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Bhagavad Gita Chapter 1 Verse-Shloka 31 – गीता अध्याय 1 श्लोक 31 अर्थ सहित – न च श्रेयोSनुपश्यामि…..

श्रीमद् भागवत गीता अध्याय 1 श्लोक 31 (Bhagwat Geeta adhyay 1 shlok 31 in Hindi): महाभारत का युद्ध न केवल एक ऐतिहासिक घटना है, बल्कि यह मानव मनोविज्ञान और नैतिकता का गहन अध्ययन भी है। अर्जुन की मानसिक अवस्था और उनके संघर्ष को समझना, हमें अपनी दुविधाओं और नैतिक चुनौतियों से निपटने में मदद कर सकता है। श्रीमद्भगवद्गीता के श्लोक (अध्याय 1, श्लोक 31; Chapter 1, Verse 31) में अर्जुन अपने प्रियजनों को युद्ध में मारने से उत्पन्न होने वाली नैतिक दुविधा का वर्णन करते हैं।

श्रीमद् भागवत गीता अध्याय 1 श्लोक 31

गीता अध्याय 1 श्लोक 31 अर्थ सहित

Bhagavad Gita Chapter 1 Shloka 31 in Hindi | FestivalHindu.com
Bhagavad Gita Chapter 1 Verse 31

श्लोक:

न च श्रेयोSनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे |

न काङ्क्षे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च || ३१ ||

भावार्थ:

न – न तो; च – भी; श्रेयः – कल्याण; अनुपश्यामि – पहले से देख रहा हूँ; हत्वा – मार कर; स्वजनम् – अपने सम्बन्धियों को; आहवे – युद्ध में; न – न तो; काङक्षे – आकांक्षा करता हूँ; विजयम् – विजय; कृष्ण – हे कृष्ण; न – न तो; च – भी; सुखानि – उसका सुख; च – भी |

हे कृष्ण! इस युद्ध में अपने ही स्वजनों का वध करने से न तो मुझे कोई अच्छाई दिखती है और न, मैं उससे किसी प्रकार कि विजय, राज्य या सुख की इच्छा रखता हूँ।

कृष्ण से अर्जुन का संवाद

  • नैतिकता का प्रश्न: अर्जुन का मानना है कि अपने स्वजनों का वध करने से कोई भला नहीं हो सकता।
  • विजय की अनिच्छा: अर्जुन युद्ध में विजय प्राप्त करने की भी इच्छा नहीं रखते।
  • राज्य और सुख की अवहेलना: अर्जुन को राज्य और उसके सुख भी अप्रासंगिक लगते हैं।

तात्पर्य

मनुष्य का स्वार्थ विष्णु (कृष्ण) में है, लेकिन शारीरिक संबंधों के प्रति आकर्षण उन्हें ऐसी परिस्थितियों में बांध देता है जिससे वे प्रसन्न रह सकें।

अर्जुन का नैतिक धर्म

  • क्षत्रिय धर्म: अर्जुन, जो कि एक क्षत्रिय हैं, अपने नैतिक धर्म को भूल जाते हैं।
  • अध्यात्मिक अनुशीलन: संन्यासी और युद्ध में मरने वाला क्षत्रिय, दोनों ही उच्च आध्यात्मिक अवस्था प्राप्त कर सकते हैं।
  • युद्ध से विमुखता: अर्जुन अपने शत्रुओं को भी मारने से विमुख हो रहे हैं, विशेषकर अपने स्वजनों को।

जीवन की दुविधा

  • सुख की खोज: अर्जुन सोचते हैं कि स्वजनों को मारने से उन्हें जीवन में सुख नहीं मिलेगा।
  • वन गमन की इच्छा: अर्जुन वन में जाने का निश्चय कर चुके हैं, जहाँ वे एकांत में निराशापूर्ण जीवन जी सकें।
  • राज्य प्राप्ति का संघर्ष: क्षत्रिय होने के नाते अर्जुन को राज्य की आवश्यकता है, जिसे प्राप्त करने के लिए उन्हें युद्ध करना होगा। लेकिन वे अपने बन्धु-बान्धवों से लड़कर राज्य प्राप्त नहीं करना चाहते।

निष्कर्ष

अर्जुन की इस दुविधा से हमें यह सीख मिलती है कि जीवन में कई बार नैतिकता और कर्तव्य के बीच संघर्ष उत्पन्न होता है। यह हमें सिखाता है कि सही निर्णय लेने के लिए हमें अपनी इच्छाओं और कर्तव्यों के बीच संतुलन स्थापित करना चाहिए। अर्जुन के इस संवाद से हम अपने जीवन की कठिनाइयों और दुविधाओं का सामना करने की प्रेरणा प्राप्त कर सकते हैं।

Resources : श्रीमद्भागवत गीता यथारूप – बक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद, गीता प्रेस

अध्याय 1 (Chapter 1)

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