राप्ति होती है। मन और इन्द्रियों को नियंत्रित किए बिना व्यक्ति के लिए भगवान की कृपा पाना कठिन है। यह श्लोक हमें सिखाता है कि राग और द्वेष से परे रहकर ही आत्मा की शुद्धि और ईश्वर का साक्षात्कार संभव है।
राग और द्वेष से मुक्ति का महत्व
राग और द्वेष मनुष्य के जीवन में दो मुख्य बाधाएं हैं। राग का अर्थ है किसी वस्तु, व्यक्ति या परिस्थिति के प्रति अत्यधिक आसक्ति, जबकि द्वेष इसका विपरीत है, जिसमें व्यक्ति किसी वस्तु या परिस्थिति से घृणा करता है। दोनों ही स्थितियां मनुष्य के मन को अशांत करती हैं। जब मनुष्य राग और द्वेष से ग्रसित होता है, तो उसका चित्त स्थिर नहीं रह पाता। राग और द्वेष से मुक्त होकर ही व्यक्ति मन को स्थिरता और शांति प्रदान कर सकता है।
राग और द्वेष के प्रभाव से व्यक्ति अपने जीवन में संतुलन खो देता है। राग उसे किसी वस्तु या व्यक्ति के प्रति अत्यधिक आसक्त बना देता है, जबकि द्वेष उसे नकारात्मक विचारों में उलझा देता है। ये दोनों ही स्थितियां आत्मा की शुद्धि में बाधा डालती हैं और भगवान की कृपा से दूर ले जाती हैं।
इन्द्रियों पर नियंत्रण
भगवद्गीता के इस श्लोक में इन्द्रियों को नियंत्रित करने पर विशेष जोर दिया गया है। इन्द्रियां मनुष्य के मन को बाहरी विषयों की ओर खींचती हैं। जब व्यक्ति अपनी इन्द्रियों को वश में नहीं रखता, तो वह बाहरी विषयों में उलझ कर अपने जीवन के वास्तविक उद्देश्य से भटक जाता है। इन्द्रियों को नियंत्रित करना कठिन है, लेकिन यह भगवान की भक्ति और ध्यान के माध्यम से संभव है।
श्रीकृष्ण कहते हैं कि जब व्यक्ति अपनी इन्द्रियों को संयमित करता है, तो उसका मन शुद्ध और स्थिर रहता है। इस शुद्धता और स्थिरता के कारण वह व्यक्ति भगवान की कृपा प्राप्त करने योग्य बनता है। इन्द्रियों को नियंत्रित करने के लिए ध्यान, योग और भक्ति का अभ्यास महत्वपूर्ण है। इन अभ्यासों के माध्यम से व्यक्ति अपने मन और इन्द्रियों को संयमित कर सकता है।
भगवत्कृपा का महत्व
भगवत्कृपा मनुष्य के जीवन में दिव्यता और शांति का प्रवेश करती है। यह कृपा आत्मा को शुद्ध करती है और उसे मोह और माया के बंधन से मुक्त करती है। जब व्यक्ति भगवान की कृपा प्राप्त करता है, तो वह संसार के सुख-दुख से परे हो जाता है। वह न तो भौतिक सुखों की ओर आकर्षित होता है और न ही दुखों से विचलित होता है।
भगवत्कृपा से व्यक्ति अपने जीवन में सच्चे सुख और शांति का अनुभव करता है। यह कृपा उसे जीवन के हर क्षेत्र में सफलता प्रदान करती है। भगवत्कृपा प्राप्त करने के लिए व्यक्ति को राग और द्वेष से मुक्त होना आवश्यक है। यह श्लोक हमें सिखाता है कि राग और द्वेष से परे रहकर ही व्यक्ति भगवान की कृपा प्राप्त कर सकता है।
भागवत गीता अध्याय 2 श्लोक 2.64 का व्यावहारिक जीवन में महत्व
भगवद्गीता का यह श्लोक न केवल आध्यात्मिक जीवन में बल्कि व्यावहारिक जीवन में भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। राग और द्वेष से मुक्त होकर व्यक्ति अपने जीवन को सरल और सुखद बना सकता है। जब व्यक्ति राग और द्वेष से मुक्त होता है, तो उसका चित्त स्थिर और शुद्ध होता है। यह स्थिरता और शुद्धता उसे हर परिस्थिति में धैर्य और संयम बनाए रखने में मदद करती है।
मन और इन्द्रियों पर नियंत्रण पाकर व्यक्ति अपने जीवन में आंतरिक शांति प्राप्त कर सकता है। यह शांति उसे जीवन के हर क्षेत्र में सफलता प्रदान करती है। जब व्यक्ति इन्द्रियों को संयमित करता है और भगवान की भक्ति में लीन होता है, तो वह संसार के मोह और माया से ऊपर उठ जाता है। इस स्थिति में वह जीवन के हर अनुभव को सकारात्मक दृष्टिकोण से देखता है।
आध्यात्मिक विकास और भागवत गीता अध्याय 2 श्लोक 2.64
यह श्लोक न केवल व्यक्तिगत जीवन को सुधरने में सहायक है, बल्कि यह आध्यात्मिक विकास का मार्ग भी दिखाता है। जब व्यक्ति राग और द्वेष से मुक्त होता है और अपने मन को भगवान की भक्ति में स्थिर करता है, तो वह आत्मा की शुद्धि की ओर अग्रसर होता है। यह शुद्धि उसे दिव्यता और शाश्वत सुख की प्राप्ति कराती है।
श्रीकृष्ण बताते हैं कि भगवान की भक्ति के माध्यम से ही आत्मा की शुद्धि संभव है। जब व्यक्ति भगवान की भक्ति में लीन होता है, तो वह संसार के सुख-दुख से परे हो जाता है। वह जीवन के हर अनुभव को दिव्य दृष्टिकोण से देखता है। यह दृष्टिकोण उसे सच्चे सुख और शांति का अनुभव कराता है।
निष्कर्ष
श्रीकृष्ण द्वारा कहा गया यह श्लोक जीवन को सरल, संतुलित और दिव्यता की ओर प्रेरित करता है। इसे अपनाकर हम अपने जीवन को सुधार सकते हैं और भगवत्कृपा प्राप्त कर सकते हैं। राग और द्वेष से परे रहकर, इन्द्रियों और मन को संयमित करते हुए भगवान की भक्ति में लीन होना ही सच्चे सुख और शांति का मार्ग है। यह श्लोक हमें न केवल जीवन जीने की कला सिखाता है, बल्कि हमें ईश्वर की कृपा और दिव्य आनंद की प्राप्ति का मार्ग भी दिखाता है।
Resources : श्रीमद्भागवत गीता यथारूप – बक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद, गीता प्रेस