श्रीमद् भागवत गीता अध्याय 1 श्लोक 25 (Bhagwat Geeta adhyay 1 shlok 25 in Hindi): महाभारत के युद्ध में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा, “कुरुओं को देखो।” जानें इस गीता अध्याय 1 श्लोक 25(Bhagavad Gita Chapter 1 Verse 25) का गूढ़ अर्थ, श्रीकृष्ण की मनोवैज्ञानिक समझ, और धर्म युद्ध के महत्व को इस लेख में।
श्रीमद् भागवत गीता अध्याय 1 श्लोक 25
गीता अध्याय 1 श्लोक 25 अर्थ सहित
मुख्य शीर्षक: कुरुओं को देखो, हे पार्थ!
उपशीर्षक 1: युद्धभूमि में भगवान कृष्ण का मार्गदर्शन
महाभारत के युद्ध में, जब दोनों सेनाएँ आमने-सामने थीं, अर्जुन के सारथी भगवान श्रीकृष्ण ने महत्वपूर्ण संदेश दिया।
श्लोक:
“भीष्मद्रोणप्रमुखतः सर्वेषां च महीक्षिताम् ।
उवाच पार्थ पश्यैतान्समवेतान्कुरूनिति ॥ २५॥”
भावार्थ:
भीष्म- भीष्म पितामहः द्रोण- गुरु द्रोण; प्रमुखतः- के समक्ष; सर्वेषाम्- सबों के; च- भी; मही-क्षिताम् - संसार भर के राजा; उवाच- कहा; पार्थ- हे पृथा के पुत्र; पश्य- देखो; एतान्-इन सबों को; समवेतान्- एकत्रितः कुरून्- कुरुवंश के सदस्यों को; इति- इस प्रकार।
भीष्म, द्रोण तथा विश्व भर के अन्य समस्त राजाओं के सामने भगवान् ने कहा कि हे पार्थ! यहाँ पर एकत्र सारे कुरुओं को देखो।
उपशीर्षक 2: श्रीकृष्ण की मनोवैज्ञानिक समझ
भगवान कृष्ण, जिन्हें हृषीकेश भी कहा जाता है, समस्त जीवों के परमात्मास्वरूप हैं। वे अर्जुन के मन की स्थिति को भलीभांति समझते थे। यहाँ पर हृषीकेश शब्द का प्रयोग इस बात का संकेत करता है कि भगवान कृष्ण अर्जुन के मनोभावों को जान रहे थे।
उपशीर्षक 3: पार्थ और उनका सारथी
श्रीकृष्ण अर्जुन को पार्थ कहकर संबोधित करते हैं, जो कुन्तीपुत्र का भी एक नाम है। यह संबोधन केवल एक मित्र के रूप में नहीं था, बल्कि अर्जुन की पारिवारिक पृष्ठभूमि को भी दर्शाता है। भगवान कृष्ण ने अपने मित्र और अपनी बुआ पृथा के पुत्र अर्जुन के सारथी बनने का निर्णय लिया था।
उपशीर्षक 4: कृष्ण का संदेश और उसका तात्पर्य
जब भगवान कृष्ण ने अर्जुन से “कुरुओं को देखो” कहा, तो इसका आशय केवल यह नहीं था कि अर्जुन युद्ध भूमि पर रुके और लड़ाई न करे। इसके पीछे उनका गहरा संदेश था:
- धैर्य और संकल्प: युद्ध की भयानकता और परिणामों को देखते हुए, धैर्य बनाए रखना आवश्यक था।
- दायित्व और धर्म: अपने कर्तव्यों और धर्म का पालन करते हुए युद्ध करना था।
- मनोबल: अपने मनोबल को ऊँचा रखना और किसी भी प्रकार की शंका को त्यागना।
भगवान कृष्ण ने परिहासवश, अर्जुन की मनःस्थिति को जानने के बावजूद, उसे इस तरह से समझाया कि वह अपने कर्तव्यों का पालन करे और धर्म की राह पर चले।
निष्कर्ष
यह प्रसंग हमें यह सिखाता है कि जीवन के किसी भी संग्राम में धैर्य, संकल्प और धर्म का पालन कितना महत्वपूर्ण है। भगवान कृष्ण के इस संदेश में निहित गूढ़ तात्पर्य यह है कि हमें अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए, किसी भी परिस्थिति में, मनोबल को ऊँचा रखना चाहिए और धर्म की राह पर चलना चाहिए।