श्रीमद् भागवत गीता अध्याय 2 श्लोक 14 (Bhagavad Gita Chapter 2 Verse 14 in Hindi): श्रीमद्भगवद्गीता में निहित ज्ञान के अनेक श्लोक जीवन के विभिन्न पहलुओं पर महत्वपूर्ण शिक्षाएँ प्रदान करते हैं। इन्हीं में से एक श्लोक 2.14(Bhagavad Gita Chapter 2 Verse 14) है, जिसमें भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को जीवन के सुख-दुःख और शीत-उष्णता के अनुभवों को लेकर गहरी सीख दी है। इस श्लोक में श्रीकृष्ण ने यह समझाने का प्रयास किया है कि जैसे शीत और उष्णता आते-जाते रहते हैं, वैसे ही सुख और दुःख भी जीवन में क्षणिक रूप से आते-जाते रहते हैं। यह श्लोक हमें यह सिखाता है कि जीवन के इन अनिश्चित अनुभवों को हमें धैर्यपूर्वक सहन करना चाहिए और अपने कर्तव्यों का निर्वाह करते रहना चाहिए।
श्रीमद् भागवत गीता अध्याय 2 श्लोक 14 (Bhagavad Gita Chapter 2 Verse 14)
गीता अध्याय 2 श्लोक 14 अर्थ सहित (Geeta Chapter 2 Verse 14 in Hindi with meaning)
श्लोक:
मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः |
अगामापायिनोSनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत || १४ ||
भावार्थ
मात्रा-स्पर्शाः – इन्द्रियविषय; तु – केवल; कौन्तेय – हे कुन्तीपुत्र; शीत – जाड़ा; उष्ण – ग्रीष्म; सुख – सुख; दुःख – तथा दुख; दाः – देने वाले; आगम – आना; अपायिनः – जाना; अनित्याः – क्षणिक; तान् – उनको; तितिक्षस्व – सहन करने का प्रयत्न करो; भारत – हे भरतवंशी |
हे कुन्तीपुत्र! सुख तथा दुःख का क्षणिक उदय तथा कालक्रम में उनका अन्तर्धान होना सर्दी तथा गर्मी की ऋतुओं के आने-जाने के समान है। हे भरतवंशी! वे इन्द्रियबोध से उत्पन्न होते हैं और मनुष्य को चाहिए कि अविचल भाव से उनको सहन करना सीखे।
श्लोक का अर्थ और व्याख्या (Bhagavad Gita Chapter 2 Verse 14 Explanation in Hindi)
श्रीकृष्ण अर्जुन को इस श्लोक में यह समझाने की कोशिश कर रहे हैं कि जीवन में आने वाले सुख और दुःख का प्रभाव उतना ही क्षणिक होता है जितना कि शीत और उष्णता का अनुभव। जिस प्रकार सर्दी के बाद गर्मी और गर्मी के बाद सर्दी आती है, उसी प्रकार जीवन में सुख और दुःख भी आते-जाते रहते हैं। इस प्रकार के अनुभव हमारे इन्द्रियों के संपर्क से उत्पन्न होते हैं और समय के साथ खत्म हो जाते हैं। इसलिए, व्यक्ति को चाहिए कि वह धैर्यपूर्वक इन अनुभवों को सहन करे और अपने कर्तव्यों का पालन करता रहे।
यह श्लोक जीवन के उन अनिवार्य तत्वों पर प्रकाश डालता है, जिनका सामना हर मनुष्य को करना पड़ता है। चाहे वह सुख हो या दुःख, गर्मी हो या सर्दी, ये सभी अनुभव हमें अपने जीवन में महसूस होते हैं। ये अनुभव न केवल शारीरिक होते हैं, बल्कि मानसिक और भावनात्मक भी होते हैं। लेकिन, श्रीकृष्ण का यह संदेश है कि हमें इन अनुभवों से विचलित नहीं होना चाहिए, बल्कि धैर्यपूर्वक उनका सामना करना चाहिए।
तात्पर्य और जीवन में उपयोगिता
श्लोक 2.14 के तात्पर्य से हमें जीवन के कई महत्वपूर्ण सबक मिलते हैं जो हमारे व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन को सुदृढ़ बनाने में सहायक हो सकते हैं। निम्नलिखित बिंदुओं पर विचार करें:
- क्षणिकता का अनुभव:
सुख और दुःख दोनों ही क्षणिक होते हैं। जिस प्रकार मौसम बदलते रहते हैं, वैसे ही जीवन में भी सुख और दुःख के अनुभव बदलते रहते हैं। हमें यह समझना चाहिए कि कोई भी स्थिति स्थायी नहीं होती। जैसे सर्दी के बाद गर्मी और गर्मी के बाद सर्दी आती है, वैसे ही सुख और दुःख भी हमारे जीवन में आते-जाते रहते हैं। इस सत्य को समझकर हम अपने जीवन के हर अनुभव को सहजता से स्वीकार कर सकते हैं। - धैर्य का महत्व:
जीवन में धैर्य का अत्यधिक महत्व है। सुख और दुःख के क्षणिक अनुभवों को धैर्यपूर्वक सहन करना ही एक सच्चे मनुष्य की पहचान है। जब हम धैर्य रखते हैं, तब ही हम जीवन की कठिनाइयों का सामना करने में सक्षम होते हैं। धैर्य हमें मानसिक और भावनात्मक रूप से मजबूत बनाता है और हमें अपने लक्ष्यों की ओर बढ़ने में मदद करता है। - कर्तव्य-निर्वाह:
मनुष्य का परम धर्म अपने कर्तव्यों का निर्वाह करना है, चाहे परिस्थितियाँ कैसी भी हों। जीवन में सुख और दुःख के अनुभवों के बावजूद, हमें अपने कर्तव्यों से विमुख नहीं होना चाहिए। जैसे एक गृहिणी भीषण गर्मी में भी अपने परिवार के लिए भोजन तैयार करती है और एक धार्मिक व्यक्ति ठंड के मौसम में भी नियमों का पालन करते हुए स्नान करता है, वैसे ही हमें भी अपने कर्तव्यों का निर्वाह करना चाहिए। - विरासत का आदर:
इस श्लोक में अर्जुन को “कौन्तेय” और “भारत” कहकर संबोधित किया गया है, जो उसकी मातृकुल और पितृकुल की महान विरासत को दर्शाता है। इस विरासत के कारण अर्जुन पर कर्तव्यों का निर्वाह करने की जिम्मेदारी आती है। यह हमें सिखाता है कि हमें अपनी विरासत का आदर करना चाहिए और अपने कर्तव्यों को निष्ठापूर्वक निभाना चाहिए। यह हमारी पहचान और हमारी जिम्मेदारियों का प्रतीक है। - आध्यात्मिक दृष्टिकोण:
इस श्लोक में यह भी स्पष्ट किया गया है कि ज्ञान और भक्ति के मार्ग पर चलते हुए मनुष्य अपने आपको माया के बंधनों से मुक्त कर सकता है। जीवन के क्षणिक सुख और दुःख केवल माया के भ्रम हैं, और सच्ची मुक्ति केवल आध्यात्मिक ज्ञान और भक्ति से ही प्राप्त की जा सकती है। इस दृष्टिकोण से, हमें जीवन के अनुभवों को गहराई से समझने और आत्मिक उन्नति की ओर अग्रसर होने का प्रयास करना चाहिए।
निष्कर्ष
श्रीमद्भगवद्गीता का यह श्लोक जीवन के गहरे सत्य को प्रकट करता है। सुख और दुःख, शीत और उष्णता की तरह, जीवन में क्षणिक हैं। इस सच्चाई को समझकर, हमें अपने जीवन में आने वाले सभी अनुभवों को धैर्यपूर्वक सहन करने की कला सीखनी चाहिए। अपने कर्तव्यों का निर्वाह करते हुए, हमें जीवन के हर पल को स्वीकार करना चाहिए, चाहे वह सुखद हो या दुखद। इस श्लोक का संदेश हमें सिखाता है कि हमें अपने जीवन में स्थिरता, धैर्य और आत्म-संयम बनाए रखना चाहिए। यही जीवन का सच्चा अर्थ है और यही मार्ग हमें ज्ञान और भक्ति की ओर ले जाता है, जिससे हम माया के बंधनों से मुक्त हो सकते हैं और आत्मिक उन्नति प्राप्त कर सकते हैं।
इस श्लोक का महत्व केवल अर्जुन के लिए ही नहीं, बल्कि आज के समय में भी अत्यधिक प्रासंगिक है। जीवन की अनिश्चितताओं के बीच, यह श्लोक हमें मानसिक स्थिरता और आंतरिक शांति प्राप्त करने का मार्ग दिखाता है। जब हम इस श्लोक के अर्थ और तात्पर्य को समझते हैं और उसे अपने जीवन में अपनाते हैं, तो हम अपने जीवन को अधिक संतुलित, स्थिर और अर्थपूर्ण बना सकते हैं। यही इस श्लोक की सच्ची शिक्षा है, जो हमें जीवन के हर अनुभव में धैर्य और समर्पण के साथ आगे बढ़ने की प्रेरणा देती है।
Resources : श्रीमद्भागवत गीता यथारूप – बक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद, गीता प्रेस