श्रीमद् भागवत गीता अध्याय 1 श्लोक 46 (Bhagwat Geeta adhyay 1 shlok 46 in Hindi): भगवद्गीता के अध्याय 1 श्लोक 46(Bhagavad Gita Chapter 1 Verse 46) में संजय ने धृतराष्ट्र को बताया कि अर्जुन ने भगवान कृष्ण से सेनाओं के बीच में अपने रथ को खड़ा करने के लिए कहा। भगवान कृष्ण, जो हृषीकेश (इन्द्रियों के स्वामी) हैं, अर्जुन के इस निवेदन को समझते हुए उनके उत्तम रथ को दोनों सेनाओं के मध्य में ले आए।
श्रीमद् भागवत गीता अध्याय 1 श्लोक 46
गीता अध्याय 1 श्लोक 46 अर्थ सहित
श्लोक:
सञ्जय उवाच
एवमुक्तवार्जुनः संख्ये रथोपस्थ उपाविशत्।
विसृज्य सशरं चापं शोकसंविग्नमानसः।। ४६।।
भावार्थ:
सञ्जयः उवाच – संजय ने कहा; एवम् – इस प्रकार; उक्त्वा – कहकर; अर्जुनः – अर्जुन; संख्ये – युद्धभूमि में; रथ – रथ के; उपस्थे – आसन पर; उपाविशत् – पुनः बैठ गया; विसृज्य – एक ओर रखकर; स-शरम् – बाणों सहित; चापम् – धनुष को; शोक – शोक से; संविग्न – संतप्त, उद्विग्न; मानसः – मन के भीतर |
संजय ने कहा – युद्धभूमि में इस प्रकार कह कर अर्जुन ने अपना धनुष तथा बाण एक ओर रख दिया और शोकसंतप्त चित्त से रथ के आसन पर बैठ गया।
अर्जुन का मानसिक संघर्ष
भगवद्गीता के प्रथम अध्याय के अंत में, संजय ने बताया कि युद्धभूमि में खड़े अर्जुन ने अपने सामने खड़ी सेना को देखा। शत्रुओं और अपने प्रियजनों के बीच युद्ध की स्थिति को समझते हुए अर्जुन गहरे शोक में डूब गया। इस गहन शोक के कारण अर्जुन ने अपने धनुष और बाणों को एक ओर रख दिया और रथ के आसन पर बैठ गया।
- अर्जुन ने युद्ध के मैदान में शत्रुओं का अवलोकन किया।
- अपने प्रियजनों के खिलाफ युद्ध की संभावना ने उसे शोक में डाल दिया।
- वह इतना संतप्त हो गया कि उसने अपने हथियारों को त्याग दिया और रथ पर बैठ गया।
अर्जुन की कोमलता और भगवान् की सेवा
अर्जुन, जो कि भगवान कृष्ण के प्रिय भक्त हैं, का कोमल हृदय युद्ध की विभीषिका को सहन नहीं कर सका। उनके शोक और दया के भाव यह दर्शाते हैं कि वे केवल एक महान योद्धा ही नहीं, बल्कि एक सच्चे भक्त भी हैं। ऐसे व्यक्ति को आत्मज्ञान की प्राप्ति के योग्य कहा गया है, क्योंकि उनके हृदय में करुणा और सेवा का भाव है।
निष्कर्ष:
इस प्रकार, भगवद्गीता के प्रथम अध्याय “कुरुक्षेत्र के युद्धस्थल में सैन्य निरीक्षण” का भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण होता है। अर्जुन का यह संघर्ष केवल बाहरी युद्ध से संबंधित नहीं है, बल्कि उनके भीतर चल रहे मानसिक और आत्मिक युद्ध का भी प्रतीक है। यह संघर्ष अंततः आत्मज्ञान और भगवान् की सेवा के मार्ग की ओर ले जाता है।
Resources : श्रीमद्भागवत गीता यथारूप – बक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद, गीता प्रेस