श्रीमद् भागवत गीता अध्याय 2 श्लोक 53 (Bhagavad Gita Chapter 2 Verse 53 in Hindi): भगवद्गीता के श्लोक 2.53 (Bhagavad Gita Chapter 2 Shloka 53) में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को आत्म-साक्षात्कार और योग की सर्वोच्च अवस्था का मार्ग समझाया है। यह श्लोक हमें उस स्थिति तक पहुँचने की प्रेरणा देता है, जहाँ मनुष्य की बुद्धि और मन भौतिक आकर्षणों से परे जाकर आध्यात्मिक स्थिरता प्राप्त कर लेते हैं।
श्रीमद् भागवत गीता अध्याय 2 श्लोक 53 (Bhagavad Gita Chapter 2 Verse 53)
गीता अध्याय 2 श्लोक 53 अर्थ सहित (Gita Chapter 2 Verse 53 in Hindi with meaning)
श्लोक का पाठ और सरल अर्थ
श्लोक:
श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्र्चला।
समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि।।
अर्थ:
श्रुति – वैदिक ज्ञान के; विप्रतिपन्ना – कर्मफलों से प्रभावित हुए बिना; ते – तुम्हारा; यदा – जब; स्थास्यति – स्थिर हो जाएगा; निश्र्चला – एकनिष्ठ; समाधौ – दिव्य चेतना या कृष्णभावनामृत में; अचला – स्थिर; बुद्धिः – बुद्धि; तदा – तब; योगम् – आत्म-साक्षात्कार; अवाप्स्यसि – तुम प्राप्त करोगे |
जब तुम्हारा मन वेदों की अलंकारमयी भाषा से विचलित न हो और वह आत्म-साक्षात्कार की समाधि में स्थिर हो जाए, तब तुम्हें दिव्य चेतना प्राप्त होगी।
तात्पर्य: योग और भक्ति की पराकाष्ठा
इस श्लोक में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को यह समझाने का प्रयास किया है कि योग की सर्वोच्च अवस्था क्या है। जब मनुष्य की बुद्धि “समाधाव अचला” अर्थात दिव्य चेतना में स्थिर हो जाती है, तब वह संसार के बंधनों से परे जाकर आत्म-साक्षात्कार करता है।
समाधि: पूर्ण स्थिरता की अवस्था
समाधि का सामान्य अर्थ ध्यान में लीन होना माना जाता है, लेकिन इसका गूढ़ अर्थ है—
- बुद्धि और मन का पूर्णतया कृष्णभावना में स्थिर हो जाना।
- संसार के मोह-माया और भौतिक आकर्षणों से अछूता हो जाना।
- अपने सभी कर्मों को श्रीकृष्ण को अर्पित करते हुए दिव्य चेतना में प्रवेश करना।
श्रीकृष्ण की दिव्य शिक्षा
इस श्लोक का मुख्य संदेश यह है कि व्यक्ति को अपने मन और बुद्धि को वेदों की अलंकारमयी भाषा या कर्मकांडों से विचलित नहीं होने देना चाहिए। वेदों का उद्देश्य हमें आत्म-साक्षात्कार और भगवद्भक्ति की ओर ले जाना है। लेकिन जब मनुष्य इन कर्मकांडों में उलझ जाता है, तो उसका वास्तविक उद्देश्य पीछे छूट जाता है।
दिव्य चेतना की विशेषताएँ
- सांसारिक भटकाव से मुक्ति: मनुष्य वेदों की आकर्षक भाषा या कर्मकांडों में उलझे बिना, अपने आध्यात्मिक लक्ष्य पर केंद्रित रहता है।
- आत्म-साक्षात्कार की प्राप्ति: व्यक्ति समझता है कि वह श्रीकृष्ण का शाश्वत सेवक है।
- भक्ति का उत्कर्ष: केवल भगवान की भक्ति ही उसे मुक्त कर सकती है।
- संदेहों का समाधान: धार्मिक अनुष्ठानों और भक्ति के बीच के द्वंद्व से मुक्ति मिलती है।
महान संत माधवेंद्र पुरी का दृष्टांत
14वीं शताब्दी के महान संत माधवेंद्र पुरी ने इस श्लोक में वर्णित भावना को अपने जीवन में पूरी तरह अपनाया।
उन्होंने कहा:
“संध्या-वंदन, स्नान और तर्पण जैसे कर्मकांडों से मैं क्षमा चाहता हूँ। मेरा सारा समय केवल श्रीकृष्ण के स्मरण में व्यतीत होता है, और यही मेरे लिए पर्याप्त है।”
यह दृष्टांत बताता है कि आत्म-साक्षात्कार और भक्ति में स्थिर होने के लिए धार्मिक कर्मकांडों से परे जाना आवश्यक है।
समाधि प्राप्त करने का मार्ग
- कृष्णभावना में स्थिरता: अपने हर कर्म को केवल श्रीकृष्ण को अर्पित करें।
- संसार से निर्लिप्तता: भौतिक सुखों और कर्मकांडों से अपने मन को अलग करें।
- गुरु की शरण: श्रीकृष्ण के प्रतिनिधि गुरु के निर्देशों का पालन करें।
- नियमित साधना: ध्यान, जप और भक्ति से अपने मन और बुद्धि को स्थिर करें।
योग और भक्ति का द्वंद्व
बहुत से साधक यह सोचते हैं कि क्या उन्हें धार्मिक अनुष्ठानों का पालन करना चाहिए या केवल भक्ति पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। इस श्लोक में श्रीकृष्ण ने स्पष्ट किया है कि वेदों के कर्मकांडों का त्याग करना और केवल साधना में स्थिर होना कोई अपराध नहीं है। यह अवस्था उच्चतम आध्यात्मिक चेतना को दर्शाती है।
उच्च चेतना की पहचान
- व्यक्ति का मन और बुद्धि भौतिक सुखों से विचलित नहीं होते।
- केवल श्रीकृष्ण की भक्ति में लीनता रहती है।
- सांसारिक आकर्षणों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता।
- आत्म-साक्षात्कार के माध्यम से व्यक्ति यह समझता है कि उसका वास्तविक कर्तव्य केवल भगवद्भक्ति है।
धार्मिक कर्मकांडों की सीमाएँ
श्रीकृष्ण बताते हैं कि धार्मिक अनुष्ठानों और कर्मकांडों का उद्देश्य केवल भगवद्भक्ति की ओर प्रेरित करना है। लेकिन जब ये अनुष्ठान ही साधक का मुख्य उद्देश्य बन जाते हैं, तो वह अपने वास्तविक लक्ष्य से भटक जाता है।
आधुनिक जीवन में इस श्लोक की प्रासंगिकता
आज के समय में भी यह श्लोक हमें सिखाता है कि भौतिकता और आध्यात्मिकता के बीच संतुलन कैसे बनाएं।
- संसारिक मोह-माया से मुक्त रहना: आधुनिक जीवन में धन, प्रसिद्धि और सुख की चाहत हमें भक्ति से दूर कर सकती है।
- आध्यात्मिक स्थिरता: मन को नियमित साधना और ध्यान से स्थिर किया जा सकता है।
- कर्म का सही दृष्टिकोण: अपने कर्मों को भगवान को समर्पित करें।
निष्कर्ष: श्रीकृष्ण की शरण ही सर्वोच्च लक्ष्य
श्लोक 2.53 न केवल भगवद्गीता का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है, बल्कि यह मानव जीवन के अंतिम उद्देश्य का मार्गदर्शन भी करता है। आत्म-साक्षात्कार की अवस्था में पहुँचने के लिए यह आवश्यक है कि हम अपने मन और बुद्धि को स्थिर करें, संसारिक मोह-माया से दूर रहें और केवल श्रीकृष्ण की भक्ति में लीन हों।
“श्रीकृष्ण की भक्ति में ही आत्मा की पूर्णता और मुक्ति का मार्ग है।”
Resources : श्रीमद्भागवत गीता यथारूप – बक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद, गीता प्रेस