श्रीमद् भागवत गीता अध्याय 1 श्लोक 44 (Bhagwat Geeta adhyay 1 shlok 44 in Hindi): महाभारत के युद्ध के संदर्भ में अर्जुन द्वारा कहे गए गीता अध्याय 1 श्लोक 44(Gita Chapter 1 Verse 44) में “अहो बत महत्पापं कर्तुं व्यवसिता वयम्” हमें यह सोचने पर मजबूर कर देता है कि किस प्रकार स्वार्थ और लोभ के कारण मनुष्य अपने सबसे निकटतम संबंधियों को भी हानि पहुँचाने के लिए तत्पर हो जाता है। यह श्लोक न केवल अर्जुन की मनःस्थिति को दर्शाता है, बल्कि यह भी बताता है कि कैसे स्वार्थ के वशीभूत होकर मनुष्य सही और गलत का भेद भूल जाता है।
श्रीमद् भागवत गीता अध्याय 1 श्लोक 44
गीता अध्याय 1 श्लोक 44 अर्थ सहित
श्लोक:
अहो बत महत्पापं कर्तुं व्यवसिता वयम् |
यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यताः || ४४ ||
भावार्थ:
अहो – ओह; बत – कितना आश्चर्य है यह; महत् – महान; पापम् – पाप कर्म; कर्तुम् – करने के लिए; व्यवसिता – निश्चय किया है; वयम् – हमने; यत् – क्योंकि; राज्य-सुख-लोभेन – राज्य-सुख के लालच में आकर; हन्तुम् – मारने के लिए; स्वजनम् – अपने सम्बन्धियों को; उद्यताः – तत्पर |
ओह! कितने आश्चर्य की बात है कि हम सब जघन्य पापकर्म करने के लिए उद्यत हो रहे हैं। राज्यसुख भोगने की इच्छा से प्रेरित होकर हम अपने सम्बन्धियों को मारने पर तुले हैं।
स्वार्थ का अंधकार
स्वार्थ और लोभ में फंसा हुआ व्यक्ति अपनी नैतिकता, कर्तव्य और रिश्तों को भूल जाता है। अर्जुन इस श्लोक में यही कह रहे हैं कि राज्य-सुख की चाह में उन्होंने और उनके साथी पापकर्म करने का निश्चय कर लिया है। वह अपने ही स्वजनों को मारने पर आमादा हो गए हैं। यह स्थिति तब और भी गंभीर हो जाती है जब व्यक्ति यह नहीं सोच पाता कि उसका कार्य कितना जघन्य और पापपूर्ण है।
नैतिकता की जागरूकता
अर्जुन, हालांकि युद्ध के मैदान में खड़े हैं, फिर भी उनके मन में नैतिकता का प्रकाश अब भी मौजूद है। वह समझते हैं कि अपने स्वजनों को मारने का कार्य केवल एक पाप ही नहीं, बल्कि नैतिकता के विरुद्ध भी है। यह अर्जुन के चरित्र की गहराई को दर्शाता है कि वह केवल एक योद्धा नहीं, बल्कि एक नैतिकता के प्रति सजग व्यक्ति भी हैं।
तात्पर्य: एक गहरा संदेश
यह श्लोक हमें यह सिखाता है कि स्वार्थ और लोभ की अंधी दौड़ में हम कभी-कभी अपने ही सगे-संबंधियों के प्रति भी निर्दयी हो जाते हैं। इतिहास में ऐसे कई उदाहरण मिलते हैं, जहाँ स्वार्थ ने व्यक्ति को अपने ही परिवार के खिलाफ खड़ा कर दिया। किन्तु अर्जुन की चेतना हमें याद दिलाती है कि सच्चा इंसान वही है जो नैतिकता और धर्म का पालन करता है, भले ही परिस्थितियाँ कैसी भी हों।
मुख्य बिंदु
- स्वार्थ और लोभ: यह दो भावनाएँ व्यक्ति को पाप की ओर ले जाती हैं।
- नैतिकता की जागरूकता: अर्जुन की यह चेतना उन्हें अन्य लोगों से अलग बनाती है।
- इतिहास के उदाहरण: स्वार्थ के कारण किए गए पापकर्मों के कई उदाहरण इतिहास में मौजूद हैं।
- सच्चा धर्म: नैतिकता और धर्म का पालन करना ही मनुष्य का सबसे बड़ा कर्तव्य है।
निष्कर्ष
श्लोक “अहो बत महत्पापं कर्तुं व्यवसिता वयम्” हमें यह याद दिलाता है कि स्वार्थ और लोभ के वशीभूत होकर हम कभी-कभी कितनी बड़ी गलतियाँ कर बैठते हैं। अर्जुन का यह श्लोक हमें नैतिकता, धर्म और सही-गलत के भेद को समझने की प्रेरणा देता है। चाहे परिस्थितियाँ कैसी भी हों, हमें हमेशा अपने कर्तव्यों और नैतिक मूल्यों का पालन करना चाहिए।
Resources : श्रीमद्भागवत गीता यथारूप – बक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद, गीता प्रेस