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Bhagavad Gita Chapter 2 Verse-Shloka 27 – गीता अध्याय 2 श्लोक 27 अर्थ सहित – जातस्य हि ध्रुवो मृत्युध्रुवं…..

श्रीमद् भागवत गीता अध्याय 2 श्लोक 27 (Bhagavad Gita Chapter 2 Verse 27 in Hindi): भगवद गीता का अध्याय 2, श्लोक 27(Bhagwat Geeta Chapter 2 Shlok 27), हमें जीवन और मृत्यु के अटल सत्य का बोध कराता है। इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को यह समझाने का प्रयास करते हैं कि जो भी व्यक्ति जन्म लेता है, उसकी मृत्यु निश्चित है, और मृत्यु के बाद पुनर्जन्म भी तय है। अर्जुन को यह समझने की आवश्यकता है कि जीवन के इस अनिवार्य चक्र में शोक और भय के लिए कोई स्थान नहीं है। यह श्लोक हमें यह सिखाता है कि जीवन में कठिन परिस्थितियों का सामना करते हुए हमें अपने कर्तव्यों का पालन करना चाहिए, चाहे परिणाम कुछ भी हो।

श्रीमद् भागवत गीता अध्याय 2 श्लोक 27 (Bhagavad Gita Chapter 2 Verse 27)

गीता अध्याय 2 श्लोक 27 अर्थ सहित (Gita Chapter 2 Verse 27 in Hindi with meaning)

गीता अध्याय 2 श्लोक 27 अर्थ सहित (Gita Chapter 2 Verse 27 in Hindi with meaning) | Festivalhindu.com
Gita Chapter 2 Verse 27 in Hindi

श्लोक 2.27:

जातस्य हि ध्रुवो मृत्युध्रुवं जन्म मृतस्य च।
तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि।। २७।।

श्लोक 2.27 का भावार्थ

जातस्य – जन्म लेने वाले की; हि – निश्चय ही; ध्रुवः – तथ्य है; मृत्युः – मृत्यु; ध्रुवम् – यह भी तथ्य है; जन्म – जन्म; मृतस्य – मृत प्राणी का; च – भी; तस्मात् – अतः; अपरिहार्ये – जिससे बचा न जा सके, उसका; अर्थे – के विषय में; न – नहीं; त्वम् – तुम; शोचितुम् – शोक करने के लिए; अर्हसि – योग्य हो |

जिसने जन्म लिया है उसकी मृत्यु निश्चित है और मृत्यु के पश्चात् पुनर्जन्म भी निश्चित है | अतः अपने अपरिहार्य कर्तव्यपालन में तुम्हें शोक नहीं करना चाहिए |


भगवान श्रीकृष्ण इस श्लोक में कहते हैं कि जिसने जन्म लिया है उसकी मृत्यु निश्चित है, और मृत्यु के पश्चात् पुनर्जन्म भी निश्चित है। इस सत्य को कोई टाल नहीं सकता। इसलिए, अर्जुन को अपने कर्तव्यों के पालन में शोक नहीं करना चाहिए। जीवन में कुछ घटनाएं ऐसी होती हैं, जिन्हें कोई भी व्यक्ति बदल नहीं सकता। ऐसे अटल सत्य के विषय में चिंता या शोक करना व्यर्थ है।

यह श्लोक हमें यह सिखाता है कि हमें अपने जीवन के अपरिहार्य घटनाओं को स्वीकार करना चाहिए और उन पर शोक करने के बजाय अपने कर्तव्यों पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। अर्जुन को यह उपदेश दिया जा रहा है कि वह युद्ध के मैदान में अपने स्वजनों की मृत्यु को लेकर दुखी न हो, क्योंकि यह संसार का नियम है – जन्म के साथ मृत्यु जुड़ी हुई है और मृत्यु के बाद पुनर्जन्म भी निश्चित है।

तात्पर्य


भगवद गीता का यह श्लोक हमें जीवन और मृत्यु के बीच के अनिवार्य चक्र को समझने में मदद करता है। मनुष्य को अपने कर्मों के अनुसार जन्म ग्रहण करना होता है और एक कर्म-अवधि समाप्त होने पर उसे मरना होता है, जिससे वह दूसरे जन्म की ओर बढ़ सके। यह चक्र तब तक चलता रहता है जब तक व्यक्ति मोक्ष प्राप्त नहीं कर लेता।

इस श्लोक के अनुसार, जीवन और मृत्यु के इस चक्र से बचना संभव नहीं है। भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि मृत्यु के बाद पुनर्जन्म सुनिश्चित है और यह चक्र तब तक चलता रहेगा जब तक आत्मा मुक्ति प्राप्त नहीं करती। इसलिए, अर्जुन को अपने कर्तव्य से विचलित होने की आवश्यकता नहीं है।

जीवन-मृत्यु के अटल सत्य का गहरा अर्थ

  1. जन्म और मृत्यु का चक्र:
    यह श्लोक हमें यह समझाता है कि जन्म और मृत्यु संसार के अटल सत्य हैं। जिस प्रकार जीवन में जन्म होता है, उसी प्रकार मृत्यु भी निश्चित है। यह संसार का नियम है, जिसे कोई भी बदल नहीं सकता।
  2. कर्तव्यपालन में शोक नहीं:
    जब कोई कार्य अपरिहार्य हो, तो उसमें शोक या दुख का कोई स्थान नहीं होता। जीवन में हमें कई ऐसे कार्य करने पड़ते हैं, जो कठिन होते हैं, लेकिन उन्हें करने में हमें अपने मन में किसी प्रकार का दुःख नहीं रखना चाहिए। अर्जुन को यह संदेश दिया जा रहा है कि वह अपने कर्तव्यों का पालन करते समय शोकमुक्त रहे।
  3. धर्म और सत्य का पालन:
    भगवद गीता के इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को यह समझाते हैं कि धर्म और सत्य की रक्षा के लिए हिंसा और युद्ध भी आवश्यक हो सकते हैं। कुरुक्षेत्र के युद्ध में अर्जुन एक क्षत्रिय था और उसका धर्म सत्य के लिए लड़ना था। इसलिए उसे अपने कर्तव्य का पालन करते हुए शोक या भय नहीं होना चाहिए।
  4. आत्मा का अमरत्व:
    इस श्लोक में एक और महत्वपूर्ण संदेश यह है कि आत्मा अमर है। शरीर नश्वर है, परंतु आत्मा कभी नहीं मरती। इसलिए, हमें शोक और दुःख से ऊपर उठकर अपने जीवन के कर्तव्यों का पालन करना चाहिए।

युद्ध का तात्पर्य और कर्तव्य का महत्व


भगवान श्रीकृष्ण के इस उपदेश का मुख्य उद्देश्य अर्जुन को युद्ध के मैदान में मानसिक रूप से मजबूत बनाना था। अर्जुन अपने स्वजनों के साथ युद्ध करने में असमर्थ था और उसे स्वजनों की मृत्यु का भय सता रहा था। ऐसे में भगवान श्रीकृष्ण ने उसे यह समझाया कि युद्ध उसका धर्म है और धर्म की रक्षा के लिए उसे इस कार्य में संकोच नहीं करना चाहिए।

कुरुक्षेत्र का युद्ध धर्म और सत्य की स्थापना के लिए लड़ा जा रहा था। यह युद्ध भगवान की इच्छा थी और इसमें अर्जुन का कर्तव्य सत्य की रक्षा करना था। इसलिए, उसे किसी भी प्रकार का शोक या भय नहीं होना चाहिए।

निष्कर्ष


श्लोक 2.27 जीवन और मृत्यु के अनिवार्य सत्य का परिचायक है। यह श्लोक हमें यह सिखाता है कि हमें अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए शोकमुक्त रहना चाहिए। जीवन और मृत्यु का चक्र अनिवार्य है, और इस सत्य को समझकर हमें अपने धर्म और सत्य की रक्षा के लिए कार्य करते रहना चाहिए।

Resources : श्रीमद्भागवत गीता यथारूप – बक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद, गीता प्रेस

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