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Bhagwat Geeta Chapter 2 Verse-Shloka 8 – गीता अध्याय 2 श्लोक 8 अर्थ सहित – न हि प्रपश्यामि ममापनुद्या…..

श्रीमद् भागवत गीता अध्याय 2 श्लोक 8 (Bhagwat Geeta adhyay 2 Shlok 8 in Hindi): भगवद्गीता का श्लोक 2.8(Bhagwat Geeta Chapter 2 Verse in Hindi) अर्जुन के गहरे शोक और उसकी आंतरिक संघर्ष की स्थिति का वर्णन करता है। यह श्लोक हमें यह समझने में मदद करता है कि भौतिक सुख-सुविधाएं और सांसारिक सफलता किसी के आंतरिक दुख को समाप्त नहीं कर सकतीं। इसके लिए एक उच्चतर आध्यात्मिक मार्ग की आवश्यकता होती है।

श्रीमद् भागवत गीता अध्याय 2 श्लोक 8 (Bhagavad Gita Chapter 2 Verse 8)

गीता अध्याय 2 श्लोक 8 अर्थ सहित (Gita Chapter 2 Verse 8 in Hindi with meaning)

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Gita Chapter 2 Verse 8 in Hindi

श्लोक 2.8: अर्जुन का शोक और समाधान

अर्जुन का शोक

न हि प्रपश्यामि ममापनुद्या- द्यच्छोकमुच्छोषणमिन्द्रियाणाम् |

अवाप्य भूमावसपत्नमृद्धं राज्यं सुराणामपि चाधिपत्यम् || ८ ||

भावार्थ

न – नहीं; हि – निश्चय ही; प्रपश्यामि – देखता हूँ; मम – मेरा; अपनुद्यात् – दूर कर सके; यत् – जो; शोकम् – शोक; उच्छोषणम् – सुखाने वाला; इन्द्रियाणाम् – इन्द्रियों को; अवाप्य – प्राप्त करके; भूमौ – पृथ्वी पर; असपत्नम् – शत्रुविहीन; ऋद्धम् – समृद्ध; राज्यम् – राज्य; सुराणाम् – देवताओं का; अपि – चाहे; च – भी; आधिपत्यम् – सर्वोच्चता |

मुझे ऐसा कोई साधन नहीं दिखता जो मेरी इन्द्रियों को सुखाने वाले इस शोक को दूर कर सके। स्वर्ग पर देवताओं के आधिपत्य की तरह इस धनधान्य-सम्पन्न सारी पृथ्वी पर निष्कंटक राज्य प्राप्त करके भी मैं इस शोक को दूर नहीं कर सकूँगा।

तात्पर्य

यद्यपि अर्जुन धर्म तथा सदाचार के नियमों पर आधारित अनेक तर्क प्रस्तुत करता है, किन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि वह अपने गुरु भगवान् श्रीकृष्ण की सहायता के बिना अपनी असली समस्या को हल नहीं कर पा रहा। वह समझ गया था कि उसका तथाकथित ज्ञान उसकी उन समस्याओं को दूर करने में व्यर्थ है जो उसके सारे अस्तित्व (शरीर) को सुखाये दे रही थीं। उसे इन उलझनों को भगवान् कृष्ण जैसे आध्यात्मिक गुरु की सहायता के बिना हल कर पाना असम्भव लग रहा था।

गुरु की महत्ता

शैक्षिक ज्ञान, विद्वता, उच्च पद – ये सब जीवन की समस्याओं का हल करने में व्यर्थ हैं। यदि कोई इसमें सहायता कर सकता है, तो वह है एकमात्र गुरु। अतः निष्कर्ष यह निकला कि गुरु जो शत-प्रतिशत कृष्णभावनाभावित होता है, वही एकमात्र प्रमाणिक गुरु है और वही जीवन की समस्याओं को हल कर सकता है।

भगवान् चैतन्य ने कहा है कि जो कृष्णभावनामृत के विज्ञान में दक्ष हो, कृष्णतत्त्ववेत्ता हो, चाहे वह जिस किसी जाति का हो, वही वास्तविक गुरु है। अतः कृष्णतत्त्ववेत्ता हुए बिना कोई भी प्रामाणिक गुरु नहीं हो सकता। वैदिक साहित्य में भी कहा गया है कि विद्वान ब्राह्मण, भले ही वह सम्पूर्ण वैदिक ज्ञान में पारंगत क्यों न हो, यदि वह वैष्णव नहीं है या कृष्णभावनामृत में दक्ष नहीं है तो गुरु बनने का पात्र नहीं है।

कृष्णभावनामृत का महत्व

कृष्णभावनामृत का अर्थ है भगवान् श्रीकृष्ण के प्रति पूर्ण समर्पण और उनकी भक्ति। यह केवल धार्मिक अनुष्ठानों तक सीमित नहीं है, बल्कि यह जीवन के हर पहलू में कृष्ण की उपस्थिति को स्वीकार करना और उनके मार्गदर्शन में चलना है। अर्जुन ने जब अपने शोक और दुविधा को दूर करने के लिए श्रीकृष्ण की शरण ली, तब उन्होंने यह समझा कि केवल कृष्णभावनामृत ही उन्हें वास्तविक शांति और समाधान प्रदान कर सकता है।

संसार की समस्याएँ और उनका समाधान

संसार की समस्याओं – जन्म, जरा, व्याधि तथा मृत्यु – की निवृत्ति धन-संचय तथा आर्थिक विकास से संभव नहीं है। विश्र्व के विभिन्न भागों में ऐसे राज्य हैं जो जीवन की सारी सुविधाओं से तथा सम्पत्ति एवं आर्थिक विकास से पूरित हैं, किन्तु फिर भी उनके सांसारिक जीवन की समस्याएँ ज्यों की त्यों बनी हुई हैं। वे विभिन्न साधनों से शान्ति खोजते हैं, किन्तु वास्तविक सुख उन्हें तभी मिल पाता है जब वे कृष्णभावनामृत से युक्त कृष्ण के प्रामाणिक प्रतिनिधि के माध्यम से कृष्ण अथवा कृष्णतत्त्वपूरक भगवद्गीता तथा श्रीमद्भागवत के परामर्श को ग्रहण करते हैं।

यदि आर्थिक विकास तथा भौतिक सुख किसी के पारिवारिक, सामाजिक, राष्ट्रीय या अन्तर्राष्ट्रीय अव्यवस्था से उत्पन्न हुए शोकों को दूर कर पाते, तो अर्जुन यह न कहता कि पृथ्वी का अप्रतिम राज्य या स्वर्गलोक में देवताओं की सर्वोच्चता भी उसके शोकों को दूर नहीं कर सकती। इसीलिए उसने कृष्णभावनामृत का ही आश्रय ग्रहण किया और यही शान्ति तथा समरसता का उचित मार्ग है। आर्थिक विकास या विश्र्व आधिपत्य प्राकृतिक प्रलय द्वारा किसी भी क्षण समाप्त हो सकता है। यहाँ तक कि चन्द्रलोक जैसे उच्च लोकों की यात्रा भी, जिसके लिए मनुष्य प्रयत्नशील हैं, एक झटके में समाप्त हो सकती है। भगवद्गीता इसकी पुष्टि करती है – क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति – जब पुण्यकर्मों के फल समाप्त हो जाते हैं तो मनुष्य सुख के शिखर से जीवन के निम्नतम स्टार पर गिर जाता है। इस तरह से विश्र्व के अनेक राजनीतिज्ञों का पतन हुआ है। ऐसा अधःपतन शोक का कारण बनता है।

निष्कर्ष

यदि हम सदा के लिए शोक का निवारण चाहते हैं तो हमें कृष्ण की शरण ग्रहण करनी होगी, जिस तरह अर्जुन ने की। अर्जुन ने कृष्ण से प्रार्थना की कि वे उसकी समस्या का निश्चित समाधान कर दें यही कृष्णभावनामृत की विधि है।

मुख्य बिंदु:

  • अर्जुन का शोक और उसकी गहराई
  • गुरु की महत्ता और उनकी भूमिका
  • कृष्णभावनामृत का महत्व
  • संसार की समस्याएँ और उनका समाधान
  • शोक का निवारण और कृष्ण की शरण

इस प्रकार, अर्जुन के शोक का समाधान केवल भगवान् श्रीकृष्ण की शरण में ही संभव है। आर्थिक विकास और भौतिक सुख शांति और समरसता का स्थायी समाधान नहीं हो सकते। अर्जुन ने जब श्रीकृष्ण की शरण ली, तब उन्होंने यह समझा कि केवल कृष्णभावनामृत ही उन्हें वास्तविक शांति और समाधान प्रदान कर सकता है। अतः, हमें भी अपने जीवन की समस्याओं का समाधान खोजने के लिए कृष्णभावनामृत का आश्रय लेना चाहिए।

Resources : श्रीमद्भागवत गीता यथारूप – बक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद, गीता प्रेस

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