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Bhagavad Gita Chapter 2 Verse-Shloka 6 – गीता अध्याय 2 श्लोक 6 अर्थ सहित – न चैतद्विद्मः कतरन्नो गरियो…..

श्रीमद् भागवत गीता अध्याय 2 श्लोक 6 (Bhagwat Geeta adhyay 2 shlok 6 in Hindi): भगवद् गीता के दूसरे अध्याय का श्लोक 6 (Gita Chapter 2 Verse 6) अर्जुन की मानसिक अवस्था और उसकी नैतिक दुविधा को गहराई से प्रकट करता है। अर्जुन इस युद्ध में खुद को एक कठिन परिस्थिति में पाता है, जहाँ उसे यह समझ नहीं आ रहा कि विजय उसकी प्रबलता है या पराजय उसकी सुरक्षा।

श्रीमद् भागवत गीता अध्याय 2 श्लोक 6 (Bhagavad Gita Chapter 2 Verse 6)

गीता अध्याय 2 श्लोक 6 अर्थ सहित (Gita Chapter 2 Verse 6 with meaning in Hindi)

गीता अध्याय 2 श्लोक 6 अर्थ सहित (Gita Chapter 2 Verse 6 with meaning in Hindi) | Festivalhindu.com
Gita Chapter 2 Verse 6 in Hindi

युद्ध का धर्म और अर्जुन का द्वंद्व

श्लोक 2.6 का भावार्थ

श्लोक:

न चैतद्विद्मः कतरन्नो गरियो यद्वा जयेम यदि वा नो जयेयु: |
यानेव हत्वा न जिजीविषाम- स्तेSवस्थिताः प्रमुखे धार्तराष्ट्राः || ६ ||

भावार्थ: हम यह भी नहीं जानते कि हमारे लिए क्या श्रेष्ठ है – उनको जीतना या उनके द्वारा जीते जाना। यदि हम धृतराष्ट्र के पुत्रों का वध कर देते हैं तो हमें जीवित रहने की आवश्यकता नहीं है। फिर भी वे युद्धभूमि में हमारे समक्ष खड़े हैं।

अर्जुन का द्वंद्व

महाभारत के युद्ध के मैदान में, अर्जुन एक गहरे द्वंद्व में फंस गया था। वह समझ नहीं पा रहा था कि उसे क्या करना चाहिए – युद्ध करना और अनावश्यक रक्तपात का कारण बनना, या फिर युद्ध से विमुख होकर भिक्षा मांगकर जीवन-यापन करना। क्षत्रिय होने के नाते युद्ध करना उसका धर्म था, लेकिन अपने ही परिवार के सदस्यों के खिलाफ युद्ध करना उसे सही नहीं लग रहा था।

अर्जुन की दुविधा के मुख्य बिंदु

  • युद्ध का धर्म: अर्जुन एक क्षत्रिय था, और उसके लिए युद्ध करना धर्म था। लेकिन वह सोच रहा था कि क्या यह धर्म सही है जब उसे अपने ही परिवार के सदस्यों के खिलाफ लड़ना पड़े।
  • रक्तपात का भय: अर्जुन को अनावश्यक रक्तपात का डर था। वह नहीं चाहता था कि उसके कारण इतने लोगों की जान जाए।
  • जीविका का साधन: यदि वह युद्ध नहीं करता, तो उसके पास जीवन-यापन का कोई साधन नहीं था। उसे भिक्षा मांगकर जीवन-यापन करना पड़ता।
  • परिवार का वध: अर्जुन को यह भी चिंता थी कि यदि वह धृतराष्ट्र के पुत्रों का वध कर देता है, तो वह कैसे जीवित रहेगा। उसके लिए यह एक असहनीय स्थिति थी।

अर्जुन की महानता

अर्जुन न केवल भगवान् का महान भक्त था, बल्कि वह अत्यधिक प्रबुद्ध और अपने मन तथा इन्द्रियों पर पूर्ण नियन्त्रण रखने वाला था। राज परिवार में जन्म लेकर भी भिक्षा द्वारा जीवित रहने की इच्छा उसकी विरक्ति का दूसरा लक्षण है। अर्जुन की यह विशेषताएँ उसे एक महान योद्धा और एक महान व्यक्ति बनाती हैं।

अर्जुन की विशेषताएँ

  • भगवान् का भक्त: अर्जुन भगवान् श्रीकृष्ण के प्रति अत्यधिक श्रद्धा रखता था। वह उनके उपदेशों को मानता और उनका पालन करता था।
  • प्रबुद्धता: अर्जुन अत्यधिक प्रबुद्ध था। वह अपने मन और इन्द्रियों पर पूर्ण नियन्त्रण रखता था।
  • विरक्ति: राज परिवार में जन्म लेकर भी अर्जुन भिक्षा द्वारा जीवन-यापन करने की इच्छा रखता था। यह उसकी विरक्ति का लक्षण है।
  • पुण्यात्मा: अर्जुन सचमुच पुण्यात्मा था। वह मुक्ति के योग्य था।

निष्कर्ष

अर्जुन के द्वंद्व और उसकी महानता को समझने के लिए हमें उसके गुणों और भगवान् श्रीकृष्ण के उपदेशों में उसकी श्रद्धा को ध्यान में रखना होगा। अर्जुन का यह द्वंद्व हमें यह सिखाता है कि जीवन में सही निर्णय लेने के लिए हमें अपने धर्म और कर्तव्यों को समझना और उनका पालन करना चाहिए।

अर्जुन की स्थिति हमें यह भी सिखाती है कि कभी-कभी जीवन में हमें कठिन निर्णय लेने पड़ते हैं। हमें अपने धर्म और कर्तव्यों को समझकर ही सही निर्णय लेना चाहिए। अर्जुन का यह द्वंद्व और उसकी महानता हमें यह सिखाती है कि सही निर्णय लेने के लिए हमें अपने मन और इन्द्रियों पर नियन्त्रण रखना चाहिए और भगवान् के उपदेशों का पालन करना चाहिए।

अर्जुन की यह कहानी हमें यह भी सिखाती है कि जीवन में कठिनाइयों का सामना कैसे करना चाहिए। हमें अपने धर्म और कर्तव्यों को समझकर ही सही निर्णय लेना चाहिए। अर्जुन का यह द्वंद्व और उसकी महानता हमें यह सिखाती है कि सही निर्णय लेने के लिए हमें अपने मन और इन्द्रियों पर नियन्त्रण रखना चाहिए और भगवान् के उपदेशों का पालन करना चाहिए।

इस प्रकार, अर्जुन का द्वंद्व और उसकी महानता हमें यह सिखाती है कि जीवन में सही निर्णय लेने के लिए हमें अपने धर्म और कर्तव्यों को समझना और उनका पालन करना चाहिए। अर्जुन की यह कहानी हमें यह भी सिखाती है कि जीवन में कठिनाइयों का सामना कैसे करना चाहिए।

Resources : श्रीमद्भागवत गीता यथारूप – बक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद, गीता प्रेस

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