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Bhagavad Gita Chapter 1 Verse-Shloka 7 – गीता अध्याय 1 श्लोक 7 अर्थ सहित | Festivalhindu.com

Bhagavad Gita Chapter 1 Verse-Shloka 7 – गीता अध्याय 1 श्लोक 7 अर्थ सहित

श्रीमद् भागवत गीता अध्याय 1 श्लोक 7 (Bhagavad Gita Chapter 1 Verse 7 in Hindi): गीता अध्याय 1 श्लोक 7 के भावार्थ से जानिए कि कैसे दुर्योधन ने अपने सेनापति द्रोणाचार्य को ‘द्विजोत्तम’ कहकर संबोधित किया और उनकी सेना के प्रमुख योद्धाओं की विशेषताएँ। यह लेख आपको दुर्योधन की मानसिक चालाकी और उसकी सेना की शक्ति को समझने में मदद करेगा।

श्रीमद् भागवत गीता अध्याय 1 श्लोक 7

अस्माकम् - हमारे; तु - लेकिन; विशिष्टाः - विशेष शक्तिशाली; ये - जो; तान् - उनको; निबोध - जरा जान लीजिये, जानकारी प्राप्त कर लें; द्विज-उत्तम - हे ब्राह्मणश्रेष्ठ; नायकाः - सेनापति, कप्तान; मम - मेरी; सैन्यस्य - सेना के; संज्ञा-अर्थम् - सूचना के लिए; तान् - उन्हें; ब्रवीमि - बता रहा हूँ; ते - आपको।

गीता अध्याय 1 श्लोक 7 अर्थ सहित

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Bhagavad Gita Chapter 1 Shloka (Verse) 7

कौरव सेना के नायकों का परिचय

श्लोक:

अस्माकं तु विशिष्टा ये तान्निबोध द्विजोत्तम ।
नायका मम सैन्यस्य संज्ञार्थं तान्ब्रवीमि ते ॥ ७॥

भावार्थ:

किन्तु हे ब्राह्मणश्रेष्ठ! आपकी सूचना के लिए मैं अपनी सेना के उन नायकों के विषय में बताना चाहूँगा जो मेरी सेना को संचालित करने में विशेष रूप से निपुण हैं। यहाँ कौरव सेना के प्रधान सेनापति द्रोणाचार्य को दुर्योधन ने ‘द्विजोत्तम’ (द्विजन्मा में श्रेष्ठ या ब्राह्मण) ब्राह्मणों में सर्वश्रेष्ठ कहकर संबोधित किया। उसने जान बूझकर अपने गुरु को इस प्रकार संबोधित किया। द्रोणाचार्य वृत्ति से योद्धा नहीं थे, वह सैन्य शिक्षा के आचार्य थे।

एक कपटी नायक के रूप में दुर्योधन अपने मन में अपने गुरु की निष्ठा पर निर्लज्जतापूर्वक संदेह कर रहा था। दुर्योधन के शब्दों में छिपा अर्थ यह था कि यदि द्रोणाचार्य पराक्रम से युद्ध नहीं लड़ते तो उन्हें मात्र एक ब्राह्मण ही माना जाएगा जिसकी रुचि दुर्योधन के राज्य में केवल उत्तम जीविका अर्जित करने और सुख सुविधाएं भोगने की होगी।

एक कपटी नायक के मनोभाव

महाभारत के युद्धभूमि में कौरव सेना के प्रमुख सेनापति द्रोणाचार्य के प्रति दुर्योधन का दृष्टिकोण एक अनोखी चालाकी का प्रमाण है। दुर्योधन ने द्रोणाचार्य को ‘द्विजोत्तम’ यानी ब्राह्मणों में श्रेष्ठ कहकर संबोधित किया, जो न केवल उनके प्रति सम्मान था बल्कि एक सन्देश भी। इस संबोधन के पीछे छिपे अर्थ को समझना महत्वपूर्ण है। द्रोणाचार्य वृत्ति से योद्धा नहीं थे; वह सैन्य शिक्षा के आचार्य थे। लेकिन दुर्योधन के शब्दों में यह संदेह भी था कि यदि द्रोणाचार्य पराक्रम से युद्ध नहीं लड़ते, तो उन्हें केवल एक ब्राह्मण ही माना जाएगा, जिसकी रुचि दुर्योधन के राज्य में उत्तम जीविका अर्जित करने और सुख-सुविधाएं भोगने में होगी।

विशेष शक्तिशाली नायक

दुर्योधन ने अपनी सेना के उन नायकों के बारे में भी बताया, जो सेना को संचालित करने में विशेष रूप से निपुण थे। आइये जानते हैं उनकी विशेषताओं को:

कौरव सेना के प्रमुख नायक

  • भीष्म पितामह: सबसे बुजुर्ग और सम्माननीय योद्धा, जिनकी युद्धनीति और पराक्रम का कोई सानी नहीं था।
  • कर्ण: महान धनुर्धारी और योद्धा, जिनका पराक्रम और दानशीलता प्रसिद्ध थी।
  • दुर्योधन: स्वयं कौरवों के प्रमुख, जिनकी शक्ति और दृढ़ संकल्प सेना को प्रोत्साहित करते थे।
  • द्रौणाचार्य: महान आचार्य और योद्धा, जिन्होंने अनेक वीरों को शिक्षा दी थी।
  • अश्वत्थामा: द्रौणाचार्य के पुत्र, जिनकी वीरता और युद्धकौशल की कोई तुलना नहीं थी।
  • कृपाचार्य: विद्वान और वीर योद्धा, जिनकी युद्धनीति सेना को मजबूत करती थी।

निष्कर्ष

दुर्योधन का यह प्रयास न केवल युद्ध में सफलता की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम था, बल्कि यह भी दर्शाता है कि कैसे एक कपटी नायक अपने गुरु और सेना के मनोबल को बढ़ाकर युद्ध में विजय की राह सुनिश्चित करने का प्रयास करता है। उसने अपने और अपने गुरु के मनोबल को बढ़ाने के लिए अपनी सेना के प्रमुख सेनानायकों की गणना की। यह कदम दिखाता है कि युद्ध में मनोवैज्ञानिक रणनीति का कितना महत्व होता है। दुर्योधन का यह प्रयास न केवल युद्धनीति का हिस्सा था, बल्कि यह भी कि कैसे मानसिक और भावनात्मक स्तर पर भी योद्धा को प्रेरित करना आवश्यक है।

Resources : श्रीमद्भागवत गीता यथारूप – बक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद, गीता प्रेस

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