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Bhagavad Gita Chapter 1 Verse-Shloka 32, 33, 34, 35 – गीता अध्याय 1 श्लोक 32, 33, 34, 35 अर्थ सहित

श्रीमद् भागवत गीता अध्याय 1 श्लोक 32, 33, 34, 35 (Bhagwat Geeta adhyay 1 shlok 32, 33, 34, 35 in Hindi): महाभारत का युद्ध भारतीय इतिहास की सबसे महान घटनाओं में से एक है। इस युद्ध में नैतिकता, धर्म और कर्तव्य की गहरी समझ को प्रस्तुत किया गया है। अर्जुन और भगवान कृष्ण के बीच हुआ संवाद भगवद गीता के रूप में अमर है। यहाँ पर हम अर्जुन के उस द्वंद्व को समझने का प्रयास करेंगे जो उन्होंने अपने परिवार, गुरुजन और सगे-संबंधियों के खिलाफ युद्ध करते समय महसूस किया था।

श्रीमद् भागवत गीता अध्याय 1 श्लोक 32, 33, 34, 35

गीता अध्याय 1 श्लोक 32 अर्थ सहित

Bhagavad Gita Chapter 1 Shloka 32, 33, 34, 35 in Hindi | FestivalHindu.com
Bhagavad Gita Chapter 1 Shloka 32, 33, 34, 35

अर्जुन का प्रश्न

अर्जुन ने भगवान कृष्ण से पूछा:

“किं नो राज्येन गोविन्द किं भोगैर्जीवितेन वा |

येषामर्थे काङक्षितं नो राज्यं भोगाः सुखानि च || ३२ ||

किम् – क्या लाभ; नः – हमको; राज्येन – राज्य से; गोविन्द – हे कृष्ण; किम् – क्या; भोगैः – भोग से; जीवितेन – जीवित रहने से; वा- अथवा; येषाम् – जिनके; अर्थे – लिए; काङक्षितम् – इच्छित है; नः – हमारे द्वारा; राज्यम् – राज्य; भोगाः – भौतिक भोग; सुखानि – समस्त सुख; च – भी;

भावार्थ: हे गोविन्द! हमें राज्य, सुख अथवा इस जीवन से क्या लाभ! क्योंकि जिन सारे लोगों के लिए हम उन्हें चाहते हैं वे ही इस युद्धभूमि में खड़े हैं।

गीता अध्याय 1 श्लोक 33 अर्थ सहित

संबंधियों के प्रति अर्जुन की करुणा

“त इमेSवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च |

आचार्याः पितरः पुत्रास्तथैव च पितामहाः || ३३ ||

ते – वे; इमे – ये; अवस्थिताः – स्थित; युद्धे – युद्धभूमि में; प्राणान् – जीवन को; त्यक्त्वा – त्याग कर; धनानि – धन को; च – भी; आचार्याः – गुरुजन; पितरः – पितृगण; पुत्राः – पुत्रगण; तथा – और; एव – निश्चय ही; च – भी; पितामहाः – पितामह;

भावार्थ: हे मधुसूदन! जब गुरुजन, पितृगण, पुत्रगण, पितामह, मामा, ससुर, पौत्रगण, साले तथा अन्य सारे सम्बन्धी अपना धन एवं प्राण देने के लिए तत्पर हैं और मेरे समक्ष खड़े हैं तो फिर मैं इन सबको क्यों मारना चाहूँगा, भले ही वे मुझे क्यों न मार डालें?

गीता अध्याय 1 श्लोक 34 अर्थ सहित

अपने प्रियजनों को मारने का दुख

श्लोक: “मातुलाः श्र्वश्रुराः पौत्राः श्यालाः सम्बन्धिनस्तथा |

एतान्न हन्तुमिच्छामि घ्नतोSपि मधुसूदन || ३४ ||

मातुलाः – मामा लोग; श्र्वशुरा – श्र्वसुर; पौत्राः – पौत्र; श्यालाः – साले; सम्बन्धिनः – सम्बन्धी; तथा – तथा; एतान् – ये सब; न – कभी नहीं; हन्तुम् – मारना; इच्छामि – चाहता हूँ; घ्रतः – मारे जाने पर; अपि – भी; मधुसूदन – हे मधु असुर के मारने वाले (कृष्ण);

भावार्थ: हे मधुसूदन! मामा, ससुर, पौत्र, साले और अन्य सम्बन्धी भी इस युद्धभूमि में खड़े हैं। मैं इन सबको मारना नहीं चाहता, भले ही वे मुझे मारने के लिए तत्पर हों।

गीता अध्याय 1 श्लोक 35 अर्थ सहित

युद्ध की वास्तविकता और त्रासदी

श्लोक: “अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतोः किं नु महीकृते |

निहत्य धार्तराष्ट्रान्नः का प्रीति स्याज्जनार्दन || ३५ ||

अपि – तो भी; त्रै-लोकस्य – तीनों लोकों के; राज्यस्य – राज्य के; हेतोः – विनिमय में; किम् नु – क्या कहा जाय; महीकृते – पृथ्वी के लिए; निहत्य – मारकर; धार्तराष्ट्रान् – धृत राष्ट्र के पुत्रों को; नः – हमारी; का – क्या; प्रीतिः – प्रसन्नता; स्यात् – होगी; जनार्दन – हे जीवों के पालक |

भावार्थ: हे जीवों के पालक! मैं इन सबों से लड़ने को तैयार नहीं, भले ही बदले में मुझे तीनों लोक क्यों न मिलते हों, इस पृथ्वी की तो बात ही छोड़ दें। भला धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारकर हमें कौन सी प्रसन्नता मिलेगी?

अर्जुन का मानसिक संघर्ष

अर्जुन ने भगवान् कृष्ण को गोविन्द कहकर सम्बोधित किया क्योंकि वे गौवों तथा इन्द्रियों की समस्त प्रसन्नता के विषय हैं। इस विशिष्ट शब्द का प्रयोग करके अर्जुन संकेत करता है कि कृष्ण यह समझें कि अर्जुन की इन्द्रियाँ कैसे तृप्त होंगी।

आत्मा और शरीर का द्वंद्व

भौतिक दृष्टि से, प्रत्येक व्यक्ति अपनी इन्द्रियों को तुष्ट करना चाहता है और चाहता है कि ईश्वर उसके आज्ञापालक की तरह काम करें। किन्तु ईश्वर उनकी तृप्ति वहीँ तक करते हैं जितनी के वे पात्र होते हैं – उस हद तक नहीं जितना वे चाहते हैं। किन्तु जब कोई इसके विपरीत मार्ग ग्रहण करता है अर्थात् जब वह अपनी इन्द्रियों की तृप्ति की चिन्ता न करके गोविन्द की इन्द्रियों की तुष्टि करने का प्रयास करता है तो गोविन्द की कृपा से जीव की सारी इच्छाएँ पूर्ण हो जाती हैं।

अर्जुन का स्नेह और करुणा

यहाँ पर जाति तथा कुटुम्बियों के प्रति अर्जुन का प्रगाढ़ स्नेह आंशिक रूप से इन सबके प्रति उसकी स्वाभाविक करुणा के कारण है। अतः वह युद्ध करने के लिए तैयार नहीं है। हर व्यक्ति अपने वैभव का प्रदर्शन अपने मित्रों तथा परिजनों के समक्ष करना चाहता है किन्तु अर्जुन को भय है कि उसके सारे मित्र तथा परिजन युद्धभूमि में मारे जायेंगे और वह विजय के पश्चात् उनके साथ अपने वैभव का उपयोग नहीं कर सकेगा। भौतिक जीवन का यह सामान्य लेखाजोखा है किन्तु आध्यात्मिक जीवन इससे सर्वथा भिन्न होता है।

निष्कर्ष

भगवद्भक्त दुष्टों से प्रतिशोध नहीं लेना चाहते किन्तु भगवान दुष्टों द्वारा भक्त के उत्पीड़न को सहन नहीं कर पाते। भगवान किसी व्यक्ति को अपनी इच्छा से क्षमा कर सकते हैं किन्तु यदि कोई उनके भक्तों को हानि पहुँचाता है तो वे क्षमा नहीं करते। इसीलिए भगवान इन दुराचारियों का वध करने के लिए उद्यत थे यद्यपि अर्जुन उन्हें क्षमा करना चाहता था।

अर्जुन का यह द्वंद्व, युद्ध की विषमता और नैतिकता का यह संघर्ष हमें यह सिखाता है कि सच्चे धर्म और कर्तव्य का पालन करते हुए हमें अपनी इच्छाओं और संबंधों का संतुलन कैसे बनाना चाहिए।

Resources : श्रीमद्भागवत गीता यथारूप – बक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद, गीता प्रेस

अध्याय 1 (Chapter 1)

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