श्रीमद् भागवत गीता अध्याय 2 श्लोक 70 (Bhagavad Gita Chapter 2 Verse 70 in Hindi): श्रीमद्भगवद्गीता भारतीय अध्यात्म और दर्शन का अमूल्य ग्रंथ है, जो मनुष्य को जीवन की कठिनाइयों से पार पाने और आत्मा की गहराई में झांकने का मार्ग दिखाता है। गीता का हर श्लोक हमारे जीवन के लिए एक महत्वपूर्ण संदेश लेकर आता है। इसी क्रम में श्लोक 2.70 हमें सिखाता है कि सच्ची शांति कैसे प्राप्त की जा सकती है। यह श्लोक आत्म-संयम, इच्छाओं पर नियंत्रण और जीवन में स्थिरता का प्रतीक है।
श्रीमद् भागवत गीता अध्याय 2 श्लोक 70 (Bhagavad Gita Chapter 2 Verse 70)
गीता अध्याय 2 श्लोक 70 अर्थ सहित (Gita Chapter 2 Verse 70 in Hindi with meaning)
भागवत गीता अध्याय 2 श्लोक 2.70 का मूल पाठ
आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं
समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत्।
तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे
स शान्तिमाप्नोति न कामकामी॥
आपूर्यमाणम् – नित्य परिपूर्ण; अचल-प्रतिष्ठम् – दृढ़ ता पूर्वक स्थित; समुद्र म् – समुद्र में; आपः – नदियाँ; प्रविशन्ति – प्रवेश करती हैं; यद्वतः – जिस प्रकार; तद्वतः – उसी प्रकार; कामाः – इच्छाएँ; यम् – जिसमें; प्रविशन्ति – प्रवेश करती हैं; सर्वे – सभी; सः – वह व्यक्ति; शान्तिम् – शान्ति; आप्नोति – प्राप्त करता है; न – नहीं; काम-कामी – इच्छाओं को पूरा करने का इच्छुक |
इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण ने समुद्र का उदाहरण देते हुए आत्मज्ञानी व्यक्ति की विशेषताओं को स्पष्ट किया है। जैसे समुद्र में अनगिनत नदियाँ प्रवेश करती हैं, फिर भी वह अपनी सीमाओं का अतिक्रमण नहीं करता, उसी प्रकार जो व्यक्ति अपनी इच्छाओं के बावजूद स्थिर और शांत रहता है, वही सच्ची शांति प्राप्त करता है।
भावार्थ और तात्पर्य
इस श्लोक का गूढ़ अर्थ यह है कि मनुष्य को अपनी इच्छाओं के प्रवाह में बहने के बजाय उनसे परे रहना चाहिए। इच्छाएँ स्वाभाविक रूप से हमारे जीवन का हिस्सा हैं, लेकिन जब हम इन्हें नियंत्रित नहीं कर पाते, तो यही इच्छाएँ हमारी अशांति और दुख का कारण बनती हैं।
भगवान श्रीकृष्ण बताते हैं कि जैसे समुद्र में अनवरत जलधाराएँ गिरती रहती हैं, लेकिन वह न तो अपनी सीमा से बाहर बहता है और न ही विक्षुब्ध होता है, उसी प्रकार आत्मज्ञानी व्यक्ति अपनी स्थिरता और संतुलन बनाए रखता है। वह किसी भी भौतिक सुख या वस्तु के लिए लालायित नहीं होता।
आध्यात्मिक दृष्टिकोण
श्रीकृष्ण ने इस श्लोक के माध्यम से यह स्पष्ट किया है कि आत्मा का संतोष और स्थिरता बाहरी वस्तुओं से नहीं, बल्कि भीतर से आती है। मनुष्य जब तक अपनी इच्छाओं को नियंत्रित नहीं करता, तब तक वह सच्ची शांति का अनुभव नहीं कर सकता।
एक आत्मज्ञानी व्यक्ति की विशेषता यह है कि वह भौतिक सुखों की ओर आकर्षित नहीं होता। वह न तो किसी वस्तु की प्राप्ति पर प्रसन्न होता है और न ही उसके अभाव में दुखी। उसकी शांति और संतोष इस संसार की वस्तुओं पर निर्भर नहीं करते।
जीवन में स्थिरता और संतुलन का महत्व
इस श्लोक में दिया गया समुद्र का उदाहरण हमें सिखाता है कि स्थिरता और संतुलन का क्या महत्व है। समुद्र, चाहे कितनी भी नदियाँ उसमें प्रवाहित हों, अपनी गहराई और स्थिरता को बनाए रखता है। इसी तरह, मनुष्य को भी जीवन की चुनौतियों और परिस्थितियों में स्थिर रहना चाहिए।
हमारे जीवन में इच्छाएँ नदियों के समान हैं। ये इच्छाएँ हमें अपने भीतर से विचलित करती हैं और हमारे मन को अशांत कर देती हैं। यदि हम इन इच्छाओं को नियंत्रित करना सीख लें, तो हमारी स्थिति भी समुद्र के समान स्थिर और संतुलित हो सकती है।
श्लोक से मिलने वाले जीवन प्रबंधन के सबक
- इच्छाओं का नियंत्रण: इच्छाएँ हमारी शांति को भंग करती हैं। इन्हें संतुलित और सीमित करना आत्मिक शांति का पहला कदम है।
- आत्मनिर्भरता: सच्ची शांति बाहरी वस्तुओं में नहीं, बल्कि आत्मा की गहराई में है।
- समर्पण का भाव: जब हम भगवान की भक्ति में लीन हो जाते हैं, तो हमारी सभी इच्छाएँ और जरूरतें अपने आप पूरी हो जाती हैं।
तात्कालिक जीवन पर प्रभाव
आज के समय में, जब हर व्यक्ति अधिक से अधिक पाने की होड़ में लगा हुआ है, यह श्लोक हमें आत्मनिरीक्षण करने का अवसर देता है। हमारा समाज इच्छाओं की पूर्ति को सफलता का मापदंड मानता है, लेकिन यह श्लोक हमें सिखाता है कि इच्छाओं की पूर्ति से नहीं, बल्कि इच्छाओं के नियंत्रण से सच्ची शांति प्राप्त होती है।
हम अपने जीवन में भौतिक सुख-सुविधाओं के पीछे भागते रहते हैं और यह भूल जाते हैं कि हमारी आत्मा का सच्चा सुख और संतोष भगवान में है। आत्मज्ञानी व्यक्ति वही है, जो इस सत्य को समझकर अपने जीवन को भगवान की भक्ति और सेवा में समर्पित करता है।
सारांश और निष्कर्ष
श्रीमद्भगवद्गीता का श्लोक 2.70 न केवल हमें आत्म-संयम और इच्छाओं पर नियंत्रण का महत्व सिखाता है, बल्कि यह भी बताता है कि सच्ची शांति और स्थिरता कैसे प्राप्त की जा सकती है।
इस श्लोक में समुद्र को आत्मज्ञानी व्यक्ति के प्रतीक के रूप में प्रस्तुत किया गया है। समुद्र की गहराई और स्थिरता हमें सिखाती है कि जीवन में कितनी भी चुनौतियाँ और इच्छाएँ क्यों न हों, हमें अपनी स्थिति और संतुलन बनाए रखना चाहिए।
भगवान श्रीकृष्ण का यह संदेश हर युग में प्रासंगिक है। यदि हम अपनी इच्छाओं को नियंत्रित करना सीख लें और अपनी आत्मा की शांति को प्राथमिकता दें, तो हम भी समुद्र के समान स्थिर और शांत हो सकते हैं। इस मार्ग पर चलकर ही हम जीवन के वास्तविक अर्थ और पूर्णता को समझ सकते हैं।
“जो अपनी इच्छाओं पर विजय पा लेता है, वही सच्ची शांति का अधिकारी बनता है।”
Resources : श्रीमद्भागवत गीता यथारूप – बक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद, गीता प्रेस