श्रीमद् भागवत गीता अध्याय 2 श्लोक 66 (Bhagavad Gita Chapter 2 Verse 66 in Hindi): श्रीमद्भगवद्गीता के श्लोक 2.66 में भगवान श्रीकृष्ण ने जीवन के एक गहन सत्य का वर्णन किया है। यह श्लोक जीवन की स्थिरता, शांति, और सुख के बीच के संबंध को स्पष्ट करता है। श्रीकृष्ण ने इस श्लोक के माध्यम से समझाया है कि जब मनुष्य ईश्वर से जुड़ा नहीं होता, तो उसकी बुद्धि अस्थिर हो जाती है, और बिना स्थिरता के न तो शांति प्राप्त होती है और न ही सुख का अनुभव संभव है।
श्रीमद् भागवत गीता अध्याय 2 श्लोक 66 (Bhagavad Gita Chapter 2 Verse 66)
गीता अध्याय 2 श्लोक 66 अर्थ सहित (Gita Chapter 2 Verse 66 in Hindi with meaning)
भागवत गीता अध्याय 2 श्लोक 2.66 का पाठ और अनुवाद
श्लोक:
नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना।
न चाभावयतः शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम्।।
अनुवाद:
जो व्यक्ति ईश्वर से जुड़ा नहीं है, उसमें न तो दिव्य बुद्धि का विकास होता है और न ही उसके मन में स्थिरता होती है। बिना स्थिर मन के शांति संभव नहीं है, और बिना शांति के सुख की कल्पना नहीं की जा सकती।
यह श्लोक हमें यह सिखाता है कि मानसिक स्थिरता और सुख की प्राप्ति के लिए ईश्वर के प्रति समर्पण और उनके साथ संबंध स्थापित करना अत्यंत आवश्यक है।
भागवत गीता अध्याय 2 श्लोक 2.66 का भावार्थ
श्रीकृष्ण के अनुसार, जो व्यक्ति अपनी इन्द्रियों के नियंत्रण में होता है, उसका मन स्थिर नहीं हो सकता। अस्थिर मन व्यक्ति को अशांति की ओर ले जाता है, और जहां अशांति है, वहां सुख का कोई स्थान नहीं हो सकता।
यह श्लोक हमें यह भी समझाता है कि जीवन में स्थायी सुख पाने के लिए आत्म-संयम और ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण आवश्यक है। यदि कोई व्यक्ति केवल भौतिक सुखों और इच्छाओं के पीछे भागता है, तो वह सच्चे सुख से वंचित रह जाता है।
मन की अस्थिरता का कारण
मनुष्य के मन की चंचलता का मुख्य कारण लक्ष्य का अभाव है। जब मनुष्य यह नहीं समझ पाता कि जीवन का अंतिम उद्देश्य क्या है, तो उसका मन इधर-उधर भटकता रहता है। ईश्वर के साथ संबंध स्थापित न होने पर यह भटकाव और अधिक बढ़ जाता है।
भगवान श्रीकृष्ण बताते हैं कि जब मनुष्य यह स्वीकार कर लेता है कि भगवान ही ब्रह्मांड के स्वामी, यज्ञ के भोक्ता और सभी जीवों के सच्चे मित्र हैं, तभी वह मन की चंचलता से मुक्त होकर शांति का अनुभव कर सकता है।
शांति और सुख का गहरा संबंध
शांति और सुख एक-दूसरे से गहराई से जुड़े हुए हैं। शांति के बिना सुख की प्राप्ति असंभव है। लेकिन शांति तभी संभव है जब मनुष्य अपने मन और इन्द्रियों पर नियंत्रण रखे।
जो व्यक्ति केवल भौतिक सुखों और इच्छाओं के पीछे भागता है, वह अपने मन को स्थिर नहीं रख सकता। परिणामस्वरूप, वह न तो शांति का अनुभव कर सकता है और न ही सच्चा सुख प्राप्त कर सकता है।
प्रेरक कथा: मधुमक्खी और कमल का फूल
संस्कृत साहित्य में एक प्रसिद्ध कथा है जो इस श्लोक के महत्व को समझाने में सहायक हो सकती है।
एक मधुमक्खी कमल के फूल पर बैठकर उसका रस चूस रही थी। सूर्यास्त होने के समय फूल की पंखुड़ियां बंद होने लगीं, लेकिन मधुमक्खी ने सोचा कि अभी समय है और वह रस चूसने में व्यस्त रही। अंततः फूल बंद हो गया, और मधुमक्खी उसमें फंस गई।
उसने सोचा कि वह रातभर फूल के अंदर रह लेगी और सुबह बाहर निकल जाएगी। लेकिन तभी एक हाथी आया और उसने कमल के फूल को निगल लिया। इस प्रकार मधुमक्खी अपनी लालसा के कारण अपने जीवन से हाथ धो बैठी।
यह कथा इस बात का प्रतीक है कि यदि हम अपनी इन्द्रियों के अधीन होकर केवल भौतिक सुखों की तलाश करेंगे, तो अंततः हम अपने जीवन के वास्तविक उद्देश्य से भटक जाएंगे और दुख भोगेंगे।
कृष्णभावना और शांति का महत्व
श्रीकृष्ण ने इस श्लोक में जो उपदेश दिया है, उसका सार यह है कि शांति और सुख का वास्तविक स्रोत भगवान के प्रति समर्पण में निहित है।
- जब हम यह स्वीकार कर लेते हैं कि भगवान हमारे जीवन के केंद्र हैं, तो हमारा मन स्थिर हो जाता है।
- स्थिर मन हमें शांति की ओर ले जाता है, और शांति ही सच्चे सुख का आधार है।
इन्द्रिय-नियंत्रण का महत्व
इन्द्रियों को नियंत्रित करना आत्म-शुद्धि का पहला चरण है। यदि व्यक्ति अपनी इन्द्रियों को नियंत्रित नहीं कर सकता, तो वह न तो भगवान का ध्यान कर सकता है और न ही उनकी कृपा प्राप्त कर सकता है।
श्रीकृष्ण का यह श्लोक यह भी समझाता है:
- जो व्यक्ति अपनी इन्द्रियों को नियंत्रित नहीं करता, वह भौतिक इच्छाओं के जाल में फंस जाता है।
- भौतिक इच्छाएं अस्थायी होती हैं और व्यक्ति को अशांति की ओर ले जाती हैं।
संसारिक सुखों की अस्थिरता
संसारिक सुख क्षणिक होते हैं। वे व्यक्ति को थोड़ी देर के लिए तृप्ति दे सकते हैं, लेकिन उनका कोई स्थायी मूल्य नहीं होता। श्रीकृष्ण हमें यह सिखाते हैं कि इन सुखों के पीछे भागने के बजाय, हमें आत्मा के स्थायी सुख की तलाश करनी चाहिए।
मुख्य बिंदु:
- मन और इन्द्रियों का नियंत्रण:
मन की स्थिरता और इन्द्रियों पर नियंत्रण के बिना शांति असंभव है। - कृष्णभावना का महत्व:
जब हम भगवान को अपने जीवन का केंद्र बनाते हैं, तभी हमें सच्ची शांति मिलती है। - सच्चे सुख की प्राप्ति:
सच्चा सुख केवल आत्मा के स्थायी संतोष से ही प्राप्त होता है।
निष्कर्ष
भगवान श्रीकृष्ण ने इस श्लोक के माध्यम से जीवन का एक महत्वपूर्ण सत्य प्रकट किया है। यदि मनुष्य अपने मन और इन्द्रियों को नियंत्रित करता है और भगवान के प्रति समर्पित होता है, तो वह सच्चे सुख और शांति का अनुभव कर सकता है।
यह श्लोक हमें यह भी सिखाता है कि सांसारिक सुखों की अस्थिरता और उनकी क्षणिकता हमें आत्मिक सुख की ओर बढ़ने के लिए प्रेरित करती है। ईश्वर में पूर्ण विश्वास और समर्पण से ही जीवन का वास्तविक उद्देश्य प्राप्त किया जा सकता है।
“ईश्वर में समर्पण ही शांति और सुख का वास्तविक स्रोत है।”
Resources : श्रीमद्भागवत गीता यथारूप – बक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद, गीता प्रेस