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Bhagavad Gita Chapter 2 Verse-Shloka 5 – गीता अध्याय 2 श्लोक 5 अर्थ सहित – गुरूनहत्वा हि महानुभवान…..

श्रीमद् भागवत गीता अध्याय 2 श्लोक 5 (Bhagwat Geeta adhyay 2 shlok 5 in Hindi): श्रीमद्भगवद्गीता के श्लोक 2.5(Gita Chapter 2 Verse 5) में अर्जुन की मनोस्थिति को दर्शाया गया है। अर्जुन अपने गुरुजनों और बड़ों के प्रति आदर और कर्तव्य के बीच उलझा हुआ है। उसे समझ नहीं आता कि क्या युद्ध करके अपने गुरुजनों का वध करना उचित है, या उन्हें जीवित छोड़कर भिक्षा मांगकर जीवन जीना बेहतर है।

श्रीमद् भागवत गीता अध्याय 2 श्लोक 5 (Bhagavad Gita Chapter 2 Verse 5)

गीता अध्याय 2 श्लोक 5 अर्थ सहित (Gita Chapter 2 Verse 5 with meaning in Hindi)

गीता अध्याय 2 श्लोक 5 अर्थ सहित (Gita Chapter 2 Verse 5 with meaning in Hindi) | Festivalhindu.com
Gita Chapter 2 Verse 5 in Hindi

गुरुजनों का सम्मान और धर्म का पालन

श्लोक 2.5 का भावार्थ और तात्पर्य

श्लोक:

गुरूनहत्वा हि महानुभवान श्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके |
हत्वार्थकामांस्तु गुरुनिहैव भुञ्जीय भोगान्रुधिरप्रदिग्धान् || ५ ||

अनुवाद: गुरुजनों को न मार कर, महानुभावों को नष्ट किए बिना, इस संसार में भीख माँग कर खाना अच्छा है। लेकिन यदि गुरुजनों को मार दिया जाए, तो उनके रक्त से सनी हुई वस्तुओं का भोग करना पड़ेगा।

भावार्थ

इस श्लोक में अर्जुन कहते हैं कि उनके गुरुजन, चाहे वे सांसारिक लाभ के इच्छुक हों, फिर भी उनके लिए आदरणीय हैं। उन्हें मार कर जीने की अपेक्षा, इस संसार में भीख माँग कर खाना बेहतर है। यदि वे अपने गुरुजनों का वध करते हैं, तो उनके द्वारा भोगी जाने वाली प्रत्येक वस्तु उनके रक्त से सनी होगी।

तात्पर्य

शास्त्रों के अनुसार, ऐसा गुरु जो निंद्य कर्म में रत हो और विवेकशून्य हो, त्याज्य है। भीष्म और द्रोण, दुर्योधन से आर्थिक सहायता लेने के कारण उसके पक्ष में थे, यद्यपि यह उनके लिए उचित नहीं था। ऐसी स्थिति में वे अपने आचार्यत्व का सम्मान खो बैठे थे। किन्तु अर्जुन सोचते हैं कि इतने पर भी वे उनके गुरुजन हैं, अतः उनका वध करके भौतिक लाभों का भोग करना, रक्त से सने अवशेषों का भोग करने के समान होगा।

अर्जुन की दुविधा:

अर्जुन के सामने दो कठिन विकल्प हैं:

  • गुरुओं का वध और भोग: युद्ध में विजय प्राप्त करने के बाद उसे भौतिक सुख और संपत्ति मिल सकती है, लेकिन ये सुख उसके गुरुजनों के वध के बाद मिलेंगे। यह विचार उसके लिए असहनीय है, क्योंकि वह अपने गुरुजनों के प्रति गहरा आदर और प्रेम रखता है।
  • भिक्षा का जीवन: यदि वह युद्ध नहीं करता और अपने गुरुजनों का वध नहीं करता, तो उसे भिक्षा मांगकर जीवन बिताना पड़ेगा। लेकिन यह विकल्प उसे नैतिक रूप से सही लगता है, क्योंकि वह अपने गुरुजनों का सम्मान बनाए रख सकता है।

मुख्य बिंदु:

  • गुरुजनों का सम्मान: गुरुजनों का सम्मान करना धर्म का पालन है, चाहे वे किसी भी परिस्थिति में हों।
  • धर्म और कर्तव्य: धर्म का पालन करते हुए, अपने कर्तव्यों का निर्वाह करना आवश्यक है।
  • आध्यात्मिक दृष्टिकोण: भौतिक लाभों की अपेक्षा, आध्यात्मिक दृष्टिकोण से जीवन जीना श्रेष्ठ है।

निष्कर्ष:

अर्जुन की यह दुविधा इस बात को दर्शाती है कि जीवन में कभी-कभी धर्म और व्यक्तिगत संबंधों के बीच चुनाव करना अत्यंत कठिन हो जाता है। गीता का यह श्लोक हमें यह सिखाता है कि हमारे निर्णयों का आधार धर्म, नैतिकता और सत्य होना चाहिए, न कि केवल भौतिक लाभ। अर्जुन का संघर्ष हमें यह संदेश देता है कि सही मार्ग का अनुसरण करते हुए कभी-कभी कठिन निर्णय लेने पड़ते हैं, लेकिन वही निर्णय अंततः हमारे लिए कल्याणकारी होते हैं।

Resources : श्रीमद्भागवत गीता यथारूप – बक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद, गीता प्रेस

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