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Bhagavad Gita Chapter 2 Verse-Shloka 36 – गीता अध्याय 2 श्लोक 36 अर्थ सहित – अवाच्यवादांश्र्च बहून्वदिष्यन्ति…..

श्रीमद् भागवत गीता अध्याय 2 श्लोक 36 (Bhagavad Gita Chapter 2 Verse 36 in Hindi): भगवद गीता के दूसरे अध्याय का 36वां श्लोक (Bhagavad Gita Chapter 2 Shloka 36) अर्जुन को उनके निर्णय पर पुनर्विचार के लिए प्रेरित करता है। श्रीकृष्ण, अर्जुन को समझाने के लिए गीता में न केवल दायित्व और धर्म का सन्देश देते हैं, बल्कि उसे मानवीय सम्मान और वीरता की रक्षा का महत्व भी बताते हैं। इस श्लोक के माध्यम से वे अर्जुन को यह दर्शाते हैं कि यदि वह युद्ध से पलायन करता है, तो उसके शत्रु उसके साहस का मजाक उड़ाएंगे और उसकी वीरता पर प्रश्न उठाएंगे।

श्रीमद् भागवत गीता अध्याय 2 श्लोक 36 (Bhagavad Gita Chapter 2 Verse 36)

गीता अध्याय 2 श्लोक 36 अर्थ सहित (Gita Chapter 2 Verse 36 in Hindi with meaning)

गीता अध्याय 2 श्लोक 36 अर्थ सहित (Gita Chapter 2 Verse 36 in Hindi with meaning) | Festivalhindu.com
Gita Chapter 2 Verse 36

श्लोक का मूल पाठ और अर्थ


“अवाच्यवादांश्र्च बहून्वदिष्यन्ति तवाहिताः |
निन्दन्तस्तव सामर्थ्यं ततो दुःखतरं नु किम् ||”

शब्दार्थ और भावार्थ:

  • अवाच्य – कटु और अनुचित शब्द
  • वादान् – मिथ्या शब्द
  • बहून् – अनेक
  • वदिष्यन्ति – कहेंगे
  • अहिताः – शत्रु
  • निन्दन्त: – निन्दा करते हुए
  • सामर्थ्य – सामर्थ्य, क्षमता
  • दुःख-तरम् – अत्यंत दुखदायी

इस श्लोक का अर्थ यह है कि यदि अर्जुन युद्ध छोड़कर जाता है, तो उसके शत्रु उसे कटु शब्दों में तिरस्कार करेंगे और उसकी वीरता का अपमान करेंगे। अर्जुन के लिए, जो कि एक वीर योद्धा है, यह अपमान सबसे बड़ा दुःख होगा। श्रीकृष्ण का यह वचन अर्जुन के आत्मसम्मान को झकझोरने वाला है, ताकि वह अपने निर्णय का पुनर्मूल्यांकन करे और युद्ध से पलायन न करे।

भगवान श्रीकृष्ण का अर्जुन को सन्देश


भगवान श्रीकृष्ण इस श्लोक में अर्जुन को यह बताने का प्रयास कर रहे हैं कि युद्ध से भागकर वह न केवल अपने कर्तव्य का त्याग करेगा, बल्कि समाज में उसकी प्रतिष्ठा भी क्षीण होगी। श्रीकृष्ण के अनुसार, युद्ध से विमुख होना एक क्षत्रिय के लिए सबसे बड़ा अपमान है, विशेषकर जब वह धर्म की रक्षा हेतु संग्राम कर रहा हो।

श्रीकृष्ण ने ‘अवाच्य‘ और ‘निन्दन्त‘ जैसे शब्दों का प्रयोग किया है। इन शब्दों का अर्थ स्पष्ट रूप से यह दर्शाता है कि शत्रु उसे ‘नपुंसक’ और ‘लाचार’ कहेंगे। वे कहेंगे कि वह भयभीत होकर भाग गया, जिससे उसकी बहादुरी और वीरता का मजाक बन जाएगा। श्रीकृष्ण के अनुसार, एक योद्धा के लिए आत्मसम्मान और सम्मान का स्थान सर्वोपरि है, और किसी के कटु वचन उसकी आत्मा को गहरे आघात पहुंचा सकते हैं।

अर्जुन की स्थिति और शत्रुओं का उपहास


श्रीकृष्ण जानते थे कि अर्जुन का मन युद्ध के प्रति उदासीन हो चुका है, लेकिन वह यह भी समझते हैं कि अर्जुन के आत्मसम्मान का ह्रास उसके लिए मानसिक कष्ट का कारण बनेगा। शत्रु उसका उपहास करेंगे, और उसे तिरस्कार के शब्दों से संबोधित करेंगे, जिससे उसकी छवि पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। शत्रु न केवल उसकी सामर्थ्य पर प्रश्नचिह्न लगाएंगे, बल्कि उसे कमजोर मानकर अपमानित करेंगे।

अर्जुन के लिए श्रीकृष्ण का परामर्श


श्रीकृष्ण अर्जुन को यह समझाते हैं कि अपमान से बचने का एकमात्र मार्ग यह है कि वह अपने कर्तव्य का पालन करे और अपनी वीरता का प्रदर्शन करे। यदि वह युद्ध से विमुख होता है, तो उसके शत्रु उसकी इस कमजोरी का लाभ उठाएंगे और उसे समाज में तुच्छ समझा जाएगा। इसलिए, उसे अपने धर्म और कर्तव्य का पालन करना चाहिए और रणभूमि में युद्ध करने के लिए प्रेरित रहना चाहिए।

श्लोक का गहरा सन्देश


इस श्लोक के माध्यम से श्रीकृष्ण हमें यह सिखाते हैं कि आत्मसम्मान और कर्तव्य के प्रति निष्ठा हमारे लिए कितनी महत्वपूर्ण है। अर्जुन के प्रति कहे गए इन शब्दों में हर व्यक्ति के लिए यह संदेश है कि हमें अपने आत्मसम्मान को बचाए रखने के लिए, अपने सामर्थ्य और कर्तव्यों का पालन करना चाहिए। समाज में सम्मान की रक्षा के लिए हमें अपनी कमजोरियों से लड़ने का साहस होना चाहिए और सच्चाई के मार्ग पर चलते हुए अपने लक्ष्य की प्राप्ति करनी चाहिए।

मुख्य बिंदु:

  • युद्ध से पलायन के दुष्परिणाम: अर्जुन के शत्रु उसे कायर और कमजोर समझेंगे।
  • सम्मान की महत्ता: आत्मसम्मान की रक्षा का संकल्प और वीरता का प्रदर्शन आवश्यक है।
  • कर्तव्य पालन का महत्व: श्रीकृष्ण अर्जुन को कर्तव्य-पालन का मार्ग अपनाने की प्रेरणा देते हैं।
  • जीवन का सन्देश: सम्मान और आत्मसम्मान की रक्षा हमें कर्तव्य पथ पर दृढ़ रखती है।

निष्कर्ष


भगवान श्रीकृष्ण ने इस श्लोक में अर्जुन को स्पष्ट रूप से समझाया है कि शत्रुओं के कटु वचन और अपमानजनक टिप्पणियाँ किसी भी व्यक्ति के आत्मसम्मान को ठेस पहुंचा सकती हैं। यह श्लोक सभी के लिए यह सन्देश देता है कि हमें अपने आत्मसम्मान की रक्षा हेतु अपने कर्तव्यों का निष्ठापूर्वक पालन करना चाहिए, क्योंकि आत्मसम्मान से बड़ा सुख और अपमान से बड़ा दुःख कुछ नहीं होता।

Resources : श्रीमद्भागवत गीता यथारूप – बक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद, गीता प्रेस

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