श्रीमद् भागवत गीता अध्याय 1 श्लोक 37, 38 (Bhagwat Geeta adhyay 1 shlok 37, 38 in Hindi): महाभारत के युद्धभूमि में खड़े अर्जुन के सामने केवल शत्रु नहीं थे, बल्कि अपने ही परिवार और मित्रों के प्रति कर्तव्य और धर्म का गहन द्वंद्व था। यह द्वंद्व भगवद्गीता के अनेक श्लोकों में स्पष्ट रूप से दर्शाया गया है। यहाँ प्रस्तुत है ऐसा ही एक प्रसंग, जहाँ अर्जुन अपने मनोभावों और कर्तव्यों के बारे में श्रीकृष्ण से संवाद कर रहे हैं।
श्रीमद् भागवत गीता अध्याय 1 श्लोक 37, 38
गीता अध्याय 1 श्लोक 37, 38 अर्थ सहित
श्लोक ३७
“यद्यप्येते न पश्यति लोभोपहतचेतसः |
कुलक्षयकृतं दोषं मित्रद्रोहे च पातकम् || ३७ ||”
भावार्थ:
यदि – यदि; अपि – भी; एते – ये; न – नहीं; पश्यति - देखते हैं; लोभ – लोभ से; उपहत – अभिभूत; चेतसः – चित्त वाले; कुल-क्षय – कुल-नाश; कृतम् – किया हुआ; दोषम् – दोष को; मित्र-द्रोहे – मित्रों से विरोध करने में; च – भी; पातकम् – पाप को;
अर्जुन कहते हैं, “हे जनार्दन! यद्यपि लोभ से अभिभूत चित्त वाले ये लोग अपने परिवार को मारने या अपने मित्रों से द्रोह करने में कोई दोष नहीं देखते किन्तु हम लोग, जो परिवार के विनष्ट करने में अपराध देख सकते हैं, ऐसे पापकर्मों में क्यों प्रवृत्त हों?”
श्लोक ३८
“कथं न ज्ञेयमस्माभिः पापादस्मान्निवर्तितुम् |
कुलक्षयकृतं दोषं प्रपश्यद्भिर्जनार्दन || ३८ ||”
भावार्थ:
कथम् – क्यों; न – नहीं; ज्ञेयम् – जानना चाहिए; अस्माभिः – हमारे द्वारा; पापात् – पापों से; अस्मात् – इन; निवर्तितुम् – बन्द करने के लिए; कुल-क्षय – वंश का नाश; कृतम् – हो जाने पर; दोषम् – अपराध; प्रपश्यद्भिः – देखने वालों के द्वारा; जनार्दन – हे कृष्ण!
अर्जुन आगे कहते हैं, “हे कृष्ण! जो कुल के नाश के दोष को स्पष्ट देख सकते हैं, ऐसे हम लोगों को इन पापों से निवृत्त होने का प्रयास क्यों नहीं करना चाहिए?”
तात्पर्य
क्षत्रिय से यह आशा नहीं की जाती कि वह अपने विपक्षी दल द्वारा युद्ध करने या जुआ खेलने का आमन्त्रण दिये जाने पर मना करे। ऐसी अनिवार्यता में अर्जुन लड़ने से नकार नहीं सकता क्योंकि उसको दुर्योधन के दल ने ललकारा था। इस प्रसंग में अर्जुन ने विचार किया की हो सकता है कि दूसरा पक्ष इस ललकार के परिणामों के प्रति अनभिज्ञ हो। किन्तु अर्जुन को तो दुष्परिणाम दिखाई पड़ रहे थे अतः वह इस ललकार को स्वीकार नहीं कर सकता। यदि परिणाम अच्छा हो तो कर्तव्य वस्तुतः पालनीय है किन्तु यदि परिणाम विपरीत हो तो हम उसके लिए बाध्य नहीं होते। इन पक्ष-विपक्षों पर विचार करके अर्जुन ने युद्ध न करने का निश्चय किया।
मुख्य बिंदु
- लोभ से अभिभूत:
युद्ध में दुर्योधन और उसकी सेना लोभ और सत्ता की लालसा में अंधे हो गए थे, जिससे वे अपने ही परिवार और मित्रों के विनाश को नहीं देख पा रहे थे। - कुलक्षय का दोष:
अर्जुन को स्पष्ट दिख रहा था कि इस युद्ध से उनके कुल का विनाश होगा, जो एक बड़ा पाप है। - मित्रद्रोह:
अपने ही मित्रों के खिलाफ युद्ध करना, मित्रद्रोह के समान है, जो अर्जुन को अस्वीकार्य था। - धर्म और कर्तव्य:
युद्ध में धर्म और कर्तव्य का पालन करना आवश्यक होता है, परन्तु जब परिणाम विपरीत हो, तो हमें उन पर पुनर्विचार करना चाहिए।
निष्कर्ष
अर्जुन का यह द्वंद्व न केवल एक युद्धभूमि का दृश्य है, बल्कि यह प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में आने वाले नैतिक और आध्यात्मिक संघर्षों का प्रतीक है। जब हम अपने कर्तव्यों का निर्वहन करते हैं, तो हमें उनके परिणामों को ध्यान में रखकर ही निर्णय लेना चाहिए। यह प्रसंग हमें सिखाता है कि लोभ और लालसा में अंधे होकर नहीं, बल्कि धर्म और सत्य के मार्ग पर चलते हुए ही सही निर्णय लेना चाहिए।
Resources : श्रीमद्भागवत गीता यथारूप – बक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद, गीता प्रेस