श्रीमद् भागवत गीता अध्याय 2 श्लोक 49 (Bhagavad Gita Chapter 2 Verse 49 in Hindi): श्रीमद्भगवद्गीता भारतीय दर्शन का एक अमूल्य ग्रंथ है, जो जीवन के हर पहलू पर मार्गदर्शन प्रदान करता है। इसमें भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को कर्म, भक्ति और आत्मज्ञान के महत्व के बारे में अद्भुत शिक्षा दी है। गीता के अध्याय 2 का श्लोक 49 (Bhagavad Gita Chapter 2 Shloka 49) इस शिक्षा का एक अनमोल हिस्सा है, जिसमें निष्काम कर्म और भक्ति के मार्ग पर चलने का निर्देश दिया गया है। यह श्लोक बताता है कि किस प्रकार अपने कर्मों को भगवान के प्रति समर्पित कर जीवन को सार्थक बनाया जा सकता है।
श्रीमद् भागवत गीता अध्याय 2 श्लोक 49 (Bhagavad Gita Chapter 2 Verse 49)
गीता अध्याय 2 श्लोक 49 अर्थ सहित (Gita Chapter 2 Verse 49 in Hindi with meaning)
श्लोक 2.49 का पाठ और अर्थ
श्लोक:
दुरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धञ्जय।
बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः।।
शब्दार्थ:
- दूरेण: दूर से त्याग दो।
- अवरम् कर्म: गर्हित, निन्दनीय कर्म।
- बुद्धि-योगात्: भक्ति और ज्ञान से युक्त कर्म।
- शरणम् अन्विच्छ: भगवान की शरण को अपनाओ।
- कृपणाः फलहेतवः: जो अपने कर्मों के फलों की कामना करते हैं, वे कृपण (स्वार्थी) हैं।
हे धनंजय! भक्ति के द्वारा समस्त गर्हित कर्मों से दूर रहो और उसी भाव से भगवान् की शरण करो | जो व्यक्ति अपने सकाम कर्म-फलों को भोगना चाहते हैं, वे कृपण हैं |
भावार्थ:
भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को प्रेरित करते हैं कि वह निष्काम कर्म के मार्ग पर चलें। वे समझाते हैं कि जो व्यक्ति केवल अपने कर्मों के फलों की आसक्ति रखते हैं, वे कृपण होते हैं। कर्म का सही उद्देश्य भक्ति और भगवान की सेवा होना चाहिए।
तात्पर्य
1. निष्काम कर्म का महत्व:
श्रीकृष्ण कहते हैं कि जब कोई व्यक्ति अपने कर्मों को भगवान के प्रति समर्पित करता है, तब वह कर्मबंधन से मुक्त हो जाता है। ऐसा व्यक्ति निष्काम भाव से कर्म करता है, बिना किसी फल की कामना के।
2. सकाम कर्म से बचाव:
सकाम कर्म, अर्थात् फल की कामना से प्रेरित कार्य, व्यक्ति को मोह और बंधन में डालता है। यह उसे जन्म-मृत्यु के चक्र में फंसा देता है।
3. भक्ति का सर्वोच्च स्थान:
श्रीकृष्ण बताते हैं कि भक्ति के माध्यम से ही व्यक्ति अपने जीवन को सही दिशा में ले जा सकता है। जो कर्म भगवान की तुष्टि के लिए किए जाते हैं, वे ही सच्चे और सार्थक कर्म हैं।
आधुनिक जीवन में श्लोक का महत्व
यह श्लोक आज के युग में भी उतना ही प्रासंगिक है जितना महाभारत के समय में था। आज का जीवन भी असंख्य समस्याओं और चुनौतियों से भरा हुआ है। अक्सर लोग अपने कर्मों के पीछे केवल भौतिक सुख और सफलता की कामना रखते हैं। लेकिन यह श्लोक सिखाता है कि असली सुख केवल भगवान की शरण में जाकर और निष्काम कर्म करते हुए प्राप्त किया जा सकता है।
कर्म के प्रति दो दृष्टिकोण:
- बाहरी गतिविधियाँ:
जैसे मंदिर निर्माण में लगे श्रमिक, जो केवल वेतन के लिए कार्य करते हैं। - आंतरिक मनोवृत्ति:
जैसे वे तपस्वी, जो इसे भगवान की सेवा मानकर स्वैच्छिक रूप से कार्य करते हैं।
इन दोनों दृष्टिकोणों का अंतर स्पष्ट करता है कि केवल बाहरी कर्म नहीं, बल्कि हमारी आंतरिक प्रेरणा भी महत्वपूर्ण है।
जीवन के लिए उपयोगी शिक्षाएँ
1. निष्काम भक्ति अपनाएँ:
अपने कर्मों का फल भगवान को अर्पित करें। इससे मन शुद्ध होता है और आत्मा को शांति मिलती है।
2. भगवान की शरण में रहें:
समर्पण से जीवन की कठिनाइयाँ आसान हो जाती हैं।
3. कृपण बनने से बचें:
भौतिक सुखों की कामना करना जीवन को सीमित कर देता है।
4. ज्ञान और भक्ति का संतुलन बनाएँ:
दिव्य ज्ञान और भक्ति का समन्वय जीवन को सही दिशा में ले जाता है।
मंदिर निर्माण का प्रेरणादायक उदाहरण
मंदिर निर्माण करने वाले दो प्रकार के लोग मिलते हैं:
- श्रमिक, जो केवल पारिश्रमिक के लिए कार्य करते हैं।
- तपस्वी और साधु, जो इसे भगवान की सेवा मानकर स्वैच्छिक रूप से कार्य करते हैं।
हालांकि दोनों एक ही कार्य कर रहे हैं, लेकिन उनकी आंतरिक मनोवृत्ति अलग है। यह उदाहरण बताता है कि केवल कर्म करना ही पर्याप्त नहीं है; भगवान के प्रति समर्पण और सेवा का भाव होना भी आवश्यक है।
गांधीजी का उदाहरण:
महात्मा गांधी का जीवन श्रीकृष्ण के इस श्लोक का आदर्श उदाहरण है। उन्होंने निष्काम कर्म का पालन करते हुए समाज सेवा को अपने जीवन का मुख्य उद्देश्य बनाया। उनके हर कार्य का उद्देश्य व्यक्तिगत लाभ नहीं, बल्कि देश और समाज की भलाई था। उनका कहना था, “सेवा परमो धर्मः,“ अर्थात सेवा ही सबसे बड़ा धर्म है। गांधीजी ने अपने कार्यों से सिखाया कि जब हम फल की चिंता छोड़कर कार्य करते हैं, तो जीवन में संतोष और शांति प्राप्त होती है।
मदर टेरेसा का दृष्टांत:
मदर टेरेसा ने बिना किसी व्यक्तिगत स्वार्थ के समाज सेवा की। उन्होंने अपना जीवन जरूरतमंदों, बीमारों और गरीबों के लिए समर्पित कर दिया। उनका कहना था, “ईश्वर को देखने का सबसे अच्छा तरीका है, उनकी सेवा करना।“ उनका कार्य श्रीकृष्ण के उपदेश को साकार करता है कि सेवा और समर्पण से ही जीवन का असली उद्देश्य प्राप्त होता है।
श्लोक 2.49 से प्राप्त संदेश
- भगवान श्रीकृष्ण का यह उपदेश बताता है कि हमें कर्म करते समय फल की आसक्ति से मुक्त रहना चाहिए।
- जो व्यक्ति अपने कर्मों को भगवान को समर्पित कर देता है, वह जीवन के बंधनों से मुक्त हो जाता है।
- भक्ति और सेवा के माध्यम से ही सच्ची शांति और संतुष्टि प्राप्त होती है।
निष्कर्ष
श्रीमद्भगवद्गीता के श्लोक 2.49 में जीवन के सही मार्ग का सार छिपा हुआ है। श्रीकृष्ण का यह उपदेश हर युग के लिए प्रेरणा का स्रोत है। यह हमें सिखाता है कि जीवन में भक्ति और निष्काम कर्म का महत्व कितना अधिक है। भगवान की सेवा और उनके प्रति समर्पण ही वह मार्ग है, जो हमें जीवन के मोह-माया से मुक्त कर शाश्वत शांति प्रदान करता है।
“कर्म करो, पर फल की इच्छा छोड़ दो। भक्ति के मार्ग पर चलो और भगवान की शरण में रहो। यही जीवन का सही मार्ग है।”
Resources : श्रीमद्भागवत गीता यथारूप – बक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद, गीता प्रेस