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Bhagavad Gita Chapter 2 Verse-Shloka 61 – गीता अध्याय 2 श्लोक 61 अर्थ सहित – तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत…..

श्रीमद् भागवत गीता अध्याय 2 श्लोक 61 (Bhagavad Gita Chapter 2 Verse 61 in Hindi): श्रीमद्भगवद्गीता भारतीय दर्शन और आध्यात्म का अद्वितीय ग्रंथ है। इसमें जीवन के हर पहलू का गहराई से विश्लेषण किया गया है। गीता के श्लोक 2.61(Bhagavad Gita Chapter 2 Shloka 61) में भगवान श्रीकृष्ण ने योग, इन्द्रिय-संयम और भक्ति की महत्ता पर प्रकाश डाला है। यह श्लोक मानव जीवन को सही दिशा में ले जाने का मार्गदर्शन करता है। इसमें यह बताया गया है कि किस प्रकार मनुष्य अपनी इन्द्रियों को नियंत्रित कर भगवान में अपनी चेतना को स्थिर कर सकता है। यह लेख इसी श्लोक की गहराई में जाने और इसे जीवन में उतारने के लिए आवश्यक कदमों पर चर्चा करेगा।

श्रीमद् भागवत गीता अध्याय 2 श्लोक 61 (Bhagavad Gita Chapter 2 Verse 61)

गीता अध्याय 2 श्लोक 61 अर्थ सहित (Gita Chapter 2 Verse 61 in Hindi with meaning)

गीता अध्याय 2 श्लोक 61 अर्थ सहित (Gita Chapter 2 Verse 61 in Hindi with meaning) | Festivalhindu.com
Gita Chapter 2 Verse 61

भागवत गीता अध्याय 2 श्लोक 2.61 और उसका अर्थ

श्लोक 2.61:
तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः।
वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।

शब्दार्थ:

  • तानि: उन इन्द्रियों को।
  • सर्वाणि: समस्त।
  • संयम्य: वश में करके।
  • युक्त: ध्यानस्थ।
  • आसीत: स्थित होना।
  • मत्पर: मुझमें स्थिर।
  • वशे: नियंत्रण में।
  • हि: निश्चय ही।
  • यस्य: जिसकी।
  • इन्द्रियाणि: इन्द्रियाँ।
  • प्रज्ञा: चेतना।
  • प्रतिष्ठिता: स्थिर।

भावार्थ:
जो व्यक्ति अपनी इन्द्रियों को पूरी तरह वश में रखते हुए उन्हें भगवान में स्थिर कर देता है, वही स्थिर बुद्धि वाला होता है। इस स्थिति को प्राप्त करने वाला व्यक्ति ही योग के मार्ग पर सफल हो सकता है।


तात्पर्य: इन्द्रिय-संयम और भक्ति का महत्व

भागवत गीता अध्याय 2 श्लोक 2.61 यह स्पष्ट करता है कि इन्द्रियों को वश में करना मानव जीवन के आध्यात्मिक उत्थान के लिए अत्यंत आवश्यक है। परंतु यह कार्य केवल तब संभव है जब व्यक्ति अपनी चेतना को भगवान में स्थिर करे। जब तक मन और इन्द्रियाँ भौतिक संसार की ओर आकर्षित रहती हैं, तब तक उनकी स्थिरता और नियंत्रण असंभव है।

भगवान श्रीकृष्ण यह बताते हैं कि इन्द्रियों को वश में करना किसी भी साधारण व्यक्ति के लिए सरल नहीं है। इसके लिए भक्ति, समर्पण और अभ्यास की आवश्यकता होती है। केवल भौतिक प्रयासों से इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करना कठिन है। भगवान के प्रति गहरी भक्ति और ध्यान ही मनुष्य को इस कठिन कार्य में सफल बना सकते हैं।


महाराज अम्बरीष का उदाहरण

गीता के इस श्लोक को समझने के लिए महाराज अम्बरीष का जीवन आदर्श उदाहरण प्रस्तुत करता है। महाराज अम्बरीष ने अपने इन्द्रियों को पूर्ण रूप से भगवान कृष्ण की सेवा में समर्पित कर दिया। उनकी कहानी श्रीमद्भागवत में वर्णित है, जहाँ यह बताया गया है कि कैसे उन्होंने अपने जीवन के हर पहलू को भगवान की सेवा में लगा दिया।

अम्बरीष के गुण और इन्द्रिय-संयम:

  • मन: भगवान कृष्ण के चरणकमलों पर स्थिर।
  • वाणी: केवल भगवान की महिमा का वर्णन।
  • कान: भगवान की कथाओं को सुनने में रत।
  • आँखें: भगवान की दिव्य मूर्ति और उनके भक्तों का दर्शन।
  • हाथ: मंदिर की सफाई और अन्य सेवाएँ।
  • पैर: तीर्थस्थलों की यात्रा।
  • नाक: भगवान को अर्पित फूलों की सुगंध।
  • जीभ: भगवान को अर्पित प्रसाद का आस्वाद।

अम्बरीष ने अपनी इच्छाओं को भगवान की इच्छाओं के साथ जोड़ दिया, जिससे वे न केवल इन्द्रिय-संयम में सफल हुए, बल्कि एक सच्चे भक्त भी बने।


इन्द्रिय-संयम के लिए मार्गदर्शन

  1. भक्ति का अभ्यास करें:
    • हर दिन भगवान का नाम जपें।
    • श्रीमद्भगवद्गीता और अन्य धार्मिक ग्रंथों का अध्ययन करें।
    • अपने कार्यों को भगवान को समर्पित करें।
  2. ध्यान और योग का महत्व:
    • ध्यान और योग के माध्यम से मन को शांत करें।
    • नकारात्मक विचारों और विकर्षणों से बचने के लिए नियमित अभ्यास करें।
  3. सकारात्मक जीवनशैली अपनाएं:
    • सादगीपूर्ण और अनुशासित जीवन जिएं।
    • सत्संग में भाग लें और अच्छे लोगों की संगति करें।
  4. भगवान में समर्पण:
    • अपनी इच्छाओं को भगवान की सेवा के लिए समर्पित करें।
    • हर परिस्थिति में भगवान पर विश्वास रखें।

योगसिद्धि और भगवद्भक्ति का संबंध

गीता का यह श्लोक यह भी बताता है कि सच्चा योगी वही है, जो भगवान के प्रति अनुरक्त होता है। केवल ध्यान और आसन तक सीमित योग, इन्द्रिय-संयम के लिए पर्याप्त नहीं है। भगवान के प्रति भक्ति ही वह आग है, जो हृदय के भीतर के सभी मलों को जला सकती है।

भगवान श्रीकृष्ण यह बताते हैं कि इन्द्रियों को नियंत्रित करना तभी संभव है जब व्यक्ति स्वयं को भगवान में पूर्ण रूप से स्थिर कर ले। जैसे अग्नि कमरे की हर वस्तु को जला देती है, वैसे ही भगवान की भक्ति सारे विकारों को समाप्त कर देती है।


प्रेरणा: महाराज अम्बरीष से सीखें

महाराज अम्बरीष का जीवन इस बात का सटीक उदाहरण है कि भगवद्भक्ति कैसे इन्द्रिय-संयम में सहायता करती है। उनकी कथा यह सिखाती है कि यदि मनुष्य अपने जीवन के हर पहलू को भगवान की सेवा में समर्पित करता है, तो वह न केवल भौतिक आकर्षण से मुक्त होता है, बल्कि स्थिर बुद्धि वाला भी बनता है।

श्रीभगवद्गीता श्लोक 2.61 के संदर्भ में अन्य उदाहरण

1. ध्रुव महाराज का उदाहरण

ध्रुव महाराज का जीवन इस श्लोक का एक और आदर्श उदाहरण है। बचपन में ध्रुव ने कठिन तपस्या कर भगवान नारायण को प्रसन्न किया।

  • इन्द्रिय-संयम: बाल्यावस्था में ही उन्होंने सांसारिक सुखों और माता-पिता की ममता का त्याग कर केवल भगवान में ध्यान लगाया।
  • ध्यान और तपस्या: उन्होंने कठोर तपस्या करते हुए अपने शरीर और इन्द्रियों को पूर्णतया वश में किया।
  • परिणाम: भगवान विष्णु ने उन्हें दर्शन देकर वरदान दिया और उनका जीवन आध्यात्मिक ऊँचाइयों तक पहुँचा।

2. प्रह्लाद महाराज का उदाहरण

प्रह्लाद महाराज, हिरण्यकश्यपु के पुत्र और विष्णु भक्त, ने बचपन से ही भगवान में अपनी चेतना स्थिर कर ली थी।

  • इन्द्रियों का वश: प्रह्लाद ने सांसारिक भय और पिता के अत्याचारों के बावजूद अपनी इन्द्रियों को भगवान विष्णु की भक्ति में लगा दिया।
  • मन की स्थिरता: क्रूर यातनाओं के बावजूद उनका मन भगवान में ही लगा रहा।
  • भक्ति का प्रभाव: उनकी भक्ति ने भगवान नरसिंह को प्रकट होने पर विवश कर दिया। यह दिखाता है कि भगवान में स्थिर मन और इन्द्रिय-संयम से व्यक्ति हर कठिनाई को पार कर सकता है।

3. राजा जनक का उदाहरण

राजा जनक को “विदेह” कहा जाता है, क्योंकि वे शरीर और इन्द्रियों से परे जाकर भगवान में स्थिर थे।

  • धर्म और भक्ति: वे राजा होकर भी अपनी इन्द्रियों को वश में रखते हुए भगवान के प्रति समर्पित थे।
  • कर्मयोग का पालन: उन्होंने सांसारिक कर्तव्यों का पालन करते हुए भगवान में अपनी चेतना को स्थिर रखा।
  • प्रेरणा: उनका जीवन यह सिखाता है कि सांसारिक जीवन जीते हुए भी इन्द्रिय-संयम और भक्ति के माध्यम से योगसिद्धि प्राप्त की जा सकती है।

4. श्री हनुमान जी का उदाहरण

श्री हनुमान जी का जीवन भगवान श्रीराम की सेवा और भक्ति का प्रतीक है।

  • इन्द्रिय-संयम: उनकी सारी इन्द्रियाँ और शक्ति भगवान राम की सेवा में समर्पित थीं।
  • मन की स्थिरता: उनका मन केवल राम के चरणों में स्थिर रहता था।
  • परिणाम: उन्होंने असंभव कार्यों को पूरा कर यह सिद्ध किया कि भगवान में स्थिर चेतना से हर चुनौती का समाधान संभव है।

5. भीष्म पितामह का उदाहरण

महाभारत के भीष्म पितामह, अपने व्रत और इन्द्रिय-संयम के लिए प्रसिद्ध थे।

  • धर्मनिष्ठा: उन्होंने जीवनभर ब्रह्मचर्य का पालन किया और अपनी इन्द्रियों को पूरी तरह वश में रखा।
  • भगवान में स्थिर चेतना: अपने अंतिम क्षणों में भी उनका ध्यान भगवान श्रीकृष्ण पर ही केंद्रित था।
  • प्रेरणा: उनका जीवन यह सिखाता है कि भक्ति और इन्द्रिय-संयम से व्यक्ति मृत्यु के समय भी ईश्वर को प्राप्त कर सकता है।

6. नारद मुनि का उदाहरण

नारद मुनि, जो स्वयं भगवान नारायण के महान भक्त और भक्ति मार्ग के प्रचारक हैं, इस श्लोक का आदर्श उदाहरण हैं।

  • इन्द्रिय-संयम: उनका मन और उनकी वाणी केवल भगवान नारायण की महिमा गाने और प्रसार करने में लगी रहती है।
  • चेतना की स्थिरता: उनकी भक्ति ने उन्हें समस्त लोकों में भगवान के संदेश को फैलाने का अधिकार दिया।

7. मीरा बाई का उदाहरण

मीरा बाई, भगवान श्रीकृष्ण की अनन्य भक्त थीं।

  • इन्द्रिय-संयम: सांसारिक बंधनों और कठिन परिस्थितियों के बावजूद उनका मन भगवान कृष्ण के चरणों में स्थिर था।
  • भक्ति का प्रभाव: उनकी अटूट भक्ति और भगवान के प्रति प्रेम ने उन्हें हर बाधा से मुक्त किया।

8. गजराज (गजेंद्र मोक्ष) का उदाहरण

गजेंद्र, जो एक हाथी थे, उन्होंने अपनी मृत्यु के समय भगवान नारायण को पुकारा और मोक्ष प्राप्त किया।

  • इन्द्रिय-संयम: संकट के समय भी उनका ध्यान केवल भगवान पर था।
  • भक्ति का परिणाम: भगवान विष्णु ने तुरंत उनकी सहायता की और उन्हें मुक्ति दी।

निष्कर्ष

श्रीभगवद्गीता के श्लोक 2.61 में वर्णित इन्द्रिय-संयम और चेतना की स्थिरता को महाराज अम्बरीष, प्रह्लाद महाराज, ध्रुव, जनक, हनुमान, भीष्म, नारद, मीरा और गजराज जैसे व्यक्तित्वों ने अपने जीवन में सिद्ध किया। ये उदाहरण हमें यह सिखाते हैं कि भगवान में समर्पण और इन्द्रिय-संयम के द्वारा जीवन को उच्चतम आध्यात्मिक स्तर तक ले जाया जा सकता है।

“जो अपनी इन्द्रियों को भगवान में स्थिर करता है, वही जीवन की सच्ची योगसिद्धि को प्राप्त करता है।”

Resources : श्रीमद्भागवत गीता यथारूप – बक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद, गीता प्रेस

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