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Bhagavad Gita Chapter 3 Verse 9 Shloka 9 | गीता अध्याय 3 श्लोक 9 अर्थ सहित | यज्ञार्थात्कर्मणोSन्यत्र लोकोSयं कर्मबन्धनः…..

श्रीमद् भागवत गीता अध्याय 3 श्लोक 9 (Bhagavad Gita Chapter 3 Verse 9 in Hindi): भगवद्गीता मानव जीवन के लिए एक दिव्य मार्गदर्शक ग्रंथ है, जिसमें जीवन के हर पहलू पर गहन ज्ञान प्रदान किया गया है। गीता के तीसरे अध्याय में कर्मयोग का विस्तृत वर्णन है, जो हमें सिखाता है कि कर्म कैसे करें ताकि वे हमें बंधन में न डालें, बल्कि मुक्ति की ओर ले जाएँ। श्लोक 3.9 में भगवान कृष्ण अर्जुन को समझाते हैं कि कर्म का एकमात्र सही उद्देश्य यज्ञ (भगवान विष्णु की प्रसन्नता) है। यदि कर्म इस भावना से नहीं किए जाते, तो वे हमें भौतिक संसार के बंधन में जकड़ देते हैं।

आज के इस भागदौड़ भरे जीवन में, जहाँ हर व्यक्ति सफलता और सुख की खोज में लगा है, गीता का यह शिक्षा अत्यंत प्रासंगिक है। इस लेख में हम गीता अध्याय 3 श्लोक 3.9 के गहन अर्थ, इसके व्यावहारिक पहलू और आधुनिक जीवन में इसकी उपयोगिता पर विस्तार से चर्चा करेंगे।

श्रीमद् भागवत गीता अध्याय 3 श्लोक 9 (Bhagavad Gita Chapter 3 Verse 9)

गीता अध्याय 3 श्लोक 9 अर्थ सहित (Gita Chapter 3 Verse 9 in Hindi with meaning)

गीता अध्याय 3 श्लोक 9 अर्थ सहित (Gita Chapter 3 Verse 9 in Hindi with meaning)
Gita Chapter 3 Verse 9 in Hindi

गीता अध्याय 3 श्लोक 3.9: मूल पाठ, शब्दार्थ और भावार्थ

यज्ञार्थात्कर्मणोSन्यत्र लोकोSयं कर्मबन्धनः |
तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसङ्गः समाचर || ९ ||

शब्दार्थ:

  • यज्ञ-अर्थात् – यज्ञ (भगवान विष्णु) के लिए
  • कर्मणः – कर्म की तुलना में
  • अन्यत्र – अन्यथा
  • लोकः अयम् – यह संसार
  • कर्म-बन्धनः – कर्म से बंधन
  • तत्-अर्थम् – उसके लिए
  • कर्म – कार्य
  • कौन्तेय – हे अर्जुन (कुन्तीपुत्र)
  • मुक्त-सङ्गः – आसक्ति से मुक्त होकर
  • समाचर – पूर्णतया आचरण करो

भावार्थ:

“हे अर्जुन! कर्म केवल यज्ञ (भगवान विष्णु की प्रसन्नता) के लिए करने चाहिए, अन्यथा कर्म इस भौतिक जगत में बंधन का कारण बनते हैं। इसलिए, तुम फल की इच्छा से मुक्त होकर अपने नियत कर्मों का पालन करो।”

कर्मयोग: कर्म का दिव्य दृष्टिकोण

1. कर्म बंधन भी हो सकता है, मुक्ति भी

कर्म स्वयं न तो अच्छा है और न ही बुरा, यह हमारी मनोदशा पर निर्भर करता है। जैसे एक चाकू डाकू के हाथ में हत्या का साधन बन जाता है, वहीं सर्जन के हाथ में जीवन रक्षक उपकरण। इसी प्रकार, कर्म का परिणाम इस बात पर निर्भर करता है कि हम उसे किस भावना से करते हैं।

  • स्वार्थपूर्ण कर्म → बंधन
  • भगवान को समर्पित कर्म → मुक्ति

2. यज्ञ का वास्तविक अर्थ

एक ऋषि अग्निकुंड के सामने यज्ञ करते हुए
एक ऋषि अग्निकुंड के सामने यज्ञ करते हुए, आहुति देते समय उनके मुख पर शांति और समर्पण भाव, और ऊपर आसमान में भगवान विष्णु की झलक दिखाई दे रही

यज्ञ का अर्थ केवल धार्मिक अनुष्ठान नहीं है। गीता में यज्ञ का अर्थ है भगवान विष्णु की सेवा। वेद कहते हैं –

“यज्ञो वै विष्णुः” (यज्ञ ही विष्णु हैं)।

इसका तात्पर्य यह है कि कृष्णभावनामृत (भगवान कृष्ण के प्रति प्रेमभक्ति) ही वास्तविक यज्ञ है। चाहे हम पूजा-पाठ करें, समाज सेवा करें या नित्य कर्म, यदि वह भगवान को समर्पित है, तो वह यज्ञ है।

3. राजा रघु का उदाहरण: सर्वस्व दान

प्राचीन राजदरबार में राजा रघु सब कुछ दान कर खाली हाथ खड़े हैं
प्राचीन राजदरबार में राजा रघु सब कुछ दान कर खाली हाथ खड़े हैं, और सामने प्रसन्न जनता खड़ी है, पृष्ठभूमि में ‘विश्वजित यज्ञ’ के ध्वज लहरा रहे हैं

राजा रघु ने विश्वजित यज्ञ करके अपनी सारी संपत्ति दान कर दी। उनका कहना था –

“जो मैंने दिया, वह मेरा नहीं था। यह सब भगवान का है।”

जब लोगों ने उनकी प्रशंसा की, तो उन्होंने कहा –

“जब मैं इस संसार में आया था, तो मेरे पास कुछ भी नहीं था। फिर मैंने क्या त्याग किया?”

यही कर्मयोग का सच्चा उदाहरण है – अहंकार रहित सेवा

आधुनिक जीवन में कर्मयोग कैसे अपनाएं?

1. कर्म को भगवान को अर्पण करें

हमारे दैनिक जीवन के सभी कार्य – चाहे वह नौकरी हो, व्यवसाय हो या घर की देखभाल – यदि भगवान को समर्पित किए जाएँ, तो वे पवित्र बन जाते हैं। गीता (9.27) में कहा गया है –

“यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत्।
यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम्॥”

(हे अर्जुन! तू जो कुछ करता है, जो कुछ खाता है, जो कुछ यज्ञ करता है, जो कुछ दान देता है और जो कुछ तपस्या करता है, वह सब मुझे अर्पण कर दे।)

2. फल की चिंता छोड़ें

आज का मनुष्य परिणाम की चिंता में इतना उलझ गया है कि कर्म करने का आनंद ही खो बैठा है। गीता (2.47) कहती है –

“कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।”
(तुम्हारा अधिकार केवल कर्म करने में है, फल में कभी नहीं।)

  • उदाहरण: एक छात्र परीक्षा में अच्छे अंक लाने की चिंता करने के बजाय, केवल पढ़ाई पर ध्यान दे, तो सफलता स्वतः मिलेगी।

3. निष्काम सेवा भाव

समाज सेवा, दान और परोपकार को भगवान की सेवा मानकर करें।

  • “सेवा = सेव + आ (ईश्वर की सेवा)”
  • मदर टेरेसा, स्वामी विवेकानंद और संत विनोबा भावे ने इसी भावना से कार्य किया।

कर्मयोग के लाभ

  1. मानसिक शांति – फल की इच्छा न होने से तनाव मुक्ति।
  2. आत्मिक उन्नति – भगवान की कृपा प्राप्त होती है।
  3. समाज हित – निस्वार्थ सेवा से समाज का कल्याण।
  4. जीवन सरल – भौतिक इच्छाओं का बोझ कम होता है।

निष्कर्ष: कर्मयोग ही जीवन का सर्वोत्तम मार्ग

भगवान कृष्ण ने अर्जुन को सिखाया कि कर्म करो, लेकिन आसक्ति से मुक्त होकर। यही कर्मयोग है। आज के युग में भी यह सिद्धांत प्रासंगिक है। यदि हम अपने सभी कार्यों को भगवान को समर्पित कर दें, तो जीवन सरल, शांतिपूर्ण और आनंदमय बन जाता है।

“कर्म करो, परिणाम की चिंता मत करो।
भगवान को याद करो, बंधन से मुक्त हो जाओ।”

इस प्रकार, गीता का यह श्लोक हमें सच्ची मुक्ति का मार्ग दिखाता है। 🙏

Resources : श्रीमद्भागवत गीता यथारूप – बक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद, गीता प्रेस

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