You are currently viewing Bhagavad Gita Chapter 2 Verse-Shloka 57 – गीता अध्याय 2 श्लोक 57 अर्थ सहित – यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य…..

Bhagavad Gita Chapter 2 Verse-Shloka 57 – गीता अध्याय 2 श्लोक 57 अर्थ सहित – यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य…..

श्रीमद् भागवत गीता अध्याय 2 श्लोक 57 (Bhagavad Gita Chapter 2 Verse 57 in Hindi): श्रीमद्भगवद्गीता, जिसे “जीवन का मार्गदर्शक ग्रंथ” कहा जाता है, हमें जीवन के हर पहलू को सही तरीके से समझने और जीने की प्रेरणा देती है। श्लोक 2.57 (Bhagavad Gita Chapter 2 Shloka 57) में, भगवान श्रीकृष्ण ने स्थिर प्रज्ञा का रहस्य बताया है। यह श्लोक हमें सिखाता है कि कैसे जीवन की शुभ-अशुभ परिस्थितियों में अपना मानसिक संतुलन बनाए रखा जाए। इसे समझने के लिए हमें रोजमर्रा की जीवन से जुड़े उदाहरणों की मदद लेनी होगी, ताकि इस श्लोक का सही अर्थ और उपयोग हमारे जीवन में स्पष्ट हो सके।

श्रीमद् भागवत गीता अध्याय 2 श्लोक 57 (Bhagavad Gita Chapter 2 Verse 57)

गीता अध्याय 2 श्लोक 57 अर्थ सहित (Gita Chapter 2 Verse 57 in Hindi with meaning)

गीता अध्याय 2 श्लोक 57 अर्थ सहित (Gita Chapter 2 Verse 57 in Hindi with meaning) | Festivalhindu.com
Gita Chapter 2 Verse 57

श्लोक 2.57: मूल पाठ और भावार्थ

मूल श्लोक:
यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य श्रुभाश्रुभम् |
नाभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ||

शब्दार्थ:

  • यः: जो
  • सर्वत्र: सभी जगह
  • अनभिस्नेहः: स्नेहशून्य
  • तत्तत्: उस
  • प्राप्य: प्राप्त करके
  • शुभ: अच्छा
  • अशुभम्: बुरा
  • न: नहीं
  • अभिनन्दति: प्रसन्न होता है
  • द्वेष्टि: द्वेष करता है
  • तस्य: उसका
  • प्रज्ञा: ज्ञान
  • प्रतिष्ठिता: स्थिर

भावार्थ:
इस श्लोक में भगवान कहते हैं कि जो व्यक्ति हर परिस्थिति में स्नेह और द्वेष से मुक्त रहता है, जो शुभ या अच्छी परिस्थितियों में उत्साहित नहीं होता और अशुभ या बुरी परिस्थितियों में विचलित नहीं होता, वही सच्चे ज्ञान में स्थिर होता है।


तात्पर्य: द्वैत से परे जीवन

यह संसार द्वैत से भरा हुआ है। हर पल हमें कुछ न कुछ अच्छा या बुरा अनुभव होता है। जीवन में सुख-दुःख, लाभ-हानि, जय-पराजय जैसी परिस्थितियाँ बार-बार आती रहती हैं।
श्रीकृष्ण इस श्लोक के माध्यम से बताते हैं कि जब तक हम भौतिक संसार में रहते हैं, हमें इन द्वैतों का सामना करना ही पड़ता है। परंतु जो व्यक्ति इनसे प्रभावित नहीं होता, वह ही वास्तव में स्थिर प्रज्ञा वाला होता है।
स्थिर प्रज्ञा का अर्थ है वह ज्ञान जो मन को स्थिर रखे। इसे प्राप्त करने वाला व्यक्ति किसी भी परिस्थिति में विचलित नहीं होता और अपने आंतरिक संतुलन को बनाए रखता है।


भागवत गीता श्लोक 2.57 के आधार पर स्थिर प्रज्ञा के लक्षण

  1. स्नेह और द्वेष से मुक्त:
    स्थिर प्रज्ञा वाला व्यक्ति किसी भी स्थिति में न स्नेह करता है और न द्वेष। वह हर परिस्थिति को समान दृष्टि से देखता है।
  2. शुभ-अशुभ में समान दृष्टिकोण:
    चाहे अच्छी परिस्थितियाँ आएं या बुरी, वह व्यक्ति अपने मन को शांत और स्थिर रखता है।
  3. आध्यात्मिक ज्ञान में स्थिर:
    ऐसा व्यक्ति केवल भौतिक चीजों पर ध्यान नहीं देता, बल्कि अपने आत्मिक स्वरूप को पहचानकर भगवान से जुड़ा रहता है।
  4. आनंदमय चित्त:
    हर स्थिति में संतोष और आनंद महसूस करना।

जीवन में भागवत गीता श्लोक 2.57 का महत्व

श्रीमद्भगवद्गीता का यह श्लोक केवल धार्मिक संदर्भ तक सीमित नहीं है। यह जीवन के हर पहलू में उपयोगी है।

मानसिक शांति के लिए:

जब हम शुभ-अशुभ से प्रभावित नहीं होते, तो हमारा मन शांत और संतुलित रहता है।

संकटों में धैर्य:

यह श्लोक हमें सिखाता है कि जीवन के उतार-चढ़ाव में कैसे धैर्य बनाए रखें।

आध्यात्मिक उन्नति:

शुभ-अशुभ से ऊपर उठकर हम अपने जीवन में भगवान की उपस्थिति को महसूस कर सकते हैं।

व्यावहारिक दृष्टिकोण:

किसी भी परिस्थिति में स्थिरता बनाए रखने का गुण हमें सफलता की ओर ले जाता है।


स्थिर प्रज्ञा कैसे प्राप्त करें?

1. भक्ति योग का अभ्यास:

भगवान कृष्ण कहते हैं कि उनकी भक्ति में लीन होने से मनुष्य जीवन के द्वैतों से ऊपर उठ सकता है। भक्ति योग से मन शांत और स्थिर होता है।

2. ध्यान और आत्मसाक्षात्कार:

ध्यान के माध्यम से हम अपने चित्त को नियंत्रित कर सकते हैं और अपने वास्तविक स्वरूप को पहचान सकते हैं।

3. संतुलन बनाए रखना:

जीवन में सुख-दुःख को समान दृष्टि से देखने की आदत डालें। यह आध्यात्मिक विकास के लिए अनिवार्य है।

4. सत्संग:

संतों और ज्ञानी लोगों के साथ समय बिताने से हमारा मन स्थिर होता है और हमें सही दिशा मिलती है।

5. शास्त्रों का अध्ययन:

भगवद्गीता जैसे ग्रंथों का अध्ययन करने से हम जीवन के सही अर्थ को समझ सकते हैं।


द्वैत से परे जीवन का उदाहरण

श्रीकृष्ण के इस उपदेश को महात्मा गांधी, स्वामी विवेकानंद और अन्य महान आत्माओं ने अपने जीवन में अपनाया। उन्होंने जीवन की कठिन परिस्थितियों में भी स्थिरता और शांति बनाए रखी।

  • गांधीजी का सत्याग्रह: अंग्रेजों के अत्याचारों के बावजूद गांधीजी ने अपनी स्थिरता और शांति को बनाए रखा।
  • स्वामी विवेकानंद का उपदेश: उन्होंने हर परिस्थिति में अध्यात्म को महत्व दिया और लोगों को जीवन में स्थिरता का महत्व समझाया।

उदाहरण: शुभ-अशुभ से अप्रभावित रहना

1. नौकरी में सफलता और असफलता

राम को नौकरी में प्रमोशन मिला। वह बहुत खुश हुआ और अपनी खुशी को संभाल नहीं पाया। इसके कुछ समय बाद, उसे एक प्रोजेक्ट में असफलता मिली, जिससे वह बेहद उदास हो गया और आत्मविश्वास खो बैठा।

भागवत गीता श्लोक 2.57 का संदेश:
यदि राम प्रमोशन को अपनी पूरी पहचान न बनाकर एक अवसर की तरह देखता और असफलता को सीखने का अवसर मानता, तो वह स्थिर रहता।

2. परीक्षा में अच्छे और खराब परिणाम

रीमा और सीमा दो सहेलियां हैं। परीक्षा में रीमा ने अच्छे अंक प्राप्त किए, जबकि सीमा के अंक अपेक्षा से कम आए। रीमा अति उत्साहित होकर अपनी सफलता का दिखावा करती है, और सीमा अपने खराब अंकों से निराश होकर प्रयास छोड़ने का सोचती है।

भागवत गीता श्लोक 2.57 का संदेश:
रीमा और सीमा दोनों को समझना चाहिए कि न तो अच्छे अंक जीवन का अंत हैं और न ही खराब अंक जीवन को खत्म कर सकते हैं। सही दृष्टिकोण से दोनों ही स्थिरता प्राप्त कर सकती हैं।

3. व्यापार में लाभ और हानि

मोहन का व्यापार अच्छा चल रहा था। एक समय पर उसे भारी लाभ हुआ, और उसने सोचा कि अब हमेशा यही होगा। कुछ समय बाद, बाजार में मंदी आई और नुकसान हुआ। मोहन टूट गया और काम छोड़ने की सोचने लगा।

भागवत गीता श्लोक 2.57 का संदेश:
मोहन को यह समझना चाहिए था कि व्यापार में लाभ और हानि जीवन का हिस्सा हैं। यदि वह स्थिर रहता और धैर्य रखता, तो वह इन दोनों स्थितियों से ऊपर उठ सकता था।

वास्तविक जीवन से उदाहरण

1. खेल में जीत और हार

महेंद्र सिंह धोनी का उदाहरण लें। क्रिकेट के मैदान पर जब भारत मैच जीतता है, तो धोनी अत्यधिक उत्साहित नहीं होते, और जब टीम हारती है, तो वह निराश होकर दोष नहीं देते। वह हमेशा स्थिर और शांत रहते हैं।
भागवत गीता श्लोक 2.57 का संदेश:
जीवन में जीत और हार दोनों को समान दृष्टि से देखने का प्रयास करें। यह स्थिरता आपके मानसिक स्वास्थ्य और निर्णय लेने की क्षमता को मजबूत बनाएगी।


2. व्यवसाय में लाभ और हानि

सर रतन टाटा का जीवन एक प्रेरणा है। उन्होंने कई सफलताएँ देखीं, लेकिन “नैनो कार” प्रोजेक्ट की असफलता को भी शांति और धैर्य के साथ स्वीकार किया। उन्होंने इसे सीखने का अवसर माना और आगे बढ़े।
भागवत गीता श्लोक 2.57 का संदेश:
व्यवसाय में लाभ और हानि को प्राकृतिक प्रक्रिया मानकर संतुलित रहें। यह दृष्टिकोण आपको दीर्घकालिक सफलता दिला सकता है।


3. शिक्षा में परिणाम

कई विद्यार्थी परीक्षा में अच्छे अंक आने पर अति उत्साहित हो जाते हैं और खराब अंक आने पर निराश। सर एपीजे अब्दुल कलाम का उदाहरण लें। उन्होंने जीवन में कई असफलताएँ देखीं, लेकिन उन्होंने उन असफलताओं को सीखने का अवसर माना और अंततः “मिसाइल मैन” के रूप में पहचान बनाई।
भागवत गीता श्लोक 2.57 का संदेश:
अच्छे और बुरे परिणामों को समान रूप से स्वीकार करें। असफलता से सीखें और सफलता पर कृतज्ञता व्यक्त करें।

4. रिश्तों में उतार-चढ़ाव

पति-पत्नी के बीच कई बार मतभेद होते हैं। अगर दोनों में से कोई एक व्यक्ति क्रोधित होता है और दूसरा शांत रहता है, तो मतभेद को हल करना आसान हो जाता है।
भागवत गीता श्लोक 2.57 का संदेश:
रिश्तों में स्थिरता बनाए रखना, क्रोध और द्वेष से ऊपर उठना रिश्तों को मजबूत बनाता है।


व्यावहारिक जीवन में श्लोक 2.57 का अनुप्रयोग

कार्यक्षेत्र में:

सफलता और असफलता को समान दृष्टि से देखकर हम अपने कार्य में स्थिर रह सकते हैं।

व्यक्तिगत संबंधों में:

शुभ-अशुभ की प्रतिक्रिया से बचकर हम अपने रिश्तों को और बेहतर बना सकते हैं।

आध्यात्मिक उन्नति में:

भगवद्गीता के इस श्लोक का पालन करके हम भगवान के साथ अपने संबंध को गहरा बना सकते हैं।


निष्कर्ष

श्रीकृष्ण का यह उपदेश हर व्यक्ति के जीवन में मार्गदर्शन का कार्य करता है। यह श्लोक न केवल मानसिक शांति का मार्ग दिखाता है, बल्कि हमें आत्मज्ञान की ओर प्रेरित करता है।
जीवन में संतुलन बनाए रखने और शुभ-अशुभ से परे रहने का अभ्यास करें। तभी हम स्थिर प्रज्ञा को प्राप्त कर सकते हैं और सच्चे अर्थों में आनंदित जीवन जी सकते हैं।

“शुभ और अशुभ से परे उठें, और जीवन को स्थिर चित्त से जिएं।”

Resources : श्रीमद्भागवत गीता यथारूप – बक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद, गीता प्रेस

Leave a Reply