श्रीमद् भागवत गीता अध्याय 2 श्लोक 15 (Bhagavad Gita Chapter 2 Verse 15 in Hindi): भगवद गीता के श्लोक 2.15 (Bhagavad Gita Chapter 2 Shloka 15) में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को एक महत्वपूर्ण जीवन की सीख दी है। यह श्लोक न केवल अर्जुन के लिए बल्कि हम सभी के लिए जीवन में आने वाले कठिनाइयों और संघर्षों का सामना करने का मार्गदर्शन करता है। इस श्लोक के माध्यम से श्रीकृष्ण ने बताया है कि किस प्रकार एक स्थिर और दृढ़ मनुष्य ही जीवन के असली अर्थ को समझ सकता है और मोक्ष की प्राप्ति कर सकता है।
श्रीमद् भागवत गीता अध्याय 2 श्लोक 15 (Bhagavad Gita Chapter 2 Verse 15)
गीता अध्याय 2 श्लोक 15 अर्थ सहित (Geeta Chapter 2 Verse 15 in Hindi with meaning)
श्लोक:
यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ |
समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते || १५ ||
भावार्थ:
यम् – जिस; हि – निश्चित रूप से; न – कभी नहीं; व्यथ्यन्ति – विचलित नहीं करते; एते – ये सब; पुरुषम् – मनुष्य को; पुरुष-ऋषभ – हे पुरुष-श्रेष्ठ; सम – अपरिवर्तनीय; दुःख – दुख में; सूखम् – तथा सुख में; धीरम् – धीर पुरुष; सः – वह; अमृतत्वाय – मुक्ति के लिए; कल्पते – योग्य है |
हे पुरुषश्रेष्ठ (अर्जुन)! जो पुरुष सुख और दुःख में विचलित नहीं होता और इन दोनों में समभाव बनाए रखता है, वह निश्चित रूप से मोक्ष के योग्य है।
तात्पर्य: जीवन में स्थिरता की आवश्यकता
श्रीकृष्ण यहाँ अर्जुन से कह रहे हैं कि जीवन में सुख और दुःख एक सिक्के के दो पहलू हैं। एक सच्चे धीर पुरुष को इन दोनों से समान रूप से प्रभावित नहीं होना चाहिए। जो व्यक्ति इन दोनों स्थितियों को समभाव से सहन करता है, वही मोक्ष के मार्ग पर अग्रसर हो सकता है।
संन्यास आश्रम की कठिनाइयाँ:
- परिवार से संबंध-विच्छेद: संन्यास आश्रम में प्रवेश करने पर व्यक्ति को परिवार, पत्नी और संतानों से संबंध तोड़ना पड़ता है।
- आंतरिक संघर्ष: प्रियजनों से दूर होने की पीड़ा के बावजूद, आत्म-साक्षात्कार के लिए यह बलिदान आवश्यक है।
- धर्म का पालन: अर्जुन के संदर्भ में, श्रीकृष्ण उन्हें क्षत्रिय धर्म का पालन करने के लिए प्रेरित कर रहे हैं, भले ही यह युद्ध उनके प्रियजनों के खिलाफ हो।
श्रीकृष्ण का सन्देश
भगवान चैतन्य महाप्रभु ने स्वयं 24 वर्ष की आयु में संन्यास ग्रहण किया था, जबकि उनकी तरुण पत्नी और वृद्ध माता पर उनकी देखभाल की जिम्मेदारी थी। यह उदाहरण दर्शाता है कि आत्म-साक्षात्कार और मोक्ष प्राप्ति के लिए संन्यास और धैर्य कितने महत्वपूर्ण हैं।
मुख्य बिंदु:
- जीवन में सुख और दुःख का समान रूप से सामना करना चाहिए।
- आत्म-साक्षात्कार के लिए धैर्य और स्थिरता आवश्यक है।
- जीवन की कठिनाइयों से विचलित हुए बिना, अपने धर्म का पालन करना चाहिए।
निष्कर्ष
श्लोक 2.15 हमें यह सिखाता है कि जीवन में आने वाले हर दुःख और सुख का समभाव से स्वागत करना चाहिए। यह स्थिरता और धैर्य ही हमें मोक्ष के मार्ग पर ले जाता है। भगवान श्रीकृष्ण की यह शिक्षा आज के समय में भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी अर्जुन के समय में थी। जीवन की हर चुनौती को स्वीकारें और अपने धर्म के पालन में अडिग रहें। यही सच्ची मुक्ति का मार्ग है।
Resources : श्रीमद्भागवत गीता यथारूप – बक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद, गीता प्रेस