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Bhagavad Gita Chapter 2 Verse 67 Shloka | गीता अध्याय 2 श्लोक 67 अर्थ सहित | इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोSनुविधीयते

श्रीमद् भागवत गीता अध्याय 2 श्लोक 67 (Bhagavad Gita Chapter 2 Verse 67 in Hindi): श्रीमद्भगवद्गीता का श्लोक 2.67 एक गहन और प्रेरणादायक संदेश देता है जो मनुष्य के मन और इन्द्रियों की प्रकृति और उनके प्रभावों को समझने में सहायता करता है। इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को यह बताया कि कैसे इन्द्रियां और मन का संयोजन हमारी बुद्धि को विनाश के मार्ग पर ले जा सकता है।

श्रीमद् भागवत गीता अध्याय 2 श्लोक 67 (Bhagavad Gita Chapter 2 Verse 67)

गीता अध्याय 2 श्लोक 67 अर्थ सहित (Gita Chapter 2 Verse 67 in Hindi with meaning)

गीता अध्याय 2 श्लोक 67 अर्थ सहित (Gita Chapter 2 Verse 67 in Hindi with meaning) | Festivalhindu.com
Gita Chapter 2 Verse 67

भागवत गीता अध्याय 2 श्लोक 2.67 और उसका अर्थ

इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोSनुविधीयते |
तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि ||

इन्द्रियाणाम् – इन्द्रियों के; हि – निश्चय ही; चरताम् – विचरण करते हुए; यत् – जिसके साथ; मनः – मन; अनुविधीयते – निरन्तर लगा रहता है; तत् – वह; अस्य – इसकी; हरति – हर लेती है; प्रज्ञाम् – बुद्धि को; वायुः – वायु; नावम् – नाव को; इव – जैसे; अभ्यसि – जल में |

इस श्लोक का अर्थ है कि जैसे प्रचंड वायु पानी में तैरती हुई नाव को बहा ले जाती है, उसी प्रकार विचरण करती हुई इन्द्रियों में से कोई एक, जिस पर मन लगातार लगा रहता है, मनुष्य की बुद्धि को हर लेती है। यह श्लोक हमारी इन्द्रियों, मन और बुद्धि के बीच गहरे संबंध को समझाता है।

मन और इन्द्रियों का स्वभाव

मनुष्य की इन्द्रियां स्वाभाविक रूप से बाहरी विषयों की ओर आकर्षित होती हैं। कठोपनिषद में भी वर्णन है कि भगवान ने हमारी पांच इन्द्रियों को बाहरी दुनिया की ओर केंद्रित बनाया है। इसका परिणाम यह है कि मनुष्य का मन हमेशा बाहरी विषयों में उलझा रहता है।

जब मन इन इन्द्रियों का अनुसरण करता है, तो वह हमें दिव्य मार्ग से दूर कर देता है। यह ठीक वैसा ही है जैसे एक नाव बिना पतवार के पानी की धाराओं के अनुसार बह जाती है। इन्द्रियों के विषय-भोग की यह प्रकृति मनुष्य को स्थिरता और शांति से दूर ले जाती है।

इन्द्रियों की शक्ति का उदाहरण

शास्त्रों में इन्द्रियों की प्रकृति को समझाने के लिए कई दृष्टांत दिए गए हैं।

सूरदास और दृष्टि की आसक्ति
संत सूरदास के जीवन की एक घटना बताती है कि कैसे आंखों की आसक्ति मनुष्य को विचलित कर सकती है। एक बार जब उनकी दृष्टि एक स्त्री पर पड़ी, तो वे अपनी भक्ति से भटक गए। उन्होंने इसे अपनी कमजोरी समझा और भगवान से प्रार्थना की कि उनकी आंखों की शक्ति को हटा लिया जाए ताकि वे अपनी भक्ति में स्थिर रह सकें।

राजा दुष्यंत और शकुंतला
महाभारत की कथा में राजा दुष्यंत अपनी आंखों और कानों के आकर्षण में फंस गए। शकुंतला की सुंदरता और उसकी मधुर वाणी ने उनके मन को मोह लिया, और वे अपने राजधर्म से भटक गए। यह उनकी इन्द्रियों के कारण हुआ, जो उन्हें सत्य के मार्ग से विचलित कर गईं।

अजामिल की पतन कथा
श्रीमद्भागवत महापुराण में अजामिल की कथा इन्द्रियों के प्रभाव को स्पष्ट करती है। एक दिन अजामिल ने अपनी आंखों से एक स्त्री और पुरुष को अनुचित स्थिति में देखा। उस दृश्य ने उनके मन को इतनी गहराई से प्रभावित किया कि वे अपने धार्मिक कर्तव्यों को छोड़कर वासनाओं के अधीन हो गए।

महाभारत का यक्ष प्रश्न
महाभारत में यक्ष प्रश्न के दौरान युधिष्ठिर ने कहा था कि मनुष्य की इच्छाएं कभी समाप्त नहीं होतीं। एक इन्द्रिय की लालसा भी मनुष्य को अंधकारमय जीवन की ओर खींच लेती है।

सावित्री और सत्यवान
सावित्री के पति सत्यवान का जीवन उनकी मृत्यु के समय यमराज ने ले लिया था। यद्यपि सावित्री ने अपनी चतुर बुद्धि और स्थिर मन से अपने पति को वापस पाया, लेकिन यह कथा यह भी दर्शाती है कि इन्द्रियों की दुर्बलता मृत्यु का कारण बन सकती है।

रावण और सीता का हरण
रामायण में रावण का सीता के प्रति आकर्षण उसकी आंखों की इन्द्रिय के कारण था। यह आकर्षण ही उसके विनाश का कारण बना। यदि वह अपनी इन्द्रियों को वश में रखता, तो उसका अंत इतना दुर्भाग्यपूर्ण न होता।

समुद्र मंथन का मोहिनी अवतार
जब समुद्र मंथन के दौरान भगवान विष्णु ने मोहिनी रूप धारण किया, तो देवता और दानव दोनों उसकी सुंदरता में मोहित हो गए। यह कथा दर्शाती है कि इन्द्रियां कितनी शक्तिशाली हो सकती हैं और किस तरह वे बुद्धिमान व्यक्ति को भी विचलित कर सकती हैं।

  • हिरण मधुर संगीत के प्रति आसक्त होता है और शिकारी उसे इसी आकर्षण का लाभ उठाकर मार देता है।
  • मधुमक्खी फूलों की सुगंध और मकरंद में इतनी लीन हो जाती है कि रात में फूल के संकुचित होने पर उसमें फंसकर मर जाती है।
  • मछली भोजन के प्रति लालसा में शिकारी के जाल में फंस जाती है।
  • पतंगा प्रकाश की ओर आकर्षित होकर आग में जल जाता है।
  • हाथी स्पर्श के मोह में फंसकर शिकारी के जाल में गिरकर अपना जीवन गंवा देता है।

जब केवल एक इन्द्रिय का आकर्षण ही इतना विनाशकारी हो सकता है, तो सोचिए, वह व्यक्ति जो सभी पांच इन्द्रियों के विषयों में लिप्त रहता है, उसका क्या होगा।

इन्द्रियों के नियंत्रण का महत्व

इन्द्रियां मनुष्य की शक्तिशाली सेवक हैं, लेकिन जब ये नियंत्रित नहीं होतीं, तो ये जीवन को कठिन बना देती हैं। भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि यदि इन्द्रियां भगवान की सेवा में लगी रहती हैं, तो मन और बुद्धि भी स्वाभाविक रूप से नियंत्रित रहते हैं। यही कारण है कि भक्ति मार्ग को मन और इन्द्रियों को वश में करने का सरल और प्रभावी उपाय माना गया है।

महान भक्त महाराज अम्बरीष ने अपने जीवन में सभी इन्द्रियों को भगवान की सेवा में लगाकर दिखाया कि इन्द्रियों के नियंत्रण से दिव्य स्थिति कैसे प्राप्त होती है।

मन और बुद्धि का संबंध

मनुष्य की बुद्धि उसकी चेतना का केंद्र है। यह सही और गलत में भेद करने में सक्षम होती है। लेकिन जब मन इन्द्रियों के पीछे भागता है, तो बुद्धि अपना स्वाभाविक संतुलन खो देती है। यही कारण है कि मन और बुद्धि के बीच संतुलन बनाए रखना बहुत जरूरी है।

यदि मनुष्य अपनी इन्द्रियों को संयमित नहीं करता, तो ये विषय-भोग के जाल में उसे उलझाकर उसकी बुद्धि को विक्षिप्त कर सकती हैं। भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को इसी खतरे से सचेत किया है।

संयम के उपाय

मन और इन्द्रियों को वश में करने के लिए हमें अभ्यास और वैराग्य को अपनाना चाहिए। अभ्यास का अर्थ है सही दिशा में बार-बार प्रयास करना और वैराग्य का अर्थ है बाहरी विषयों के प्रति अनासक्ति।

  • ध्यान और योग: ध्यान और योग के माध्यम से मन को नियंत्रित किया जा सकता है। योग में शरीर, मन और आत्मा का संतुलन बनाने की क्षमता होती है।
  • भक्ति मार्ग: भक्ति और भगवान की सेवा के प्रति समर्पण मन और इन्द्रियों को नियंत्रित करने का सबसे सरल उपाय है।
  • सत्संग: अच्छे विचारों और ज्ञान का संग मनुष्य को प्रेरित करता है और उसे सत्य के मार्ग पर बनाए रखता है।
  • संयमित जीवनशैली: एक संतुलित और संयमित जीवनशैली इन्द्रियों के भटकाव को रोकती है।

निष्कर्ष

श्रीमद्भगवद्गीता का यह श्लोक हमें यह सिखाता है कि मन और इन्द्रियों पर नियंत्रण के बिना शांति और स्थिरता प्राप्त करना असंभव है। जिस प्रकार नाव प्रचंड वायु के बिना नियंत्रित नहीं रह सकती, उसी प्रकार मनुष्य का जीवन इन्द्रियों के नियंत्रण के बिना स्थिर नहीं रह सकता।

इन्द्रियों के विषय-भोग का त्याग करके, मन और बुद्धि को भगवान की सेवा में समर्पित करना ही एकमात्र उपाय है। यह न केवल मनुष्य को स्थिरता और शांति प्रदान करता है, बल्कि उसे दिव्य मार्ग पर भी अग्रसर करता है। यही गीता का संदेश है और यही जीवन का सार है।

Resources : श्रीमद्भागवत गीता यथारूप – बक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद, गीता प्रेस

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