श्रीमद् भागवत गीता अध्याय 2 श्लोक 68 (Bhagavad Gita Chapter 2 Verse 68 in Hindi): भगवद्गीता एक ऐसा ग्रंथ है जो मानव जीवन के हर पहलू को समाहित करता है। यह न केवल एक आध्यात्मिक पुस्तक है बल्कि जीवन जीने की कला का सार भी है। गीता का दूसरा अध्याय, “सांख्य योग,” हमें आत्मा, बुद्धि, और इन्द्रिय संयम के महत्व का बोध कराता है। इसी अध्याय के श्लोक 2.68 (Shloka 2.68) में भगवान श्रीकृष्ण ने इन्द्रिय नियंत्रण की अनिवार्यता और इससे होने वाले लाभों की व्याख्या की है। इस लेख में, हम इस श्लोक के भावार्थ, तात्पर्य और जीवन में इसके उपयोग पर चर्चा करेंगे।
श्रीमद् भागवत गीता अध्याय 2 श्लोक 68 (Bhagavad Gita Chapter 2 Verse 68)
गीता अध्याय 2 श्लोक 68 अर्थ सहित (Gita Chapter 2 Verse 68 in Hindi with meaning)
भागवत गीता अध्याय 2 श्लोक 2.68 का पाठ और भावार्थ
श्लोक 2.68
तस्माद्यस्य महाबाहो निगृहीतानि सर्वशः।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।
तस्मात् – अतः; यस्य – जिसकी; महा-बाहो – हे महाबाहु; निगृहीतानि – इस तरह वशिभूत; सर्वशः – सब प्रकार से; इन्द्रियाणि – इन्द्रियों; इन्द्रिय-अर्थेभ्यः – इन्द्रियविषयों से; तस्य – उसकी; प्रज्ञ – बुद्धि; प्रतिष्ठिता – स्थिर |
भावार्थ:
हे महाबाहु! वह व्यक्ति जिसकी इन्द्रियाँ अपने-अपने विषयों से सर्वथा विरत होकर उसके वश में हैं, उसकी बुद्धि स्थिर होती है।
इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण ने इन्द्रियों के संयम को जीवन के लिए अनिवार्य बताया है। यहाँ इन्द्रियों को नियंत्रण में रखना केवल आत्मिक उन्नति के लिए ही नहीं, बल्कि मन और बुद्धि को स्थिर करने के लिए भी आवश्यक है।
इन्द्रिय संयम: जीवन की मूलभूत आवश्यकता
इन्द्रियाँ हमारे जीवन का वह द्वार हैं जिनके माध्यम से हम संसार के विषयों को अनुभव करते हैं। जब ये इन्द्रियाँ अनियंत्रित होती हैं, तो वे मन को भटकाती हैं और बुद्धि को भ्रमित कर देती हैं। इसके परिणामस्वरूप व्यक्ति अपने जीवन के उद्देश्य से दूर हो जाता है।
लेकिन जब इन्द्रियाँ संयमित होती हैं, तो मन शांत रहता है और बुद्धि स्थिर। यही अवस्था आत्मा को उन्नति की ओर ले जाती है।
तात्पर्य: इन्द्रिय संयम का आध्यात्मिक महत्व
भगवान श्रीकृष्ण ने इस श्लोक में यह स्पष्ट किया है कि इन्द्रिय संयम से ही बुद्धि स्थिर होती है। यह स्थिरता केवल मानव प्रयासों से संभव नहीं है, बल्कि इसके लिए आध्यात्मिक साधना आवश्यक है। श्रीकृष्ण के अनुसार, इन्द्रियों को नियंत्रित करने का सबसे सरल और प्रभावी तरीका यह है कि उन्हें भगवान की सेवा में लगा दिया जाए।
इन्द्रियाँ, जब दिव्य कार्यों में व्यस्त होती हैं, तो वे सांसारिक विषयों से विरत हो जाती हैं। इस प्रक्रिया में व्यक्ति न केवल अपने मन को नियंत्रित करता है, बल्कि अपनी बुद्धि को भी दिव्यता की ओर प्रवाहित करता है।
इन्द्रिय संयम की प्रक्रिया
इन्द्रिय संयम प्राप्त करना आसान कार्य नहीं है। यह एक साधना है, जो अनुशासन, आत्मनियंत्रण और गुरु के मार्गदर्शन से संभव है।
1. कृष्णभावनामृत का अभ्यास
भगवान की सेवा और भक्ति में लीन होकर, मनुष्य अपनी इन्द्रियों को वश में रख सकता है। जब इन्द्रियाँ भगवान के नामजप, ध्यान, और पूजा में व्यस्त होती हैं, तो वे सांसारिक आकर्षणों से स्वतः मुक्त हो जाती हैं।
2. गुरु का मार्गदर्शन
प्रामाणिक गुरु के निर्देशन में साधक अपनी इन्द्रियों को नियंत्रित करने का अभ्यास करता है। गुरु हमें यह सिखाते हैं कि कैसे मन को स्थिर रखा जाए और कैसे इन्द्रियों को आत्मा के कल्याण के लिए उपयोग में लाया जाए।
3. आध्यात्मिक ज्ञान का अर्जन
भगवद्गीता, उपनिषद, और अन्य शास्त्रों का अध्ययन मनुष्य को अपने जीवन के उद्देश्य का बोध कराता है। जब बुद्धि दिव्य ज्ञान से प्रेरित होती है, तो इन्द्रियाँ स्वतः नियंत्रित हो जाती हैं।
इन्द्रिय संयम के लाभ
इन्द्रिय संयम का महत्व केवल आध्यात्मिक जीवन तक सीमित नहीं है, बल्कि यह हमारे सांसारिक जीवन में भी अत्यंत उपयोगी है।
- बुद्धि की स्थिरता: जब इन्द्रियाँ वश में होती हैं, तो बुद्धि स्थिर रहती है। यह स्थिरता निर्णय लेने की क्षमता को बढ़ाती है।
- मन की शांति: इन्द्रियों का संयम मन को शांत और स्थिर बनाता है।
- आध्यात्मिक उन्नति: इन्द्रिय संयम व्यक्ति को आत्मज्ञान और मोक्ष की ओर अग्रसर करता है।
- सामाजिक जीवन में सफलता: संयमित व्यक्ति अपने कार्यों में अधिक दक्ष और प्रभावी होता है।
इन्द्रिय संयम की चुनौतियाँ
इन्द्रिय संयम प्राप्त करना कठिन है क्योंकि इन्द्रियाँ सहज रूप से विषयों की ओर आकर्षित होती हैं। जब मनुष्य सांसारिक जीवन में अधिक व्यस्त होता है, तो इन्द्रियों को संयमित करना और भी चुनौतीपूर्ण हो जाता है।
इन चुनौतियों का समाधान
- नियमित ध्यान और प्राणायाम का अभ्यास।
- संतों और प्रबुद्ध व्यक्तियों का संग।
- स्वस्थ और संयमित जीवनशैली।
श्रीकृष्ण का संदेश: आत्मा की स्वतंत्रता
भगवान श्रीकृष्ण इस श्लोक में आत्मा की स्वतंत्रता पर बल देते हैं। जब इन्द्रियाँ वश में होती हैं, तब आत्मा अपने वास्तविक स्वरूप को पहचानती है। मनुष्य अपने कर्मों और विचारों में स्वतंत्र होता है और जीवन के अंतिम लक्ष्य—मोक्ष—की प्राप्ति करता है।
निष्कर्ष
श्रीकृष्ण के इस श्लोक में छिपा संदेश हर युग और हर व्यक्ति के लिए प्रासंगिक है। इन्द्रियों का संयम केवल आध्यात्मिक साधना का हिस्सा नहीं, बल्कि यह एक जीवनशैली है, जो हमें शांति, स्थिरता, और आत्मिक उन्नति की ओर ले जाती है।
इन्द्रियाँ, जब वश में होती हैं, तो वे व्यक्ति को दिव्यता का अनुभव कराती हैं। यही श्रीकृष्ण का उपदेश है—इन्द्रियों को नियंत्रित करें, मन और बुद्धि को स्थिर रखें, और आत्मा के वास्तविक स्वरूप को पहचानें।
“संयम ही आत्मा का प्रकाश है, और यह प्रकाश हमें भगवान की सेवा में समर्पित होकर मिलता है।“
Resources : श्रीमद्भागवत गीता यथारूप – बक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद, गीता प्रेस