श्रीमद् भागवत गीता अध्याय 2 श्लोक 50 (Bhagavad Gita Chapter 2 Verse 50 in Hindi): भगवद्गीता का श्लोक 2.50 (Bhagavad Gita Chapter 2 Shloka 50) जीवन की उन गूढ़ बातों को सरलता से प्रस्तुत करता है, जिनके माध्यम से हम कर्म और उसके बंधनों को समझ सकते हैं। भगवान श्रीकृष्ण इस श्लोक में कर्मयोग के महत्व को समझाते हुए कहते हैं कि भक्ति में रत मनुष्य इस जीवन में ही अपने शुभ और अशुभ कर्मों से मुक्त हो सकता है। वे यह भी बताते हैं कि योग, विशेष रूप से कर्मयोग, कुशलता से कर्म करने की कला है।
श्रीमद् भागवत गीता अध्याय 2 श्लोक 50 (Bhagavad Gita Chapter 2 Verse 50)
गीता अध्याय 2 श्लोक 50 अर्थ सहित (Gita Chapter 2 Verse 50 in Hindi with meaning)
श्लोक 2.50
“बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते।
तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम्।।”
बुद्धि-युक्तः – भक्ति में लगा रहने वाला; जहाति – मुक्त हो सकता है; इह – इस जीवन में; उभे – दोनों; सुकृत-दुष्कृते – अच्छे तथा बुरे फल; तस्मात् – अतः; योगाय – भक्ति के लिए; युज्यस्व – इस तरह लग जाओ; योगः – कृष्णभावनामृत; कर्मसु – समस्त कार्यों में; कौशलम् – कुशलता, कला |
भक्ति में लीन व्यक्ति इस जीवन में ही शुभ और अशुभ कर्मों के बंधन से मुक्त हो जाता है। इसलिए योग का अभ्यास करो, क्योंकि यही सच्चे कार्य-कौशल का मार्ग है।
भावार्थ: कर्मयोग का मर्म
गीता का यह श्लोक न केवल आध्यात्मिक जीवन के लिए मार्गदर्शन देता है, बल्कि सांसारिक जीवन में भी अत्यधिक प्रासंगिक है। यहाँ भगवान श्रीकृष्ण ने कर्म और योग को जोड़ा है। इसका अर्थ है कि जो व्यक्ति भगवान की शरण में रहकर कर्म करता है, वह कर्म के अच्छे और बुरे परिणामों से परे हो जाता है।
भक्ति और समर्पण से किया गया कार्य हमें जीवन के संघर्षों और द्वंद्वों से ऊपर उठाता है। इस श्लोक में कर्म की शुद्धता और कुशलता को समझाने का प्रयास किया गया है, ताकि मनुष्य अपने जीवन को उद्देश्यपूर्ण और सार्थक बना सके।
तात्पर्य: कर्म के बंधन से मुक्ति का मार्ग
जीवात्मा अनादि काल से अपने अच्छे और बुरे कर्मों का फल भोगता आ रहा है। यह कर्म-फल का चक्र हमें हमारे असली स्वरूप से दूर ले जाता है। लेकिन गीता हमें इस चक्र से मुक्त होने का मार्ग दिखाती है। इस श्लोक का संदेश है कि फल की आसक्ति को त्यागकर, निष्काम भाव से कार्य करना ही मुक्ति का मार्ग है।
कर्मयोग के मुख्य तत्व:
- निष्काम कर्म:
फल की चिंता किए बिना अपने कर्तव्यों का पालन करना। - भक्ति का भाव:
हर कर्म को भगवान की सेवा मानकर करना। - आसक्ति का त्याग:
अच्छे और बुरे परिणामों से परे होना। - शुद्ध कर्म:
ऐसा कार्य करना जो न केवल व्यक्तिगत लाभ के लिए हो, बल्कि समष्टि के कल्याण के लिए हो।
फल की आसक्ति: कार्यकुशलता पर प्रभाव
कर्म के परिणाम की आसक्ति हमारे कार्य पर नकारात्मक प्रभाव डाल सकती है। जब हम किसी कार्य के फल के प्रति आसक्त हो जाते हैं, तो हमारी ऊर्जा और ध्यान बंट जाता है। इसके विपरीत, जब हम बिना किसी मोह के कार्य करते हैं, तो हमारा मन और शरीर पूरी तरह से उस कार्य में समर्पित हो जाता है।
उदाहरण: एक किसान का दृष्टांत
एक किसान अपने खेत में पूरे परिश्रम और लगन से काम करता है। वह मिट्टी को तैयार करता है, बीज बोता है, सिंचाई करता है और फसल की देखभाल करता है। लेकिन यदि वह हर दिन यह सोचकर परेशान हो कि मौसम खराब हो सकता है या फसल बर्बाद हो जाएगी, तो उसका ध्यान सही तरीके से कार्य करने में नहीं लगेगा।
इसके विपरीत, यदि वह यह सोचकर कार्य करे कि फसल का परिणाम भगवान की इच्छा पर निर्भर है, और उसका कार्य केवल मेहनत करना है, तो वह शांत और कुशलता से अपना काम करेगा। यह न केवल उसकी मानसिक शांति को बनाए रखेगा, बल्कि फसल का बेहतर उत्पादन भी सुनिश्चित करेगा।
इस उदाहरण से यह स्पष्ट होता है कि परिणाम की चिंता छोड़ने से कार्य में अधिक कुशलता आती है।
कर्मयोग के लाभ
गीता के इस श्लोक के माध्यम से हमें कर्मयोग के निम्नलिखित लाभ समझ में आते हैं:
- मानसिक शांति:
फल की चिंता न होने से मन स्थिर और शांत रहता है। - कार्यकुशलता:
बिना किसी डर, घबराहट या तनाव के कार्य करना संभव हो पाता है। - मुक्ति का मार्ग:
शुभ और अशुभ कर्मों के बंधन से छुटकारा मिलता है। - आत्मिक संतोष:
भगवान की सेवा के रूप में कार्य करने से आंतरिक संतोष प्राप्त होता है। - जीवन में सामंजस्य:
कर्मयोग हमें हर स्थिति में संतुलन बनाए रखने की कला सिखाता है।
अर्जुन का उदाहरण: फल त्याग का प्रभाव
महाभारत के युद्ध में अर्जुन पहले अपने कर्तव्यों को लेकर भ्रमित था। उसे अपने प्रियजनों के खिलाफ युद्ध करने का विचार असंभव लग रहा था। लेकिन भगवान श्रीकृष्ण के उपदेश ने उसे यह सिखाया कि अपने कर्म को भगवान की सेवा मानकर करना चाहिए।
गीता का उपदेश सुनने के बाद अर्जुन ने युद्ध को केवल विजय पाने के उद्देश्य से नहीं, बल्कि धर्म और भगवान की सेवा के रूप में लड़ा। यह मानसिकता परिवर्तन न केवल उसकी कुशलता में वृद्धि का कारण बना, बल्कि उसे आंतरिक संतोष और शांति भी प्रदान की।
कर्मयोग: आधुनिक जीवन में उपयोगिता
आज के समय में भी गीता का यह श्लोक अत्यंत प्रासंगिक है। चाहे वह कार्यस्थल हो, परिवार हो, या व्यक्तिगत जीवन—कर्मयोग का सिद्धांत हर क्षेत्र में लागू किया जा सकता है।
कर्मयोग को अपनाने के तरीके:
- नौकरी और व्यवसाय में:
अपने कार्य को ईमानदारी और समर्पण भाव से करें।
परिणाम की चिंता छोड़कर पूरी ऊर्जा से कार्य में जुटें। - पारिवारिक जीवन में:
हर संबंध को निस्वार्थ भाव से निभाएं।
अपेक्षाओं से मुक्त होकर संबंधों को सशक्त बनाएं। - आध्यात्मिक प्रगति के लिए:
नियमित भक्ति और ध्यान से अपने मन को स्थिर रखें।
निष्कर्ष: कुशलता का मूल मंत्र
गीता के श्लोक 2.50 का सार है कि निष्काम कर्म से हम जीवन में कुशलता और संतोष प्राप्त कर सकते हैं।
“योगः कर्मसु कौशलम्” का अर्थ यह है कि कार्य को भगवान की सेवा समझकर करें और फल की आसक्ति त्याग दें। यही वास्तविक कुशलता है, यही कर्मयोग है। जब हम अपने कर्मों को समर्पण और भक्ति भाव से करते हैं, तो जीवन न केवल सफल होता है, बल्कि सुखद और संतोषजनक भी बनता है।
Resources : श्रीमद्भागवत गीता यथारूप – बक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद, गीता प्रेस