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Bhagavad Gita Chapter 2 Verse-Shloka 51 – गीता अध्याय 2 श्लोक 51 अर्थ सहित – कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं…..

श्रीमद् भागवत गीता अध्याय 2 श्लोक 51 (Bhagavad Gita Chapter 2 Verse 51 in Hindi): श्रीमद्भगवद्गीता भारतीय संस्कृति और दर्शन का अमूल्य ग्रंथ है। इसमें दिए गए श्लोक जीवन को दिशा देने और आत्मिक उन्नति के लिए प्रेरित करते हैं। गीता के श्लोक 2.51(Bhagavad Gita Chapter 2 Shloka 51) में भगवान श्रीकृष्ण ने कर्मयोग और भक्ति का महत्व समझाते हुए बताया है कि कैसे फल की आसक्ति से मुक्ति प्राप्त कर हम जन्म-मृत्यु के चक्र से बाहर निकल सकते हैं। यह श्लोक न केवल आध्यात्मिक मार्ग दिखाता है, बल्कि मानसिक शांति और जीवन की सच्ची खुशियों का रास्ता भी बताता है।

श्रीमद् भागवत गीता अध्याय 2 श्लोक 51 (Bhagavad Gita Chapter 2 Verse 51)

गीता अध्याय 2 श्लोक 51 अर्थ सहित (Gita Chapter 2 Verse 51 in Hindi with meaning)

गीता अध्याय 2 श्लोक 51 अर्थ सहित (Gita Chapter 2 Verse 51 in Hindi with meaning) | Festivalhindu.com
Gita Chapter 2 Verse 51

श्लोक 2.51

कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिणः।
जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः पदं गच्छन्त्यनामयम्॥

शब्दार्थ

  • कर्मजं: सकाम कर्मों से उत्पन्न
  • बुद्धियुक्ता: भक्ति में स्थित
  • फलम् त्यक्त्वा: फल का त्याग करके
  • मनीषिणः: ज्ञानी पुरुष
  • जन्मबन्ध: जन्म और मृत्यु के बंधन
  • विनिर्मुक्ताः: पूर्ण रूप से मुक्त
  • अनामयम्: कष्ट रहित अवस्था

इस प्रकार भगवान की भक्ति में लीन होकर महान ऋषि, मुनि और भक्तजन अपने आपको इस भौतिक संसार में कर्म के फलों की आसक्ति से मुक्त कर लेते हैं। वे जन्म और मृत्यु के चक्र से छूटकर भगवान की शरण में जाते हैं और उस स्थिति को प्राप्त करते हैं, जो सभी प्रकार के दुखों से परे है।

भावार्थ
इस श्लोक में श्रीकृष्ण बताते हैं कि जो व्यक्ति अपने कर्मों को भक्ति और बुद्धि के साथ करता है और फल की इच्छा छोड़ देता है, वह जन्म और मृत्यु के बंधनों से मुक्त होकर उस अवस्था में पहुँच जाता है जहाँ सभी कष्ट समाप्त हो जाते हैं। यह अवस्था भगवान की शरण में समर्पण और पूर्ण भक्ति के माध्यम से ही प्राप्त होती है।


भौतिक जीवन और आसक्ति का प्रभाव

मनुष्य स्वभावतः अपने कर्मों के परिणाम से प्रभावित होता है। वह फल की आकांक्षा में अपने कर्तव्यों से विचलित हो जाता है और जन्म-मृत्यु के बंधनों में उलझा रहता है। गीता में श्रीकृष्ण यह समझाते हैं कि फल की आसक्ति ही हमारे दुखों का मूल कारण है।

भौतिक जीवन की समस्याएँ

  1. सुख-दुख का चक्र
    हर व्यक्ति जीवन में सुख की तलाश करता है, लेकिन दुख से बच नहीं पाता।
  2. जन्म-मृत्यु का बंधन
    यह संसार जन्म, मृत्यु, जरा (बुढ़ापा), और व्याधि (रोग) जैसे कष्टों से भरा हुआ है।
  3. आसक्ति का दुष्प्रभाव
    फल की आसक्ति मनुष्य को मानसिक और आध्यात्मिक रूप से कमजोर बना देती है।

भागवत में कहा गया है:
सुखाय कर्माणि करोति लोको न तैः सुखं वान्यदुपारमं वा।
विन्देत भूयस्तत एव दुःखं यदत्र युक्तं भगवान् वदेनः॥

इसका अर्थ है कि लोग सुख प्राप्त करने के लिए कर्म करते हैं, लेकिन उनका परिणाम अक्सर दुख ही होता है।


कर्मयोग: जीवन का संतुलन

श्रीकृष्ण के अनुसार, कर्म करना मनुष्य का धर्म है, लेकिन फल की इच्छा के बिना। इसे कर्मयोग कहते हैं।

कर्मयोग के तत्व

  1. फल की चिंता से मुक्त रहना
    कर्म करते समय फल की आकांक्षा न करें।
  2. भगवान को समर्पण
    अपने हर कर्म को भगवान की सेवा समझकर करें।
  3. समता का भाव
    सुख-दुख, लाभ-हानि में समानता रखें।

श्रीकृष्ण कहते हैं:
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
इसका अर्थ है कि हमें केवल कर्म करने का अधिकार है, फल की इच्छा करना हमारा अधिकार नहीं।


श्रीमद्भागवतम् का दृष्टिकोण

भागवत में (10.14.58) कहा गया है:
“समाश्रिता से पदपल्लवप्लवं महत्पदं पुण्ययशो मुरारेः।
भवाम्बुधिर्वत्सपदं परं पदं पदं पदं यद्विपदां न तेषाम्॥”

इस श्लोक के अनुसार, जो व्यक्ति भगवान के चरणकमल को अपना आश्रय बना लेता है, वह इस संसार के कष्टों से परे हो जाता है। यह संसार उसके लिए एक छोटे से गड्ढे के जल के समान हो जाता है। उसका अंतिम लक्ष्य वैकुंठधाम होता है, जहाँ कोई कष्ट या विपत्ति नहीं होती।


श्लोक 2.51 का आधुनिक जीवन में महत्व

आज का मनुष्य भौतिक सुख-सुविधाओं के पीछे भाग रहा है। यह भागदौड़ उसे मानसिक तनाव और शारीरिक बीमारियों की ओर धकेल रही है।

श्लोक के संदेश का व्यावहारिक उपयोग

  1. संतुलित जीवन
    • जीवन में कर्म करते हुए फल की चिंता से दूर रहें।
    • भौतिक वस्तुओं के मोह से बचें।
  2. मानसिक शांति
    • फल की चिंता से मुक्त होकर शांति प्राप्त करें।
    • सुख-दुख को समान भाव से स्वीकारें।
  3. आध्यात्मिक विकास
    • भक्ति और ज्ञान के माध्यम से आत्मा की उन्नति करें।
    • भगवान के प्रति समर्पण से जीवन को सार्थक बनाएं।

श्रीमद्भगवद्गीता श्लोक 2.51: आसान शब्दों में व्याख्या और व्यावहारिक उदाहरण

व्यावहारिक उदाहरण

1. किसान का उदाहरण

एक किसान दिन-रात मेहनत करता है। वह खेत जोतता है, बीज बोता है, फसल की देखभाल करता है, लेकिन वर्षा और प्राकृतिक आपदाएँ उसके नियंत्रण में नहीं होतीं। यदि वह फसल अच्छी होने या खराब होने की चिंता में उलझ जाए, तो उसका जीवन तनावपूर्ण हो जाएगा।
श्लोक का संदेश: किसान को अपनी ओर से पूरी मेहनत करनी चाहिए और फसल का परिणाम भगवान पर छोड़ देना चाहिए।


2. विद्यार्थी का उदाहरण

एक छात्र परीक्षा की तैयारी करता है। वह पाठ्यक्रम को याद करता है, अभ्यास करता है, लेकिन परीक्षा के परिणाम उसकी क्षमता, परीक्षा के समय की परिस्थिति और अन्य बाहरी कारणों पर निर्भर करते हैं। यदि वह केवल परिणाम की चिंता करता रहे, तो पढ़ाई में उसकी एकाग्रता समाप्त हो जाएगी।
श्लोक का संदेश: विद्यार्थी को अपनी पूरी लगन और निष्ठा से पढ़ाई करनी चाहिए, लेकिन परिणाम की चिंता नहीं करनी चाहिए।


3. माँ की ममता

एक माँ अपने बच्चे को सही संस्कार देने और उसे अच्छा इंसान बनाने के लिए हर संभव प्रयास करती है। लेकिन बच्चे का भविष्य और उसके जीवन के निर्णय माँ के नियंत्रण में नहीं होते।
श्लोक का संदेश: माँ को बिना किसी अपेक्षा के अपने कर्तव्यों का पालन करना चाहिए और भगवान पर विश्वास रखना चाहिए।


4. व्यवसायी का दृष्टिकोण

एक व्यापारी अपने व्यवसाय को बढ़ाने के लिए नई योजनाएँ बनाता है, मेहनत करता है और ईमानदारी से काम करता है। लेकिन बाजार की परिस्थितियाँ, ग्राहक की पसंद-नापसंद और अन्य आर्थिक कारक उसके नियंत्रण में नहीं होते।
श्लोक का संदेश: व्यापारी को अपनी मेहनत और ईमानदारी पर ध्यान देना चाहिए, लेकिन लाभ-हानि की चिंता से बचना चाहिए।


आधुनिक संदर्भ में श्लोक का महत्व

कार्यक्षेत्र में

कर्मयोग का यह सिद्धांत हमें सिखाता है कि कार्यस्थल पर मेहनत करें, लेकिन प्रमोशन या प्रशंसा की चिंता न करें।
उदाहरण:
एक कर्मचारी को अपने कार्य को पूरी लगन से करना चाहिए। यदि वह केवल प्रशंसा की आशा में काम करेगा, तो वह कभी संतोष का अनुभव नहीं करेगा।

सामाजिक जीवन में

समाज सेवा करते समय यह न सोचें कि लोग आपकी सराहना करेंगे या नहीं।
उदाहरण:
यदि आप किसी गरीब की मदद करते हैं, तो यह सोचकर न करें कि बदले में वह आपका आभारी होगा। सच्ची सेवा बिना फल की अपेक्षा के होती है।

परिवार में

परिवार में हर सदस्य को अपना कर्तव्य निभाना चाहिए, बिना इस सोच के कि उसे क्या बदले में मिलेगा।
उदाहरण:
यदि आप घर के सभी काम बिना किसी शिकायत के करते हैं, तो परिवार में शांति और प्रेम बना रहता है।


फल की आसक्ति से बचने के लाभ

  1. मानसिक शांति:
    जब आप परिणाम की चिंता छोड़ देते हैं, तो आप तनावमुक्त रहते हैं।
  2. सुख-दुख में समभाव:
    परिणाम चाहे अच्छा हो या बुरा, आप स्थिर रहते हैं।
  3. कार्य में कुशलता:
    जब ध्यान केवल कर्म पर होता है, तो आप अपना सर्वश्रेष्ठ दे सकते हैं।
  4. आध्यात्मिक उन्नति:
    भगवान में समर्पण से आत्मा की शुद्धि होती है।

भक्ति और मोक्ष का संबंध

गीता के अनुसार, भक्ति से मनुष्य भगवान की दिव्य स्थिति को समझ पाता है।

  • भक्ति क्या है?
    भगवान के प्रति प्रेम और समर्पण।
  • मोक्ष का मार्ग
    कर्म और भक्ति के माध्यम से मनुष्य मोक्ष प्राप्त करता है।

जिन्होंने अपने जीवन को भक्ति में समर्पित कर दिया, वे इस संसार के दुखों से मुक्त होकर वैकुंठधाम को प्राप्त करते हैं।


निष्कर्ष

श्रीमद्भगवद्गीता का श्लोक 2.51 हमें जीवन के सच्चे उद्देश्य का बोध कराता है। यह सिखाता है कि कर्म करते समय फल की आसक्ति से मुक्त होकर भगवान की भक्ति और सेवा में लीन हो जाना ही जीवन का सार है।

“कर्म करो, फल की चिंता छोड़ो। यही मार्ग तुम्हें सुख, शांति और मोक्ष की ओर ले जाएगा।”

इस श्लोक को अपनाकर हम अपने जीवन को न केवल सफल बना सकते हैं, बल्कि जन्म-मृत्यु के चक्र से भी मुक्त हो सकते हैं। श्रीकृष्ण का यह उपदेश हर युग और हर परिस्थिति में प्रासंगिक है।

Resources : श्रीमद्भागवत गीता यथारूप – बक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद, गीता प्रेस

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