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Bhagavad Gita Chapter 2 Verse-Shloka 7 – गीता अध्याय 2 श्लोक 7 अर्थ सहित – कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः पृच्छामि…..

श्रीमद् भागवत गीता अध्याय 2 श्लोक 7 (Bhagwat Geeta adhyay 2 shlok 7 in Hindi): भगवद्गीता के श्लोक 2.7(Bhagavad Gita Chapter 2 Verse 7) में अर्जुन की मानसिक स्थिति और उनके द्वारा भगवान कृष्ण से मार्गदर्शन की याचना का वर्णन है। यह श्लोक न केवल अर्जुन की दुविधा को दर्शाता है, बल्कि जीवन की उलझनों से निपटने के लिए गुरु के महत्व को भी रेखांकित करता है। इस श्लोक का अध्ययन हमें यह समझने में मदद करता है कि जीवन में आने वाली चुनौतियों का सामना कैसे किया जाए और सही मार्गदर्शन के महत्व को कैसे पहचाना जाए।

श्रीमद् भागवत गीता अध्याय 2 श्लोक 7 (Bhagavad Gita Chapter 2 Verse 7)

गीता अध्याय 2 श्लोक 7 अर्थ सहित (Gita Chapter 2 Verse 7 with meaning in Hindi)

गीता अध्याय 2 श्लोक 7 अर्थ सहित (Gita Chapter 2 Verse 7 with meaning in Hindi) | Festivalhindu.com
Gita Chapter 2 Verse 7

श्लोक 2.7 का पाठ

श्लोक:

कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः
पृच्छामि त्वां धर्म सम्मूढचेताः |
यच्छ्रेयः स्यान्निश्र्चितं ब्रूहि तन्मे
शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम् || ७ ||

श्लोक का अर्थ

कार्पण्य – कृपणता; दोष – दुर्बलता से; उपहत – ग्रस्त; स्वभावः – गुण, विशेषताएँ; पृच्छामि – पूछ रहा हूँ; त्वाम् – तुम से; सम्मूढ – मोहग्रस्त; चेताः – हृदय में; यत् – जो; श्रेयः – कल्याणकारी; स्यात् – हो; निश्र्चितम् – विश्र्वासपूर्वक; ब्रूहि – कहो; तत् – वह; मे – मुझको; शिष्यः – शिष्य; ते – तुम्हारा; अहम् – मैं; शाधि – उपदेश दीजिये; माम् – मुझको; त्वाम् – तुम्हारा; प्रपन्नम – शरणागत |

अर्जुन कहते हैं: “मैं अपनी कृपण-दुर्बलता के कारण अपना कर्तव्य भूल गया हूँ और सारा धैर्य खो चुका हूँ। ऐसी अवस्था में मैं आपसे पूछ रहा हूँ कि जो मेरे लिए श्रेयस्कर हो उसे निश्चित रूप से बताएँ। अब मैं आपका शिष्य हूँ और शरणागत हूँ। कृपया मुझे उपदेश दें।”

तात्पर्य

यह श्लोक जीवन की उलझनों और मानसिक दुविधाओं को दर्शाता है। अर्जुन की स्थिति हर उस व्यक्ति की है जो जीवन की समस्याओं से जूझ रहा है और सही मार्गदर्शन की तलाश में है। यह प्राकृतिक नियम है कि भौतिक कार्यकलाप की प्रणाली ही हर एक के लिए चिंता का कारण है। पग-पग पर उलझन मिलती है, अतः प्रामाणिक गुरु के पास जाना आवश्यक है, जो जीवन के उद्देश्य को पूरा करने के लिए समुचित पथ-निर्देश दे सके।

भावार्थ:

अर्जुन इस श्लोक में अपनी मानसिक और भावनात्मक स्थिति का वर्णन करते हुए श्रीकृष्ण से मार्गदर्शन की याचना करता है। वह स्वीकार करता है कि उसकी कृपणता और मोह ने उसे अपने स्वाभाविक गुणों से दूर कर दिया है और अब वह अपने कर्तव्य का सही निर्णय नहीं ले पा रहा है। इस स्थिति में, अर्जुन श्रीकृष्ण से पूछता है कि उसके लिए क्या कल्याणकारी है और वह श्रीकृष्ण को अपना गुरु मानकर उनसे मार्गदर्शन प्राप्त करना चाहता है। यह श्लोक अर्जुन की मनोस्थिति को दर्शाता है जब वह युद्ध के मैदान में अपने धर्म और कर्तव्य को लेकर असमंजस में पड़ गया था।

अर्जुन की मनःस्थिति

अर्जुन, महाभारत के युद्धक्षेत्र में खड़ा होकर अपने सामने अपने परिवार, गुरु और मित्रों को देख रहा था। उसकी मनःस्थिति अत्यंत दुविधा और मोह में डूबी हुई थी। वह समझ नहीं पा रहा था कि अपने कर्तव्य का पालन करते हुए युद्ध करना उचित है या नहीं। अर्जुन के हृदय में यह विचार उत्पन्न हो गया था कि यह युद्ध केवल विनाश और दुख का कारण बनेगा। उसके अंदर की कृपणता और दुर्बलता ने उसकी आत्मा को दुर्बल बना दिया था, जिससे वह अपने धर्म को समझने में असमर्थ हो गया था।

यह स्थिति किसी भी व्यक्ति के जीवन में तब उत्पन्न होती है जब वह अपने जीवन की समस्याओं और उलझनों में फंस जाता है। अर्जुन भी उस समय ऐसी ही स्थिति में था, जब वह अपने कर्तव्यों का सही निर्णय नहीं कर पा रहा था। उसे लगने लगा था कि जीवन के मूल्यों और परिवार के प्रति आसक्ति ने उसे अपने वास्तविक कर्तव्य से दूर कर दिया है।

गुरु की आवश्यकता

श्रीमद्भगवद्गीता के इस श्लोक में गुरु की आवश्यकता पर विशेष बल दिया गया है। वैदिक शास्त्रों के अनुसार, जब व्यक्ति जीवन की समस्याओं और उलझनों में फंस जाता है, तब उसे एक सच्चे गुरु की शरण में जाना चाहिए। गुरु वह व्यक्ति होता है जो शिष्य को जीवन की वास्तविकताओं और धर्म का सही ज्ञान प्रदान करता है। अर्जुन भी इस समय अपने जीवन के सबसे बड़े संकट में था, और उसने श्रीकृष्ण को अपना गुरु मानकर उनसे मार्गदर्शन प्राप्त करने का निर्णय लिया।

गुरु का महत्व इस तथ्य से स्पष्ट होता है कि वे शिष्य को आत्मज्ञान की ओर ले जाते हैं और उसे भौतिक उलझनों से मुक्त करते हैं। अर्जुन ने भी श्रीकृष्ण की शरण में आकर यह स्पष्ट कर दिया कि जीवन की जटिलताओं का समाधान केवल एक सच्चे गुरु के मार्गदर्शन से ही प्राप्त किया जा सकता है।

जीवन की समस्याओं का समाधान

जीवन में समस्याएं और उलझनें स्वाभाविक रूप से उत्पन्न होती हैं। यह एक प्राकृतिक नियम है कि भौतिक जीवन की प्रणाली ही चिंता और तनाव का कारण बनती है। जीवन में पग-पग पर व्यक्ति को उलझनों का सामना करना पड़ता है, और इन उलझनों से मुक्त होने के लिए सही मार्गदर्शन आवश्यक है।

अर्जुन की स्थिति यह दर्शाती है कि जब व्यक्ति अपने कर्तव्यों के प्रति भ्रमित हो जाता है, तब वह जीवन की समस्याओं में और अधिक उलझता चला जाता है। ऐसे समय में, गुरु का मार्गदर्शन ही उसे सही दिशा दिखाता है और उसे आत्मिक शांति प्राप्त होती है।

शास्त्रों में भी यह बताया गया है कि जो व्यक्ति जीवन की समस्याओं को हल नहीं कर पाता, वह कृपण कहलाता है। ऐसे व्यक्ति अपने जीवन के मूल्यवान समय को व्यर्थ के कार्यों में गंवा देते हैं और आत्म-साक्षात्कार की दिशा में कदम नहीं बढ़ाते। अर्जुन भी उस समय इसी कृपणता और मोह में फंस गया था, और उसे लगा कि केवल श्रीकृष्ण ही उसे इस संकट से बाहर निकाल सकते हैं।

पारिवारिक आसक्ति और आत्मिक मुक्ति

अर्जुन की इस स्थिति में एक और महत्वपूर्ण पहलू यह है कि वह अपने परिवार और समाज के प्रति अत्यधिक आसक्ति में फंस गया था। यह आसक्ति ही उसकी समस्याओं का मूल कारण बन गई थी। व्यक्ति प्रायः अपने परिवार और समाज के प्रति अत्यधिक प्रेम और आसक्ति में अपने वास्तविक कर्तव्यों को भूल जाता है। अर्जुन भी अपने परिवार के सदस्यों के प्रति अत्यधिक अनुराग और उनकी मृत्यु से बचाने की इच्छा में उलझ गया था।

यद्यपि वह जानता था कि उसका कर्तव्य युद्ध करना है, लेकिन उसकी कृपण-दुर्बलता ने उसे इस कर्तव्य का पालन करने से रोक दिया। यह स्थिति जीवन की वास्तविकता को दर्शाती है कि जब व्यक्ति अपनी पारिवारिक और सामाजिक आसक्ति में फंस जाता है, तब वह अपने धर्म और कर्तव्य को भूल जाता है।

गुरु और शिष्य का संबंध

अर्जुन का श्रीकृष्ण की शरण में जाना यह दर्शाता है कि गुरु और शिष्य का संबंध अत्यंत महत्वपूर्ण होता है। गुरु शिष्य को जीवन की वास्तविकताओं और धर्म का सही ज्ञान प्रदान करता है, और शिष्य गुरु की शरण में आकर अपनी समस्याओं का समाधान प्राप्त करता है। अर्जुन ने भी श्रीकृष्ण को अपना गुरु मानकर उनसे मार्गदर्शन प्राप्त किया और अपने धर्म का पालन करने के लिए प्रेरित हुआ।

यह संबंध गीता के अध्ययन में अत्यंत महत्वपूर्ण है, क्योंकि अर्जुन ने अपने गुरु से ज्ञान प्राप्त कर आत्मिक मुक्ति की दिशा में कदम बढ़ाया।

गुरु का महत्व

  • जीवन की उलझनों का समाधान: जीवन में आने वाली समस्याओं का समाधान पाने के लिए एक प्रामाणिक गुरु का मार्गदर्शन आवश्यक है। समग्र वैदिक ग्रंथ हमें यह उपदेश देते हैं कि जीवन की अनचाही उलझनों से मुक्त होने के लिए प्रामाणिक गुरु के पास जाना चाहिए।
  • धर्म का पालन: गुरु हमें धर्म और कर्तव्य के मार्ग पर चलने की प्रेरणा देते हैं। अर्जुन की स्थिति को समझते हुए, भगवान कृष्ण ने उन्हें धर्म और कर्तव्य का पालन करने की सलाह दी।
  • आत्म-साक्षात्कार: गुरु के मार्गदर्शन से हम आत्म-साक्षात्कार की ओर अग्रसर होते हैं। यह ज्ञान हमें जीवन की समस्याओं को समझने और उनका समाधान करने में मदद करता है।

मुख्य बिंदु

  • कृपण-दुर्बलता: अर्जुन की मानसिक स्थिति को दर्शाता है। अर्जुन की कृपण-दुर्बलता के कारण वह अपना कर्तव्य नहीं निभा पा रहे थे।
  • धर्म सम्मूढचेताः: धर्म के प्रति मोहग्रस्त मन। अर्जुन का मन धर्म के प्रति मोहग्रस्त हो गया था, जिससे वह सही निर्णय नहीं ले पा रहे थे।
  • शरणागत: गुरु के प्रति पूर्ण समर्पण। अर्जुन ने भगवान कृष्ण के प्रति पूर्ण समर्पण किया और उनसे मार्गदर्शन की याचना की।

निष्कर्ष

अर्जुन की यह स्थिति हमें यह सिखाती है कि जब जीवन में कर्तव्य और धर्म के प्रति असमंजस हो, तब हमें एक सच्चे गुरु की शरण में जाकर मार्गदर्शन प्राप्त करना चाहिए। जीवन की जटिलताएँ और समस्याएँ बिना किसी प्रयास के भी उत्पन्न हो जाती हैं, लेकिन सच्चा मार्गदर्शन हमें इनसे मुक्ति दिला सकता है। अर्जुन का श्रीकृष्ण की शरण में जाना इस बात का प्रतीक है कि सही समय पर सही मार्गदर्शन ही हमें शांति, संतोष और मुक्ति की ओर ले जाता है।

जीवन की उलझनों से बाहर निकलने का मार्ग केवल गुरु के ज्ञान और उपदेश में छिपा है। इसलिए, जब भी जीवन में किसी प्रकार का संकट या उलझन उत्पन्न हो, हमें गुरु की शरण में जाकर सही दिशा प्राप्त करनी चाहिए। यही इस श्लोक का वास्तविक तात्पर्य है, और यही अर्जुन का अनुभव हमें सिखाता है।

Resources : श्रीमद्भागवत गीता यथारूप – बक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद, गीता प्रेस

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