श्रीमद् भागवत गीता अध्याय 2 श्लोक 22 (Bhagavad Gita Chapter 2 Verse 22 in Hindi): भगवद्गीता भारतीय दर्शन का वह अनमोल ग्रंथ है, जिसमें जीवन के गूढ़तम प्रश्नों के उत्तर बड़ी सरलता से प्रस्तुत किए गए हैं। श्रीकृष्ण और अर्जुन के संवाद में यह ग्रंथ मानव जीवन के विभिन्न पहलुओं पर विचार करता है। इसका हर श्लोक जीवन को समझने, उसे आत्मसात करने और भौतिक जगत से परे जाकर आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करने की प्रेरणा देता है। इसी संदर्भ में श्लोक 2.22 (Bhagwat Geeta Chapter 2 Shloka 22) शरीर और आत्मा के रिश्ते को स्पष्ट करता है, जिसमें आत्मा की अमरता और शरीर की परिवर्तनशीलता पर जोर दिया गया है। इस श्लोक का महत्व यह है कि यह हमें मृत्यु के बाद आत्मा की यात्रा और उसके अमरत्व को समझने में सहायता करता है।
श्रीमद् भागवत गीता अध्याय 2 श्लोक 22 (Bhagavad Gita Chapter 2 Verse 22)
गीता अध्याय 2 श्लोक 22 अर्थ सहित (Gita Chapter 2 Verse 22 in Hindi with meaning)
श्लोक का वर्णन
श्लोक 2.22 इस प्रकार है:
वांसासि जीर्णानि यथा विहाय
नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा-
न्यान्यानी संयाति नवानि देही।। 2.22।।
भावार्थ
वासांसि – वस्त्रों को; जीर्णानि – पुराने तथा फटे; यथा – जिस प्रकार; विहाय – त्याग कर; नवानि – नए वस्त्र; गृह्णाति – ग्रहण करता है; नरः – मनुष्य; अपराणि – अन्य; तथा – उसी प्रकार; शरीराणि – शरीरों को; विहाय – त्याग कर; जीर्णानि – वृद्ध तथा व्यर्थ; अन्यानि – भिन्न; संयाति – स्वीकार करता है; नवानि – नये; देही – देहधारी आत्मा |
इस श्लोक का भावार्थ यह है कि जिस प्रकार मनुष्य पुराने और फटे हुए वस्त्रों को त्यागकर नए वस्त्र धारण करता है, उसी प्रकार आत्मा पुराने, नष्ट हो चुके शरीर को छोड़कर नया शरीर धारण करती है। यह परिवर्तन आत्मा के अमरत्व का संकेत है, जबकि शरीर नश्वर और क्षणभंगुर है। यह श्लोक हमें आत्मा और शरीर के बीच का संबंध समझने में मदद करता है, जहाँ शरीर सिर्फ आत्मा का बाहरी आवरण है, जिसे आत्मा समय-समय पर त्यागकर नए शरीर में प्रवेश करती है।
श्लोक का गहन तात्पर्य
भगवद्गीता के इस श्लोक में आत्मा की अमरता और शरीर के नाशवान होने का सिद्धांत प्रतिपादित किया गया है। यह श्लोक हमें यह सिखाता है कि जिस प्रकार हम पुराने वस्त्रों को त्यागकर नए वस्त्र धारण करते हैं, उसी प्रकार आत्मा भी एक शरीर को त्यागकर नए शरीर में प्रवेश करती है।
आधुनिक विज्ञान भी यह मानता है कि शरीर समय के साथ बदलता है, परंतु आत्मा के अस्तित्व को नहीं मानता। फिर भी, वैज्ञानिक इस बात को स्वीकारते हैं कि शरीर बाल्यकाल से कौमार्यावस्था, युवावस्था और फिर वृद्धावस्था तक लगातार परिवर्तित होता रहता है। मृत्यु के बाद यह परिवर्तन दूसरे शरीर में स्थानांतरित हो जाता है। श्लोक 2.13 में इस बात की पहले ही चर्चा की जा चुकी है, जिसमें आत्मा के एक शरीर से दूसरे शरीर में जाने का संकेत दिया गया है।
आत्मा का शरीर परिवर्तन भगवान की कृपा से संभव होता है। परमात्मा अणु-आत्मा की इच्छाओं की पूर्ति उसी प्रकार करते हैं, जैसे एक मित्र दूसरे की इच्छाओं को पूरा करता है। मुण्डक और श्वेताश्वतर उपनिषदों में आत्मा और परमात्मा की तुलना दो मित्र पक्षियों से की गई है। इन दोनों पक्षियों में एक आत्मा के रूप में है, जो संसार के भौतिक फलों का उपभोग कर रही है, और दूसरा परमात्मा के रूप में, जो साक्षी बनकर देख रहा है। आत्मा उस पक्षी की तरह है, जो संसार के जाल में फंसी है, जबकि परमात्मा उस पक्षी की तरह है, जो आत्मा की हर गतिविधि का निरीक्षण करता है और उसकी मुक्ति का मार्गदर्शन करता है।
जीवन-मृत्यु का चक्र
यह श्लोक इस सच्चाई को प्रकट करता है कि मृत्यु अंत नहीं है, बल्कि आत्मा की यात्रा का एक नया चरण है। आत्मा जन्म-मृत्यु के चक्र में बंधी होती है, और यह चक्र तब तक चलता रहता है जब तक आत्मा मोक्ष प्राप्त नहीं कर लेती। मृत्यु केवल शरीर का अंत है, आत्मा का नहीं। यह आत्मा के नित्य और अमर होने का प्रमाण है। जिस प्रकार हम एक पुराने वस्त्र को छोड़कर नया वस्त्र धारण करते हैं, ठीक उसी प्रकार आत्मा पुराने शरीर को त्यागकर नया शरीर प्राप्त करती है।
आधुनिक जीवन में भी, जब हम मृत्यु को शोक और दु:ख का कारण मानते हैं, तो इस श्लोक का संदेश हमें याद दिलाता है कि आत्मा अमर है, और यह केवल अपने पुराने आवरण से मुक्त होकर नए आवरण में प्रवेश करती है। इसलिए मृत्यु को दु:ख का विषय नहीं बनाना चाहिए, बल्कि इसे आत्मा की नयी यात्रा का प्रारंभ मानना चाहिए।
आत्मा और परमात्मा का शाश्वत संबंध
इस श्लोक के माध्यम से भगवद्गीता हमें आत्मा और परमात्मा के शाश्वत संबंध को समझने का अवसर देती है। उपनिषदों में जिस प्रकार आत्मा और परमात्मा को दो मित्रों के रूप में वर्णित किया गया है, यह वही संबंध है जिसे श्रीकृष्ण और अर्जुन के बीच देखा जा सकता है। कृष्ण अर्जुन के मार्गदर्शक हैं, और अर्जुन उनके ज्ञान के शिष्य हैं। इसी तरह आत्मा भी अपने परम मित्र परमात्मा की शरण में जाकर ही मुक्ति प्राप्त कर सकती है।
आत्मा का यह स्थानांतरण, जो एक शरीर से दूसरे में होता है, तब तक चलता रहता है, जब तक आत्मा अपने परमात्मा की शरण में जाकर उसे पहचान नहीं लेती। जैसे ही आत्मा अपने शाश्वत मित्र परमात्मा की शरण में आती है, वह सभी प्रकार की चिंताओं और शोकों से मुक्त हो जाती है। उपनिषदों में यह बात स्पष्ट रूप से कही गई है कि जब आत्मा अपने मित्र परमात्मा की महिमा को जान लेती है, तो वह संसार के सारे दु:खों और चिंताओं से मुक्त हो जाती है।
धर्मयुद्ध का महत्व
श्रीकृष्ण अर्जुन को यह भी उपदेश देते हैं कि उन्हें अपने पितामह और गुरु की मृत्यु पर शोक नहीं करना चाहिए, बल्कि धर्मयुद्ध में उनके शरीरों के वध से प्रसन्न होना चाहिए। क्योंकि धर्मयुद्ध में जो व्यक्ति अपने प्राणों का बलिदान करता है, वह सभी शारीरिक पापों से मुक्त होकर उच्च लोकों की प्राप्ति करता है। इसीलिए अर्जुन का शोक करना उचित नहीं है।
श्लोक 2.22 से प्रमुख शिक्षाएँ
- आत्मा अजर-अमर है – शरीर नश्वर है, लेकिन आत्मा अमर और अविनाशी है।
- जीवन-मृत्यु का चक्र – आत्मा पुराने शरीर को त्यागकर नया शरीर धारण करती है।
- शोक का कोई स्थान नहीं – मृत्यु के बाद आत्मा का अस्तित्व बना रहता है, इसलिए शोक करने का कोई कारण नहीं है।
- धर्मयुद्ध का महत्व – अर्जुन को यह सिखाया गया कि धर्मयुद्ध में मृत्यु से मुक्ति और उच्च लोक की प्राप्ति होती है।
निष्कर्ष
भगवद्गीता का श्लोक 2.22 हमें आत्मा की अमरता और शरीर की नश्वरता का अद्भुत ज्ञान प्रदान करता है। यह श्लोक हमें जीवन और मृत्यु के चक्र को समझने का अवसर देता है, और हमें यह सिखाता है कि मृत्यु केवल शरीर का अंत है, आत्मा का नहीं। आत्मा अमर और अविनाशी है, और यह एक शरीर से दूसरे शरीर में तब तक प्रवेश करती रहती है, जब तक कि वह परमात्मा की शरण में जाकर मोक्ष प्राप्त नहीं कर लेती। जीवन के इस शाश्वत सत्य को समझकर हम जीवन में आने वाले शोक और दु:ख से परे जाकर, आत्मज्ञान की ओर अग्रसर हो सकते हैं।
Resources : श्रीमद्भागवत गीता यथारूप – स्वामी प्रभुपाद, गीता प्रेस