श्रीमद् भागवत गीता अध्याय 2 श्लोक 16 (Bhagavad Gita Chapter 2 Verse 16 in Hindi): भगवद्गीता, जो कि महाभारत के भीष्म पर्व का एक हिस्सा है, विश्वभर में एक अत्यंत महत्वपूर्ण धार्मिक ग्रंथ के रूप में प्रतिष्ठित है। इसमें भगवान श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को दिए गए उपदेशों का संग्रह है, जिसमें जीवन, मृत्यु, धर्म, और कर्तव्य के गूढ़ रहस्यों को समझाया गया है। गीता के श्लोक 2.16 (Bhagavad Gita Chapter 2 Shloka 16) में भगवान श्रीकृष्ण ने आत्मा और शरीर के बीच के अंतर को स्पष्ट करते हुए जीवन के शाश्वत सत्य को प्रकट किया है।
श्रीमद् भागवत गीता अध्याय 2 श्लोक 16 (Bhagavad Gita Chapter 2 Verse 16)
गीता अध्याय 2 श्लोक 16 अर्थ सहित (Geeta Chapter 2 Verse 16 in Hindi with meaning)
श्लोक 2.16 का पाठ
श्लोक:
नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः।
उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः।।
न – नहीं; असतः – असत् का; विद्यते – है; भावः – चिरस्थायित्व; न – कभी नहीं; अभावः – परिवर्तनशील गुण; विद्यते – है; सतः – शाश्र्वत का; उभयोः – दोनो का; अपि – ही; दृष्टः – देखा गया; अन्तः – निष्कर्ष; तु – निस्सन्देह; अनयोः – इनक; तत्त्व – सत्य के; दर्शिभिः – भविष्यद्रष्टा द्वारा |
इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को संबोधित करते हुए कहते हैं कि असत् का कभी भी अस्तित्व नहीं होता और सत् का कभी भी अभाव नहीं होता। यह सत्य तत्त्वदर्शियों द्वारा अनुभव किया गया है, जिन्होंने असत् और सत् की प्रकृति का गहन अध्ययन किया है।
श्लोक का भावार्थ
भगवान श्रीकृष्ण इस श्लोक के माध्यम से हमें यह समझाना चाहते हैं कि इस संसार में जो कुछ भी भौतिक और परिवर्तनशील है, वह असत् है। इसका कोई स्थायित्व नहीं है और यह नष्ट हो जाने वाला है। इसके विपरीत, जो कुछ शाश्वत और अपरिवर्तनीय है, वह सत् है, और इसका अस्तित्व हमेशा बना रहता है। यहाँ पर असत् से तात्पर्य भौतिक शरीर और भौतिक वस्त्रों से है, जबकि सत् से तात्पर्य आत्मा और उसकी शाश्वतता से है।
आत्मा और शरीर का भेद
भगवद्गीता के इस श्लोक का मुख्य उद्देश्य आत्मा और शरीर के बीच के अंतर को स्पष्ट करना है। श्रीकृष्ण के अनुसार, शरीर असत् है क्योंकि यह परिवर्तनशील और नाशवान है। शरीर नित्य परिवर्तनशील है और इसके विभिन्न अंग-प्रत्यंग समय के साथ बदलते रहते हैं। शरीर की कोशिकाएँ निरंतर मरती और पैदा होती रहती हैं, और इस प्रक्रिया के परिणामस्वरूप शरीर की अवस्था बदलती रहती है। इसी कारण शरीर वृद्धावस्था और अंततः मृत्यु का सामना करता है।
दूसरी ओर, आत्मा सत् है। आत्मा का कोई परिवर्तन नहीं होता, और यह सदा के लिए स्थायी और शाश्वत है। आत्मा कभी भी नष्ट नहीं होती और न ही इसका कोई विनाश संभव है। यह शरीर के अंदर रहते हुए भी उसके परिवर्तनों से अछूती रहती है। आत्मा का यह शाश्वत स्वरूप ही जीवन का वास्तविक सत्य है, जिसे तत्त्वदर्शियों ने अनुभव किया है।
तत्त्वदर्शियों की दृष्टि से सत्य
तत्त्वदर्शी वे ज्ञानी होते हैं, जिन्होंने सत्य के वास्तविक स्वरूप को समझा और अनुभव किया होता है। वे जानते हैं कि असत् और सत् दोनों का अस्तित्व इस संसार में है, लेकिन इन दोनों की प्रकृति एक-दूसरे से बिल्कुल भिन्न है। तत्त्वदर्शियों के अनुसार:
- असत् का कोई स्थायित्व नहीं: असत्, अर्थात जो अस्थायी और भौतिक है, उसका कोई स्थायित्व नहीं होता। यह वस्तुएं समय के साथ नष्ट हो जाती हैं और इनका कोई शाश्वत अस्तित्व नहीं है।
- सत् का अभाव नहीं: सत्, अर्थात आत्मा या शाश्वत सत्य, का कभी भी अभाव नहीं हो सकता। यह सदा विद्यमान रहता है और इसका कोई विनाश नहीं होता।
विज्ञान और अध्यात्म का मिलन
आधुनिक विज्ञान भी शरीर के परिवर्तनशील स्वरूप को स्वीकार करता है। वैज्ञानिक अनुसंधान के अनुसार, शरीर की कोशिकाएँ निरंतर मरती और नई कोशिकाएँ पैदा होती हैं। यह प्रक्रिया शरीर के निरंतर परिवर्तन का कारण बनती है। लेकिन विज्ञान आत्मा के अस्तित्व को नहीं मानता, जबकि अध्यात्मिक दृष्टिकोण में आत्मा का स्थान सर्वोपरि है।
अध्यात्मिक दृष्टिकोण से, आत्मा शाश्वत और अपरिवर्तनीय है। यह शरीर के नाश होने पर भी समाप्त नहीं होती, बल्कि एक नए शरीर में प्रविष्ट होकर पुनः जन्म लेती है। यह आत्मा का अनंत और शाश्वत स्वरूप है, जो जीवन के चक्र को निरंतर बनाए रखता है।
आध्यात्मिक चेतना का विकास
भगवद्गीता के इस श्लोक का गहन अध्ययन हमें आत्मा के वास्तविक स्वरूप को समझने में मदद करता है। इससे हमें यह बोध होता है कि हम सिर्फ यह शरीर नहीं हैं, बल्कि आत्मा हैं, जो शाश्वत और अविनाशी है। जब हम इस सत्य को समझते हैं, तो हमारी चेतना का विकास होता है, और हम जीवन के प्रति अपने दृष्टिकोण को बदलते हैं।
आत्मा के इस सत्य को समझकर हम जीवन के नित्य परिवर्तनशील और अस्थायी वस्त्रों में उलझने से बच सकते हैं। इससे हमें जीवन की वास्तविकता का बोध होता है और हम अपने कर्तव्यों को निर्विकार भाव से निभा सकते हैं। आत्मा के इस शाश्वत स्वरूप को समझकर हम भगवान के साथ अपने शाश्वत संबंध को पहचान सकते हैं और मोक्ष की ओर अग्रसर हो सकते हैं।
निष्कर्ष
श्लोक 2.16 हमें यह सिखाता है कि शरीर और संसार की भौतिक वस्तुएं असत् हैं, जिनका कोई स्थायित्व नहीं होता। इसके विपरीत, आत्मा सत् है, जो शाश्वत और अपरिवर्तनीय है। इस सत्य को समझकर हम जीवन के वास्तविक उद्देश्य को पहचान सकते हैं और आत्मा के शाश्वत स्वरूप को आत्मसात कर सकते हैं।
भगवद्गीता के इस अद्वितीय श्लोक से हमें यह ज्ञान मिलता है कि शरीर अस्थायी है और आत्मा शाश्वत। इस ज्ञान से हम जीवन के प्रति अपने दृष्टिकोण को बदल सकते हैं और आत्मा की अनंतता का अनुभव कर सकते हैं। इससे हमारा जीवन शांति, संतोष, और आनंद से परिपूर्ण हो सकता है।
Resources : श्रीमद्भागवत गीता यथारूप – बक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद, गीता प्रेस