श्रीमद् भागवत गीता अध्याय 2 श्लोक 48 (Bhagavad Gita Chapter 2 Verse 48 in Hindi): यह श्लोक भगवद्गीता के दूसरे अध्याय(Bhagavad Gita Chapter 2 Shloka 48) का एक महत्वपूर्ण भाग है, जिसमें भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को कर्मयोग का गूढ़ रहस्य समझाते हैं। इस श्लोक में सफलता-विफलता, सुख-दुख, और जय-पराजय को समान दृष्टि से देखने का उपदेश दिया गया है।
श्रीमद् भागवत गीता अध्याय 2 श्लोक 48 (Bhagavad Gita Chapter 2 Verse 48)
गीता अध्याय 2 श्लोक 48 अर्थ सहित (Gita Chapter 2 Verse 48 in Hindi with meaning)
श्लोक 2.48: समता का सच्चा मार्ग
“योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय।
सिद्धयसिद्धयोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते॥”
योगस्थः – समभाव होकर; कुरु – करो; कर्माणि – अपने कर्म; सङ्गं – आसक्ति को; त्यक्त्वा – त्याग कर; धनञ्जय – हे अर्जुन; सिद्धि-असिद्धयोः – सफलता तथा विफलता में; समः – समभाव; भूत्वा – होकर; समत्वम् – समता; योगः – योग; उच्यते – कहा जाता है |
भगवद्गीता के दूसरे अध्याय का यह श्लोक कर्मयोग का एक महत्वपूर्ण सूत्र है। भगवान श्रीकृष्ण ने इस श्लोक के माध्यम से अर्जुन को कर्म के सही अर्थ और उसकी प्रक्रिया को समझाया है। यह केवल अर्जुन के लिए ही नहीं, बल्कि समस्त मानव जाति के लिए जीवन को शांति और संतुलन के साथ जीने का मार्गदर्शन करता है।
श्लोक का मूल भावार्थ
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं:
“हे अर्जुन! सफलता और विफलता में समभाव रखते हुए, अपनी सभी आसक्तियों को त्यागकर अपने कर्तव्यों का पालन करो। ऐसा समता का भाव ही योग कहलाता है।”
इस श्लोक में मुख्य रूप से तीन बातों पर ध्यान दिया गया है:
- समभाव: सुख-दुख, सफलता-विफलता को समान दृष्टि से देखना।
- आसक्ति का त्याग: किसी भी कार्य के फल के प्रति आसक्ति से मुक्त होना।
- कर्तव्य-पालन: भगवान की इच्छा मानकर निष्काम भाव से कर्म करना।
समभाव: सफलता और विफलता में समानता
जीवन में सुख और दुख, सफलता और असफलता, जय और पराजय अपरिहार्य हैं। हम जो भी प्रयास करते हैं, उसका परिणाम हमेशा हमारी अपेक्षाओं के अनुरूप नहीं होता। यह श्लोक हमें सिखाता है कि परिणाम चाहे जो भी हो, हमें समान भाव से उसे स्वीकार करना चाहिए।
समभाव क्यों आवश्यक है?
- यदि हम सफलता पर अति-उल्लासित और विफलता पर अत्यधिक निराश हो जाएँ, तो हमारा मन अशांत हो जाता है।
- समभाव से हम जीवन की चुनौतियों का सामना धैर्य और स्थिरता के साथ कर सकते हैं।
- यह भाव हमें हर परिस्थिति में मानसिक शांति प्रदान करता है।
उदाहरण
यदि कोई किसान पूरी मेहनत से फसल उगाता है, लेकिन मौसम की प्रतिकूलता के कारण फसल नष्ट हो जाती है, तो वह यदि हताश हो जाए, तो उसकी मानसिक और शारीरिक ऊर्जा नष्ट हो जाएगी। लेकिन यदि वह अपने कर्म पर ध्यान केंद्रित करते हुए नए सिरे से मेहनत करता है, तो यही समभाव कहलाता है।
आसक्ति का त्याग: कर्म का वास्तविक अर्थ
श्रीकृष्ण का यह उपदेश है कि हम अपने कार्य के प्रति आसक्ति न रखें। इसका अर्थ यह नहीं है कि हम अपने कार्यों के प्रति उदासीन हो जाएँ, बल्कि इसका तात्पर्य यह है कि हमें केवल प्रयास पर ध्यान देना चाहिए, परिणाम पर नहीं।
क्यों छोड़ें आसक्ति?
- जब हम कार्य के फल की चिंता करते हैं, तो यह हमारी मनोवृत्ति को प्रभावित करता है।
- फल की चिंता न केवल मानसिक तनाव बढ़ाती है, बल्कि कार्य की गुणवत्ता को भी प्रभावित करती है।
- यदि हम केवल प्रयास पर ध्यान दें, तो हमारा कर्म निस्वार्थ और अधिक प्रभावी होता है।
श्रीकृष्ण का दृष्टिकोण
श्रीकृष्ण के अनुसार,
- कर्म करना हमारा अधिकार है, लेकिन फल पर हमारा अधिकार नहीं है।
- कार्य को भगवान की सेवा मानकर करें।
- यह भाव हमें “कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन” के सिद्धांत की ओर ले जाता है।
भगवान के प्रति समर्पण: योग का अंतिम लक्ष्य
श्लोक में यह स्पष्ट किया गया है कि हर कर्म भगवान की इच्छा से होता है। यदि हम अपने कार्यों को भगवान को समर्पित कर दें, तो जीवन सरल और शांत हो जाता है।
ईश्वर को समर्पित कर्म कैसे करें?
- अपने कार्य को पूजा मानें।
- फल की प्राप्ति को भगवान का प्रसाद समझें।
- हर परिस्थिति को ईश्वर की योजना मानकर स्वीकार करें।
परिणाम का आनंद
जब हम किसी कार्य को ईश्वर को समर्पित करते हैं, तो:
- सफलता हमें अहंकारी नहीं बनाती।
- विफलता हमें निराश नहीं करती।
- यह भावना हमें संतुलित और मानसिक रूप से मजबूत बनाती है।
श्लोक की प्रासंगिकता: जीवन का व्यावहारिक समाधान
यह श्लोक केवल एक आध्यात्मिक उपदेश नहीं है, बल्कि जीवन की उथल-पुथल के लिए एक व्यावहारिक समाधान भी है।
1. मानसिक शांति का आधार
जीवन में उतार-चढ़ाव आना स्वाभाविक है। यदि हम हर परिस्थिति को भगवान की इच्छा मान लें, तो मानसिक शांति प्राप्त कर सकते हैं।
2. आत्म-नियंत्रण और संतुलन
इंद्रियों और मन को नियंत्रित कर, यदि हम अपने कर्तव्यों का पालन करें, तो यह योग हमें आत्म-नियंत्रण सिखाता है।
3. जीवन की चुनौतियों का सामना
श्लोक का संदेश हमें सिखाता है कि:
- कठिनाइयाँ जीवन का हिस्सा हैं।
- हमें उनका सामना करना सीखना चाहिए।
- हर चुनौती को भगवान की योजना मानकर स्वीकार करें।
समभाव को जीवन में अपनाने के उपाय
इस श्लोक के उपदेश को जीवन में लागू करने के लिए निम्नलिखित उपायों को अपनाया जा सकता है:
- आसक्ति का त्याग करें: किसी भी कार्य को फल की चिंता किए बिना करें।
- संतुलित दृष्टिकोण अपनाएँ: सफलता और विफलता दोनों को समान रूप से स्वीकार करें।
- धैर्य का अभ्यास करें: कठिन परिस्थितियों में शांति बनाए रखें।
- भगवान पर विश्वास रखें: हर परिस्थिति को उनकी इच्छा मानें।
- नियमित साधना करें: ध्यान और प्रार्थना के माध्यम से आत्म-नियंत्रण का अभ्यास करें।
उदाहरणों से प्रेरणा
1. समुद्र और नाव का उदाहरण
जीवन को समुद्र और हमारे प्रयासों को नाव की तरह मानें। जैसे समुद्र की लहरें नाव को हिलाती हैं, वैसे ही जीवन की चुनौतियाँ हमें प्रभावित करती हैं। यदि हम हर लहर से डरकर नाव चलाना छोड़ दें, तो हम कभी अपने लक्ष्य तक नहीं पहुँच पाएंगे।
2. अर्जुन का कर्तव्य
अर्जुन एक क्षत्रिय थे, और उनका कर्तव्य धर्म के लिए युद्ध करना था। श्रीकृष्ण ने उन्हें सिखाया कि युद्ध के परिणाम की चिंता किए बिना, अपने कर्तव्य का पालन करना ही सच्चा योग है।
जीवन का सच्चा मार्ग: कर्मयोग
श्रीकृष्ण के अनुसार, योग का अर्थ है:
- चंचल मन को वश में करना।
- जीवन के हर पहलू में संतुलन बनाए रखना।
- सभी कार्यों को भगवान को समर्पित करना।
समता और संतोष का महत्व
- यह श्लोक हमें सिखाता है कि समता का भाव हमें जीवन की हर परिस्थिति में स्थिर और शांत बनाए रखता है।
- संतोष का भाव जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि है।
निष्कर्ष
“योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय।
सिद्धयसिद्धयोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते॥”
यह श्लोक जीवन का एक ऐसा मार्गदर्शक है, जो हमें सिखाता है कि:
- सफलता और विफलता, सुख और दुख, जय और पराजय को समान दृष्टि से देखें।
- आसक्ति को त्यागें और केवल अपने कर्तव्यों पर ध्यान दें।
- हर परिस्थिति को भगवान की योजना मानकर, शांत और संतुलित रहें।
जब हम इस श्लोक के उपदेशों को अपने जीवन में अपनाते हैं, तो हमारा जीवन शांत, संतुलित और आनंदपूर्ण बन जाता है। यही वास्तविक योग है।
Resources : श्रीमद्भागवत गीता यथारूप – बक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद, गीता प्रेस