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Bhagavad Gita Chapter 2 Verse-Shloka 56 – गीता अध्याय 2 श्लोक 56 अर्थ सहित – दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः…..

श्रीमद् भागवत गीता अध्याय 2 श्लोक 56 (Bhagavad Gita Chapter 2 Verse 56 in Hindi): श्रीमद्भगवद्गीता का श्लोक 2.56(Bhagavad Gita Chapter 2 Shloka 56) जीवन की गहरी सच्चाइयों और मनुष्य के भीतर मौजूद दिव्य चेतना को समझने का मार्गदर्शन करता है। भगवान श्रीकृष्ण ने इस श्लोक में एक ऐसे मुनि का वर्णन किया है, जो जीवन के तीन तापों (दैहिक, दैविक और भौतिक कष्टों) से प्रभावित हुए बिना स्थिर रहता है। यह श्लोक मानव जीवन में संतुलन और समभाव की आवश्यकता को समझाता है।

श्रीमद् भागवत गीता अध्याय 2 श्लोक 56 (Bhagavad Gita Chapter 2 Verse 56)

गीता अध्याय 2 श्लोक 56 अर्थ सहित (Gita Chapter 2 Verse 56 in Hindi with meaning)

गीता अध्याय 2 श्लोक 56 अर्थ सहित (Gita Chapter 2 Verse 56 in Hindi with meaning) | Festivalhindu.com
Gita Chapter 2 Verse 56

श्लोक 2.56 का अर्थ

दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः।
वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते।।

इस श्लोक का अर्थ है:
जो मनुष्य दुःखों में विचलित नहीं होता, सुख में आसक्ति नहीं रखता, तथा राग, भय और क्रोध से मुक्त है, वह स्थिर बुद्धि वाला मुनि कहलाता है।

स्थितधी मुनि का आदर्श

श्रीमद्भगवद्गीता का यह श्लोक हमें सिखाता है कि जीवन में स्थिरता, शांति और संतुलन कैसे बनाए रखें। स्थिर बुद्धि का अर्थ है वह स्थिति, जिसमें व्यक्ति बाहरी परिस्थितियों से प्रभावित हुए बिना अपने मन को नियंत्रित रखता है। ऐसे मुनि में राग, भय और क्रोध का अभाव होता है।

1. दुःख में विचलित न होना

  • जीवन में दुःख और कठिनाइयाँ हर किसी के जीवन का हिस्सा हैं।
  • स्थिर मन वाला व्यक्ति इन्हें ईश्वर की इच्छा मानता है और विचलित नहीं होता।
  • वह सोचता है कि ये कष्ट उसके पूर्व पापों का परिणाम हैं और उन्हें सहन करने में ईश्वर की कृपा को अनुभव करता है।

2. सुख में आसक्ति न होना

  • सुख में अधिकांश लोग अहंकार और आत्ममोह में फँस जाते हैं।
  • स्थिर बुद्धि वाला मुनि सुख को भी ईश्वर का आशीर्वाद मानता है।
  • वह अपने सुख को सेवा का माध्यम बनाता है और अहंकार से दूर रहता है।

3. राग, भय और क्रोध से मुक्ति

  • सांसारिक वस्तुओं और लोगों के प्रति आसक्ति (राग) मनुष्य को दुःख का कारण बनाती है।
  • भय और क्रोध का प्रभाव मनुष्य की आत्मा को अशांत करता है।
  • स्थिर मन वाला व्यक्ति इन तीनों से मुक्त रहता है और अपने हर कार्य में संतुलन बनाए रखता है।

श्लोक 2.56 का आध्यात्मिक महत्व

आध्यात्मिक चेतना का विकास
स्थिर बुद्धि वाला मुनि दिव्य चेतना में स्थित होता है। वह सांसारिक मोह-माया से ऊपर उठकर अपने जीवन को ईश्वर की सेवा में समर्पित करता है।

1. दुःख का प्रबंधन

  • स्थिर बुद्धि वाला व्यक्ति दुःख को वर्तमान में स्वीकार करता है।
  • वह अतीत की पीड़ा और भविष्य की चिंताओं में उलझने के बजाय वर्तमान का सामना करता है।
  • यह दृष्टिकोण दुःख को सहनीय बनाता है और आत्मा को शांति प्रदान करता है।

2. सुख का प्रबंधन

  • सुख को दिव्य कृपा मानकर उसका उपयोग सेवा और साधना के लिए करना ही स्थिर मनुष्य का लक्षण है।
  • वह भौतिक सुखों के प्रति आसक्ति नहीं रखता, जिससे मन की शांति बनी रहती है।

3. भय और क्रोध पर नियंत्रण

  • भय और क्रोध मनुष्य के भीतर अशांति और अशुद्धता लाते हैं।
  • स्थिर मनुष्य इन्हें दूर करके ज्ञान और शांति की अवस्था में रहता है।

जीवन में स्थिरता लाने के उपाय

1. ध्यान और साधना का अभ्यास

  • नियमित ध्यान और प्रार्थना से मन शांत होता है।
  • इससे व्यक्ति अपनी भावनाओं और विचारों पर नियंत्रण रख पाता है।

2. कर्मफल का त्याग

  • अपने कार्यों को निष्काम भाव से करना और फल की चिंता छोड़ देना स्थिर मन की ओर ले जाता है।
  • यह दृष्टिकोण गीता के निष्काम कर्म योग के सिद्धांत पर आधारित है।

3. ईश्वर पर अटूट विश्वास

  • दुःख और सुख दोनों को ईश्वर की इच्छा मानकर स्वीकार करना।
  • इससे व्यक्ति जीवन की कठिनाइयों और प्रसन्नताओं में संतुलित रहता है।

4. आत्मचिंतन और ज्ञान का अभ्यास

  • स्वयं को पहचानने और अपने भीतर की दिव्यता को समझने का प्रयास करना।
  • यह दृष्टिकोण सांसारिक वस्तुओं से आसक्ति को समाप्त करता है।

स्थिर बुद्धि की विशेषताएँ

1. वीत रागः

  • सांसारिक सुखों और वस्तुओं की लालसा का त्याग।
  • दिव्य चेतना में लीन रहकर संतोष प्राप्त करना।

2. वीत भयः

  • भय से मुक्त होकर वर्तमान का आनंद लेना।
  • भविष्य की चिंताओं को ईश्वर पर छोड़ देना।

3. वीत क्रोधः

  • असफलता या अपमान के कारण क्रोध न करना।
  • अपने संकल्पों में स्थिर रहना।

श्लोक 2.56 का जीवन में उपयोग

1. दुःख में सहनशीलता

  • जीवन में आने वाले कष्टों को भगवत्कृपा मानकर स्वीकार करें।
  • इन्हें आत्मा के विकास का साधन समझें।

2. सुख में विनम्रता

  • सुख को सेवा और साधना का माध्यम बनाएं।
  • अपने जीवन को दिव्यता की ओर ले जाएं।

3. क्रोध और भय पर नियंत्रण

  • अपने मन को इन नकारात्मक भावनाओं से मुक्त रखें।
  • जीवन में शांति और स्थिरता बनाए रखें।

निष्कर्ष

श्रीमद्भगवद्गीता का यह श्लोक जीवन में संतुलन और शांति का मार्ग दिखाता है। स्थिर बुद्धि वाला मुनि वही है जो दुःख और सुख में समान रहता है, राग, भय और क्रोध से मुक्त होकर अपने जीवन को ईश्वर की सेवा में समर्पित करता है।

यदि हम इस श्लोक के आदर्शों को अपने जीवन में अपनाते हैं, तो हम न केवल एक स्थिर और शांत मन प्राप्त कर सकते हैं, बल्कि अपनी आत्मा को आध्यात्मिक विकास के उच्च स्तर तक ले जा सकते हैं। गीता का यह श्लोक हमें सिखाता है कि दिव्य चेतना में स्थिर रहना ही जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य है।

Resources : श्रीमद्भागवत गीता यथारूप – बक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद, गीता प्रेस

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