श्रीमद् भागवत गीता अध्याय 1 श्लोक 39 (Bhagwat Geeta adhyay 1 shlok 39 in Hindi): श्लोक “कुल क्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्माः सनातनाः” के भावार्थ को समझते हुए, इस लेख में परिवार की परम्पराओं के महत्व और उनके संरक्षण के तरीकों पर चर्चा की गई है। जानिए कैसे वयोवृद्धों का सम्मान और उनकी उपस्थिति परिवार और समाज की स्थिरता में योगदान देता है।
श्रीमद् भागवत गीता अध्याय 1 श्लोक 39
कुल क्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्माः सनातनाः |
Bhagavad Gita Chapter 1 Verse-Shloka 39
धर्मे नष्टे कुलं कृत्स्नमधर्मोSभिभवत्युत || ३९ ||
गीता अध्याय 1 श्लोक 39 अर्थ सहित

श्लोक:
“कुल क्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्माः सनातनाः |
धर्मे नष्टे कुलं कृत्स्नमधर्मोSभिभवत्युत || ३९ ||“
भावार्थ:
कुल-क्षये – कुल का नाश होने पर; प्रणश्यन्ति – विनष्ट हो जाती हैं; कुल-धर्माः – पारिवारिक परम्पराएँ; सनातनाः – शाश्र्वत; धर्मे – धर्म; नष्टे – नष्ट होने पर; कुलम् – कुल को; कृत्स्नम् – सम्पूर्ण; अधर्मः – अधर्म; अभिभवति – बदल देता है; उत – कहा जाता है |
इस श्लोक का भावार्थ यह है कि जब किसी कुल का नाश होता है, तो उस कुल की शाश्वत परम्पराएँ भी नष्ट हो जाती हैं। परिणामस्वरूप, पूरा कुल अधर्म में प्रवृत्त हो जाता है। यह एक महत्वपूर्ण विषय है जिसे समझना आवश्यक है, विशेषकर हमारे समाज में जहां परिवार और उसकी परम्पराओं का महत्वपूर्ण स्थान है।
कुलधर्म और उनकी आवश्यकता
धार्मिक परम्पराओं के नियम:
- वर्णाश्रम व्यवस्था में धार्मिक परम्पराओं के अनेक नियम होते हैं।
- इन नियमों के पालन से परिवार के सदस्य आध्यात्मिक उन्नति कर सकते हैं।
- यह नियम जन्म से लेकर मृत्यु तक के सभी संस्कारों को शामिल करते हैं।
वयोवृद्धों की भूमिका:
- परिवार में वयोवृद्ध लोग इन परम्पराओं के संरक्षक होते हैं।
- उनकी मृत्यु के पश्चात् संस्कार सम्बन्धी परम्पराएँ रुक सकती हैं।
- युवा पीढ़ी को सही मार्गदर्शन देने के लिए वयोवृद्धों की उपस्थिति आवश्यक होती है।
कुल-क्षय के दुष्परिणाम
अधर्म में प्रवृत्ति:
- परिवार के वयोवृद्धों की मृत्यु के बाद, युवा पीढ़ी अधर्ममय व्यसनों में प्रवृत्त हो सकती है।
- यह स्थिति उन्हें मुक्ति-लाभ से वंचित कर सकती है।
- परिवार की धार्मिक परम्पराएँ टूटने से समाज में भी अधर्म का प्रसार हो सकता है।
परिवार की स्थिरता:
- वयोवृद्धों के बिना परिवार की स्थिरता खतरे में पड़ सकती है।
- युवा पीढ़ी को सही मार्गदर्शन और मूल्य शिक्षा की आवश्यकता होती है।
- पारिवारिक परम्पराएँ और संस्कार परिवार को जोड़ कर रखते हैं।
निष्कर्ष:
परिवार और उसकी परम्पराएँ हमारे समाज का आधार हैं। वयोवृद्धों की भूमिका इन परम्पराओं को बनाए रखने में अत्यंत महत्वपूर्ण होती है। उनके बिना, परिवार अधर्म की ओर प्रवृत्त हो सकता है और समाज में नैतिकता का ह्रास हो सकता है। इसलिए, किसी भी कारणवश परिवार के वयोवृद्धों का वध नहीं होना चाहिए और हमें अपनी पारिवारिक परम्पराओं को सजीव रखने का हरसंभव प्रयास करना चाहिए।
मुख्य बिंदु:
- कुल का नाश होने पर परम्पराएँ नष्ट हो जाती हैं।
- वयोवृद्धों की भूमिका परम्पराओं के संरक्षण में महत्वपूर्ण होती है।
- युवाओं को मार्गदर्शन देने के लिए वयोवृद्धों की उपस्थिति आवश्यक है।
- पारिवारिक परम्पराओं का संरक्षण समाज की नैतिकता के लिए आवश्यक है।
Resources : श्रीमद्भागवत गीता यथारूप – बक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद, गीता प्रेस