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Bhagavad Gita Chapter 3 Verse 8 Shloka 8 | गीता अध्याय 3 श्लोक 8 अर्थ सहित | नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः…..

श्रीमद् भागवत गीता अध्याय 3 श्लोक 8 (Bhagavad Gita Chapter 3 Verse 8 in Hindi): श्रीमद्भगवद्गीता भारतीय सनातन संस्कृति का एक महत्वपूर्ण ग्रंथ है, जिसमें जीवन जीने की कला सिखाई गई है। इसमें दिए गए उपदेश न केवल आध्यात्मिक उन्नति के लिए आवश्यक हैं, बल्कि यह कर्म और धर्म के गूढ़ रहस्यों को भी स्पष्ट करते हैं। गीता के अध्याय 3 को ‘कर्मयोग’ कहा जाता है, जिसमें भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को कर्म करने की महत्ता समझाई है।

जीवन में सफलता प्राप्त करने के लिए कर्म करना आवश्यक है। गीता में बताया गया है कि निष्क्रियता से अच्छा है कि व्यक्ति अपने कर्तव्यों का पालन करे। कर्म का त्याग करने वाला व्यक्ति न तो समाज के लिए उपयोगी होता है और न ही अपने आत्मिक उत्थान के लिए। इसीलिए कर्म को गीता में विशेष स्थान दिया गया है।

श्रीमद् भागवत गीता अध्याय 3 श्लोक 8 (Bhagavad Gita Chapter 3 Verse 8)

गीता अध्याय 3 श्लोक 8 अर्थ सहित (Gita Chapter 3 Verse 8 in Hindi with meaning)

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Gita Chapter 3 Verse 8

श्लोक 3.8

संस्कृत श्लोक:

नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः |
शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्धयेदकर्मणः ||

नियतम् – नियत; कुरु – करो; कर्म – कर्तव्य; तवम् – तुम; कर्म – कर्म करना; ज्यायः – श्रेष्ठ; हि – निश्चय ही; अकर्मणः – काम न करने की अपेक्षा; शरीर – शरीर का; यात्रा – पालन, निर्वाह; अपि – भी; च – भी; ते – तुम्हारा;  – कभी नहीं; प्रसिद्धयेत् – सिद्ध होता; अकर्मणः – बिना काम के |

श्लोक 3.8 का हिंदी अर्थ:

हे अर्जुन! अपने नियत कर्तव्यों का पालन करो, क्योंकि कर्म करना निष्क्रियता से श्रेष्ठ है। यदि तुम कोई कर्म नहीं करोगे तो तुम्हारा शरीर भी नहीं चल पाएगा।

कर्म का महत्व और उसका प्रभाव

भगवद्गीता में कर्म को जीवन का आधार बताया गया है। बिना कर्म के जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती। श्रीकृष्ण ने अर्जुन को यह समझाया कि जीवन में कर्म से विमुख होना उचित नहीं है। प्रत्येक व्यक्ति के लिए उसके नियत कर्म आवश्यक हैं, क्योंकि बिना कर्म के जीवन संभव नहीं है।

गीता के अनुसार, केवल सांसारिक वस्तुओं का त्याग कर देना ही मोक्ष का मार्ग नहीं है, बल्कि अपने नियत कर्मों को निष्ठा और समर्पण के साथ करना ही सच्चा धर्म है। कर्म न करने की प्रवृत्ति केवल भ्रम और मोह को जन्म देती है, जो मनुष्य के आध्यात्मिक उत्थान में बाधा डालती है।

जीवन में कर्म क्यों आवश्यक है?

शरीर को सुचारु रूप से चलाने के लिए भोजन करना, श्वास लेना, चलना, फिरना आदि सभी कर्म के अंतर्गत आते हैं। यदि कोई व्यक्ति यह कहे कि वह कुछ नहीं कर रहा है, तो भी वह अनजाने में किसी न किसी रूप में कर्म कर ही रहा होता है। इसलिए, कर्म से भागना न तो संभव है और न ही उचित।

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एक ग्रामीण भारतीय किसान अपने खेत में हल चला रहा है, सूरज की सुनहरी किरणें खेतों पर पड़ रही हैं। किसान के चेहरे पर कर्मठता और संतोष की झलक है, जो कर्मयोग के सिद्धांत को दर्शाती है। खेतों में हरियाली है, और पास में कुछ पक्षी उड़ते हुए दिख रहे हैं।

कई लोग यह मानते हैं कि यदि वे सभी सांसारिक कर्तव्यों का त्याग कर देंगे, तो वे आध्यात्मिक रूप से उन्नत हो जाएंगे। लेकिन गीता हमें सिखाती है कि यह विचारधारा केवल भ्रम है। केवल भौतिक वस्तुओं का त्याग कर देना ही संन्यास नहीं कहलाता। सच्चा संन्यास वह है, जब व्यक्ति बिना किसी मोह और आसक्ति के अपने कर्मों को करता रहे।

अर्जुन के लिए युद्ध करना उसका कर्तव्य था, क्योंकि वह एक योद्धा था। यदि वह अपने कर्तव्य से पीछे हट जाता, तो यह न केवल उसके लिए, बल्कि संपूर्ण समाज के लिए अहितकारी होता। इसी प्रकार, प्रत्येक मनुष्य को अपने निर्धारित कार्य को पूरी ईमानदारी और समर्पण के साथ करना चाहिए।

आलस्य: सफलता का सबसे बड़ा शत्रु

आलस्य मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु है।

“आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महान् रिपुः।”
(आलस्य मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु है और यह उसके शरीर में ही निवास करता है।)

जो व्यक्ति आलस्य को अपनाता है, वह न केवल अपने लिए हानिकारक होता है, बल्कि समाज के लिए भी बाधा उत्पन्न करता है। आलसी व्यक्ति किसी भी कार्य को करने से बचने के लिए अनेक बहाने बनाता है, और धीरे-धीरे उसकी कार्यक्षमता भी नष्ट हो जाती है। इसके विपरीत, जो व्यक्ति सदैव कर्मशील रहता है, वह न केवल अपने जीवन को सफल बनाता है, बल्कि समाज में भी एक महत्वपूर्ण योगदान देता है।

निष्काम कर्मयोग: फल की चिंता न करें

गीता में कर्मयोग का सबसे महत्वपूर्ण सिद्धांत निष्काम कर्म है, जिसका अर्थ है कि व्यक्ति को अपने कार्यों को बिना किसी स्वार्थ या फल की अपेक्षा के करना चाहिए। श्रीकृष्ण ने कहा:

“कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।”
(तुम्हें केवल कर्म करने का अधिकार है, लेकिन उसके फल पर नहीं।)

इसका तात्पर्य यह है कि हमें अपने कार्यों को पूरी निष्ठा और समर्पण के साथ करना चाहिए, लेकिन उनके परिणाम की चिंता नहीं करनी चाहिए। जब हम किसी कार्य को निस्वार्थ भाव से करते हैं, तो वह हमें आध्यात्मिक रूप से उन्नत करता है और जीवन को सार्थक बनाता है।

कर्म और समाज में योगदान

सही कर्म न केवल व्यक्तिगत उन्नति का साधन होता है, बल्कि समाज के विकास में भी सहायक होता है। जब हर व्यक्ति अपने कर्तव्यों का पालन करता है, तो समाज में संतुलन बना रहता है। किसान खेतों में मेहनत करता है, शिक्षक ज्ञान का संचार करता है, डॉक्टर रोगियों का इलाज करता है – ये सभी अपने-अपने कर्तव्य का पालन कर रहे हैं, जिससे समाज सुचारु रूप से चलता है।

यदि कोई व्यक्ति यह कहे कि वह किसी भी कर्म में संलग्न नहीं होना चाहता, तो यह समाज के लिए भी एक समस्या बन सकता है। बिना कर्म के समाज का विकास संभव नहीं है। यही कारण है कि गीता में कर्म को अत्यधिक महत्व दिया गया है।

श्रीकृष्ण का संदेश: कर्म ही धर्म है

श्रीकृष्ण अर्जुन को यह नहीं कहते कि वह युद्ध छोड़कर तपस्या में लीन हो जाए, बल्कि वे उसे यह समझाते हैं कि उसके लिए अपने कर्तव्यों का पालन करना अधिक महत्वपूर्ण है। अर्जुन एक क्षत्रिय था और उसका धर्म समाज की रक्षा करना था। इसी प्रकार, प्रत्येक व्यक्ति को अपने कर्मों का पालन करना चाहिए।

कर्मयोग अपनाने के लाभ

  1. मन की शुद्धि – अच्छे कार्य करने से मन और आत्मा शुद्ध होती है।
  2. आध्यात्मिक प्रगति – निष्काम कर्मयोग से ईश्वर की प्राप्ति होती है।
  3. जीवन में स्थिरता – कर्मशील व्यक्ति का जीवन संतुलित रहता है।
  4. समाज में योगदान – कर्म करने से समाज और राष्ट्र की उन्नति होती है।

निष्कर्ष

भगवद्गीता का यह श्लोक हमें यह सिखाता है कि हमें अपने नियत कर्मों का पालन करना चाहिए। कर्म करना न केवल आवश्यक है, बल्कि यह आत्मा की उन्नति और समाज की भलाई के लिए भी आवश्यक है। आलस्य को त्यागकर कर्मयोग के मार्ग पर चलना ही सच्चा धर्म है।

इसलिए हमें सदैव अपने कर्तव्यों का पालन करना चाहिए और निष्काम भाव से कर्म करते हुए जीवन में आगे बढ़ना चाहिए। यही श्रीकृष्ण का सच्चा उपदेश है – “कर्म ही धर्म है।”

Resources : श्रीमद्भागवत गीता यथारूप – बक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद, गीता प्रेस

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