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Bhagavad Gita Chapter 2 Verse-Shloka 44 – गीता अध्याय 2 श्लोक 44 अर्थ सहित – भोगैश्र्वर्यप्रसक्तानां…..

श्रीमद् भागवत गीता अध्याय 2 श्लोक 44 (Bhagavad Gita Chapter 2 Verse 44 in Hindi): गीता के अध्याय 2, श्लोक 44(Bhagavad Gita Chapter 2 Shloka 44) में भगवान श्रीकृष्ण ने यह महत्वपूर्ण शिक्षा दी है कि भौतिक भोग और ऐश्वर्य के प्रति आसक्ति मनुष्य के मन की स्थिरता को बाधित करती है और उसे भगवान की भक्ति से दूर कर देती है। यह श्लोक हमें यह समझने में सहायता करता है कि सांसारिक इच्छाएं और माया के आकर्षण हमारे आत्मिक विकास और आध्यात्मिक प्रगति में सबसे बड़े बाधक हैं।

श्रीमद् भागवत गीता अध्याय 2 श्लोक 44 (Bhagavad Gita Chapter 2 Verse 44)

गीता अध्याय 2 श्लोक 44 अर्थ सहित (Gita Chapter 2 Verse 44 in Hindi with meaning)

गीता अध्याय 2 श्लोक 44 अर्थ सहित (Gita Chapter 2 Verse 44 in Hindi with meaning) | Festivalhindu.com
Gita Chapter 2 sloka 44

श्लोक और उसका भावार्थ

भोगैश्र्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम् |
व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते || 44 ||

भोग – भौतिक भोग; ऐश्र्वर्य – तथा ऐश्र्वर्य के प्रति; प्रसक्तानाम् – आसक्तों के लिए; तया – ऐसी वस्तुओं से; अपहृत-चेत्साम् – मोह्ग्रसित चित्त वाले; व्यवसाय-आत्मिकाः – दृढ़ निश्चय वाली; बुद्धिः – भगवान् की भक्ति; समाधौ – नियन्त्रित मन में; न – कभी नहीं; विधीयते – घटित होती है |

भावार्थ:
जो लोग इन्द्रिय भोग और भौतिक ऐश्वर्य के प्रति अत्यधिक आसक्त होते हैं, उनका मन ऐसी वस्तुओं के मोह में पड़कर भ्रमित हो जाता है। ऐसे मनुष्यों के लिए भगवान की भक्ति का दृढ़ निश्चय करना और अपने मन को समाधि में स्थिर रखना संभव नहीं होता।


तात्पर्य

इस श्लोक में भगवान कृष्ण कहते हैं कि मनुष्य का ध्यान जिस ओर अधिक आकर्षित होता है, वह उसी दिशा में अपना जीवन व्यतीत करता है। जो लोग भौतिक सुखों, इन्द्रिय भोग और क्षणिक ऐश्वर्य के प्रति आसक्त होते हैं, उनका मन इन वस्तुओं से मोहग्रस्त हो जाता है। परिणामस्वरूप, वे आत्मा की वास्तविकता को समझने में असमर्थ हो जाते हैं और भगवद्भक्ति के मार्ग पर अग्रसर नहीं हो पाते।

समाधि का अर्थ:
समाधि का तात्पर्य है “स्थिर मन।” वैदिक शब्दकोष निरुक्ति के अनुसार, “सम्यग् आधीयतेSस्मिन्नात्मतत्त्वयाथात्म्यम्,” यानी जब मन आत्मा को समझने में स्थिर होता है, तो उसे समाधि कहा जाता है। यह मन की उस अवस्था को दर्शाता है जहां मनुष्य आत्मज्ञान प्राप्त कर सकता है।

माया का प्रभाव:
माया, यानी भौतिक संसार का आकर्षण, मनुष्य के मन को भ्रमित करता है। इन्द्रिय भोग और भौतिक ऐश्वर्य की माया में फंसा हुआ व्यक्ति भगवद्भक्ति के लिए आवश्यक दृढ़ निश्चय नहीं कर पाता।


आसक्ति के प्रभाव

1. मन की स्थिरता में बाधा:
इन्द्रिय सुखों और ऐश्वर्य के प्रति आसक्ति मनुष्य के मन को अस्थिर कर देती है।
2. आत्मज्ञान से दूरी:
माया के मोह में पड़ा व्यक्ति आत्मा की वास्तविकता को समझने में असमर्थ हो जाता है।
3. भक्ति मार्ग पर अवरोध:
मोहग्रस्त व्यक्ति के लिए भगवद्भक्ति का मार्ग कठिन हो जाता है।
4. पतन की ओर अग्रसर:
भौतिक वस्तुओं में आसक्ति रखने वाला व्यक्ति बार-बार पतन की ओर बढ़ता है।


समाधि के महत्व को समझें

समाधि की अवस्था प्राप्त करने के लिए मनुष्य को अपने मन को स्थिर और संयमित रखना आवश्यक है। यह तभी संभव है जब मनुष्य अपने इन्द्रिय सुखों और भौतिक ऐश्वर्य की लालसा को छोड़ दे। मन की स्थिरता आत्मज्ञान का मार्ग प्रशस्त करती है, जो भगवद्भक्ति का आधार है।


भोग और ऐश्वर्य से बचने के उपाय

  • आत्मिक जागरूकता:
    अपने जीवन का उद्देश्य समझें और आत्मा की सच्चाई को जानने का प्रयास करें।
  • संतुलित जीवन:
    भौतिक सुखों का उपयोग करें, लेकिन उन पर अत्यधिक निर्भर न रहें।
  • ध्यान और योग:
    ध्यान और योग के माध्यम से अपने मन को नियंत्रित करें।
  • भगवद्गीता का अध्ययन:
    गीता के उपदेशों को जीवन में अपनाकर आध्यात्मिक प्रगति करें।

निष्कर्ष

श्रीकृष्ण का यह श्लोक हमें सिखाता है कि सांसारिक इच्छाओं और भौतिक ऐश्वर्य की माया में फंसा हुआ मनुष्य न तो मन की स्थिरता प्राप्त कर सकता है और न ही भगवान की भक्ति में लीन हो सकता है। आत्मज्ञान और भगवद्भक्ति के मार्ग पर आगे बढ़ने के लिए इन्द्रिय भोग और क्षणिक सुखों की लालसा को छोड़ना आवश्यक है। जब मनुष्य माया से मुक्त होकर अपने मन को स्थिर करता है, तभी वह भगवद्भक्ति की सच्ची अनुभूति कर सकता है।

“भौतिक सुखों से मुक्त होकर ही आत्मा की शुद्धता और शांति का अनुभव संभव है।”

Resources : श्रीमद्भागवत गीता यथारूप – बक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद, गीता प्रेस

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