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Bhagavad Gita Chapter 1 Verse-Shloka 41 – गीता अध्याय 1 श्लोक 41 अर्थ सहित – सड्करो नरकायैव…..

श्रीमद् भागवत गीता अध्याय 1 श्लोक 41 (Bhagwat Geeta adhyay 1 shlok 41 in Hindi): गीता अध्याय 1 श्लोक 41(Gita Chapter 1 Verse 41) के माध्यम से अवांछित सन्तानों की वृद्धि से पितरों के नारकीय जीवन पर चर्चा की गई है। पितरों को जल और पिण्डदान देने की परम्परा के महत्व को तात्पर्य के साथ समझाया गया है। विष्णु पूजा और भगवान् मुकुन्द की शरण ग्रहण करने से पितरों और कुल की शांति और मोक्ष पर विस्तार से बताया गया है।

श्रीमद् भागवत गीता अध्याय 1 श्लोक 41

गीता अध्याय 1 श्लोक 41 अर्थ सहित

Bhagavad Gita Chapter 1 Shloka 41 in Hindi | FestivalHindu.com
Bhagavad Gita Chapter 1 Verse 41 in Hindi

श्लोक

सड्करो नरकायैव कुलघ्नानां कुलस्य च |
पतन्ति पितरो ह्येषां लुप्तपिण्डोदकक्रियाः || ४१ ||

भावार्थ

सङकरः – ऐसे अवांछित बच्चे; नरकाय – नारकीय जीवन के लिए; एव – निश्चय ही; कुल-घ्नानाम् – कुल का वध करने वालों के; कुलस्य – कुल के; च – भी; पतन्ति – गिर जाते हैं; पितरः – पितृगण; हि – निश्चय ही; एषाम् – इनके; पिण्ड – पिण्ड अर्पण की; उदक – तथा जल की; क्रियाः – क्रिया, कृत्य |

अवांछित सन्तानों की वृद्धि से निश्चय ही परिवार के लिए तथा पारिवारिक परम्परा को विनष्ट करने वालों के लिए नारकीय जीवन उत्पन्न होता है। ऐसे पतित कुलों के पुरखे (पितर लोग) गिर जाते हैं क्योंकि उन्हें जल तथा पिण्ड दान देने की क्रियाएँ समाप्त हो जाती हैं।

तात्पर्य

सकाम कर्म के विधिविधानों के अनुसार कुल के पितरों को समय-समय पर जल तथा पिण्डदान दिया जाना चाहिए। यह दान विष्णु पूजा द्वारा किया जाता है क्योंकि विष्णु को अर्पित भोजन के उच्छिष्ट भाग (प्रसाद) के खाने से सारे पापकर्मों से उद्धार हो जाता है।

पितरों की सहायता का महत्व

पितरों को प्रसाद अर्पित करने से:

  • उनका प्रेतयोनी या अन्य दुखमय जीवन से उद्धार होता है।
  • कुल-परम्परा को बनाए रखा जाता है।
  • पितरों को शांति और मोक्ष प्राप्त होता है।

भागवत का सन्देश

भागवत में (११.५.४१) कहा गया है कि जो व्यक्ति भगवान् मुकुन्द की शरण ग्रहण करता है, वह अपने सभी कर्तव्यों और ऋणों से मुक्त हो जाता है।

देवर्षि भूताप्तनृणां पितॄणां न किंकरो नायमृणी च राजन् |
सर्वात्मना यः शरणं शरण्यं गतो मुकुन्दं परिहृत्य कर्तम् ||

निष्कर्ष

कुल-परम्परा को बनाए रखने और पितरों को नारकीय जीवन से मुक्त करने के लिए जल और पिण्डदान की क्रियाएँ अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। भगवान् की भक्ति और सेवा करने से ये सभी कर्तव्य अपने आप पूरे हो जाते हैं, और मनुष्य न केवल अपने पितरों को बल्कि अपने जीवन को भी शांति और मोक्ष की ओर ले जाता है।

Resources : श्रीमद्भागवत गीता यथारूप – बक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद, गीता प्रेस

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