श्रीमद् भागवत गीता अध्याय 2 श्लोक 55 (Bhagavad Gita Chapter 2 Verse 55 in Hindi): श्रीमद्भगवद्गीता भारतीय संस्कृति और दर्शन का वह अनमोल ग्रंथ है जो जीवन के हर पहलू पर गहन मार्गदर्शन प्रदान करता है। गीता का हर श्लोक अपने भीतर अद्भुत ज्ञान और चेतना समेटे हुए है। श्लोक 2.55 (Bhagavad Gita Chapter 2 Shloka 55), जिसमें भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को स्थितप्रज्ञ की अवस्था का वर्णन किया है, जीवन में आत्मसंतोष और इच्छाओं के त्याग का महत्व समझाता है। इस श्लोक का अध्ययन न केवल अध्यात्म को समझने में सहायक है, बल्कि यह हमें हमारी आत्मा की शुद्ध अवस्था में जीने का मार्ग भी दिखाता है।
श्रीमद् भागवत गीता अध्याय 2 श्लोक 55 (Bhagavad Gita Chapter 2 Verse 55)
गीता अध्याय 2 श्लोक 55 अर्थ सहित (Gita Chapter 2 Verse 55 in Hindi with meaning)
श्लोक 2.55 का पाठ और अर्थ
श्लोक:
श्रीभगवानुवाच
प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान्।
आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते।।
श्रीभगवान् उवाच - श्रीभगवान् ने कहा; प्रजहाति – त्यागता है; यदा – जब; कामान् – इन्द्रियतृप्ति की इच्छाएँ; सर्वान् – सभी प्रकार की; पार्थ – हे पृथापुत्र; मनः गतान् – मनोरथ का; आत्मनि – आत्मा की शुद्ध अवस्था में; एव – निश्चय ही; आत्मना – विशुद्ध मन से; तुष्टः – सन्तुष्ट, प्रसन्न; स्थित-प्रज्ञः – अध्यात्म में स्थित; तदा – उस समय; उच्यते – कहा जाता है |
भावार्थ:
भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं, “हे पार्थ! जब मनुष्य अपने मन की समस्त इच्छाओं और इन्द्रिय तृप्ति की कामनाओं को त्याग देता है, और आत्मा में सन्तुष्ट रहता है, तब उसे स्थितप्रज्ञ कहा जाता है।”
यह श्लोक मनुष्य को यह समझाने की कोशिश करता है कि वास्तविक प्रसन्नता बाहरी भोगों में नहीं, बल्कि आत्मा के भीतर है। इच्छाओं का त्याग और आत्मसंतोष ही स्थायी शांति और दिव्यता की कुंजी है।
स्थितप्रज्ञ का अर्थ और महत्व
स्थितप्रज्ञ का अर्थ:
स्थितप्रज्ञ वह व्यक्ति होता है जो अपने मन और इन्द्रियों के वश में नहीं होता, बल्कि जिसने अपनी चेतना को आत्मा की ओर केंद्रित कर लिया हो। वह बाहरी सुख-सुविधाओं के प्रति निर्लिप्त होता है और आत्मा की प्रसन्नता में संतुष्ट रहता है।
महत्व:
गीता में स्थितप्रज्ञ की अवस्था को जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य बताया गया है। यह न केवल मन की शुद्धता का प्रतीक है, बल्कि यह दर्शाता है कि कैसे इच्छाओं का त्याग व्यक्ति को स्थायी सुख और शांति प्रदान कर सकता है।
संसार और मृगतृष्णा का भ्रम
गीता और अन्य धार्मिक ग्रंथों में संसार को बार-बार मृगतृष्णा के रूप में वर्णित किया गया है। मृगतृष्णा उस भ्रम को दर्शाती है जिसमें व्यक्ति भौतिक सुखों को पाने की लालसा में अपने वास्तविक लक्ष्य से भटक जाता है।
मृगतृष्णा का उदाहरण:
रेगिस्तान में एक हिरण को जब जल का प्रतिबिंब दिखाई देता है, तो वह उसे वास्तविक जल समझकर उसकी ओर दौड़ता है। वह अपनी प्यास बुझाने के लिए उस भ्रम के पीछे भागता रहता है, लेकिन जल उसे कभी नहीं मिलता। अंततः वह थककर गिर जाता है और मर जाता है।
संसार के सुख और माया:
ठीक इसी प्रकार, संसार के सुख भी मृगतृष्णा के समान हैं। भौतिक इच्छाएं और सुख हमारी आत्मा को कभी संतोष नहीं दे सकते। हम जितना इन्हें पाने का प्रयास करते हैं, उतना ही अधिक उलझते जाते हैं।
गरुड़ पुराण में इसका उल्लेख इस प्रकार किया गया है:
चक्रधरोऽपि सुरत्वं सुरत्वलाभे सकलसुरपतित्वम्।
भवितुं सुरपतिरूवंगतित्वं तथापि न निवर्तते तृष्णा।।
इस श्लोक का भावार्थ है कि भौतिक इच्छाओं की पूर्ति कभी समाप्त नहीं होती। चाहे कोई कितना भी बड़ा सम्राट क्यों न बन जाए, उसकी तृष्णा बनी रहती है।
कामनाओं का त्याग और आत्मसंतोष
श्रीमद्भगवद्गीता और कठोपनिषद हमें सिखाते हैं कि इच्छाओं का त्याग ही आत्मा को शांति और संतोष प्रदान करता है।
कठोपनिषद (2.3.14):
यदा सर्वे प्रमुच्यन्ते कामा येऽस्य हृदि श्रिताः।
अथ मोऽमृतो भवत्यत्र ब्रह्म समश्नुते।।
यह श्लोक कहता है कि जब मनुष्य अपने हृदय की समस्त इच्छाओं को त्याग देता है, तब वह जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्त हो जाता है और ब्रह्म के समान हो जाता है।
कामनाओं का त्याग क्यों आवश्यक है?
- मन की शुद्धता:
इच्छाओं के कारण हमारा मन अशांत और अस्थिर रहता है। त्याग से मन शुद्ध और स्थिर होता है। - सच्ची प्रसन्नता:
भौतिक सुख क्षणिक होते हैं, जबकि आत्मा की प्रसन्नता स्थायी होती है। - दिव्य चेतना:
इच्छाओं का त्याग आत्मा को ईश्वर से जोड़ने में सहायक होता है।
भगवद्भक्ति और स्थितप्रज्ञ की अवस्था
श्रीकृष्ण के अनुसार, भगवद्भक्ति ही इच्छाओं पर विजय पाने का सबसे सरल और प्रभावी मार्ग है।
- भगवद्भक्ति का महत्व:
जब व्यक्ति ईश्वर की सेवा और भक्ति में समर्पित हो जाता है, तो उसकी समस्त इच्छाएं स्वतः समाप्त हो जाती हैं। - स्थितप्रज्ञ और भक्ति:
स्थितप्रज्ञ व्यक्ति भगवान के प्रति अडिग भक्ति रखता है। वह अपनी आत्मा को भगवान के चरणों में समर्पित करता है और भौतिक सुखों के प्रति निर्लिप्त रहता है।
उदाहरण:
महात्मा और संत अपने जीवन में इच्छाओं का त्याग कर भगवान की भक्ति में लीन रहते हैं। उनकी आत्मा में संतोष और प्रसन्नता का अनुभव स्पष्ट दिखाई देता है।
स्थितप्रज्ञ के लक्षण (विस्तार से)
श्रीमद्भगवद्गीता के अनुसार, स्थितप्रज्ञ व्यक्ति के निम्नलिखित लक्षण होते हैं:
- इन्द्रियों पर नियंत्रण:
वह अपनी इन्द्रियों को वश में रखता है और उन्हें भटकने नहीं देता। - आत्मा में संतोष:
वह बाहरी सुख-सुविधाओं पर निर्भर नहीं होता, बल्कि आत्मा की प्रसन्नता में संतुष्ट रहता है। - ईश्वर के प्रति समर्पण:
वह अपने मन, वचन और कर्म को भगवान के प्रति समर्पित करता है। - भौतिक इच्छाओं का त्याग:
वह इन्द्रिय तृप्ति की कामनाओं से मुक्त होता है। - शांत और स्थिर मन:
वह हमेशा शांत और स्थिर रहता है, चाहे परिस्थितियां कैसी भी हों।
श्लोक 2.55 का दैनिक जीवन में उपयोग
आज की व्यस्त जीवनशैली में गीता का यह श्लोक अत्यंत प्रासंगिक है।
जीवन में लागू करने के तरीके:
- अपनी इच्छाओं को नियंत्रित करना सीखें।
- आत्मा की शांति और संतोष के लिए ध्यान और योग का अभ्यास करें।
- भौतिक वस्तुओं के पीछे भागने के बजाय आध्यात्मिक ज्ञान की ओर ध्यान दें।
- भगवद्भक्ति को अपने जीवन का आधार बनाएं।
परिणाम:
- मन की स्थिरता और शांति।
- स्थायी सुख और संतोष।
- जीवन में स्पष्टता और उद्देश्य का अनुभव।
निष्कर्ष
श्रीभगवान के इस श्लोक में जीवन का गूढ़ सत्य छिपा है। इच्छाओं का त्याग और आत्मा में संतोष ही जीवन का वास्तविक उद्देश्य है। मृगतृष्णा के भ्रम से बाहर निकलकर हमें अपनी आत्मा की ओर ध्यान केंद्रित करना चाहिए।
स्थितप्रज्ञ की अवस्था हमें सिखाती है कि सच्ची प्रसन्नता बाहरी चीजों में नहीं, बल्कि हमारे भीतर है। भगवान की भक्ति, आत्मसंतोष और इच्छाओं का त्याग ही जीवन को सार्थक और आनंदमय बना सकते हैं।
“आत्मा की दिव्यता को पहचानें और स्थितप्रज्ञ बनें। यही जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि है।”
Resources : श्रीमद्भागवत गीता यथारूप – बक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद, गीता प्रेस