You are currently viewing Bhagavad Gita Chapter 1 Verse-Shloka 30 – गीता अध्याय 1 श्लोक 30 अर्थ सहित – न च शक्रोम्यवस्थातुं…..

Bhagavad Gita Chapter 1 Verse-Shloka 30 – गीता अध्याय 1 श्लोक 30 अर्थ सहित – न च शक्रोम्यवस्थातुं…..

श्रीमद् भागवत गीता अध्याय 1 श्लोक 30 (Bhagwat Geeta adhyay 1 shlok 30 in Hindi): युद्धभूमि में खड़ा अर्जुन, मानसिक और शारीरिक दोनों रूपों में संघर्षरत था। गीता के अध्याय 1 श्लोक 30(Gita Chapter 1 Verse 30) “न च शक्रोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मनः” के माध्यम से उसकी आंतरिक उलझनों को स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। आइए, इस श्लोक के माध्यम से अर्जुन की मनःस्थिति और उसके कारणों को समझने का प्रयास करें।

श्रीमद् भागवत गीता अध्याय 1 श्लोक 30

गीता अध्याय 1 श्लोक 30 अर्थ सहित

Bhagavad Gita Chapter 1 Shloka 30 in Hindi | FestivalHindu.com
Bhagavad Gita Ch 1 Verse 30

श्लोक:

न च शक्रोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मनः ।
निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव ॥ ३० ॥

भावार्थ:

मैं यहाँ अब और अधिक खड़ा रहने में असमर्थ हूँ। मैं अपने को भूल रहा हूँ और मेरा सिर चकरा रहा है। हे कृष्ण! मुझे तो केवल अमंगल के कारण दिख रहे हैं।

अर्जुन की मानसिक स्थिति

“न च शक्रोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मनः”

  • – नहीं
  • – भी
  • शक्रोमि – समर्थ हूँ
  • अवस्थातुम् – खड़े होने में
  • भ्रमति – भूलता हुआ
  • इव – सहशः
  • – तथा
  • में – मेरा
  • मनः – मन
  • निमित्तानि – कारण
  • – भी
  • पश्यामि – देखता हूँ
  • विपरीतानि – बिल्कुल उलटा
  • केशव – हे केशी असुर के मारने वाले (कृष्ण)

अर्जुन का आत्मसंघर्ष

अर्जुन इस समय मानसिक रूप से युद्धभूमि में खड़े रहने में असमर्थ था। उसे आत्मविस्मृति और भ्रम का अनुभव हो रहा था।

कारण और प्रभाव

  1. भौतिक आसक्ति: भौतिक वस्तुओं के प्रति अत्यधिक आसक्ति के कारण मनुष्य मोहमयी स्थिति में पड़ जाता है।
  2. भय: “भयं द्वितीयाभिनिवेशतः स्यात्” (भागवत ११.२.३७) – भौतिक परिस्थितियों से ग्रस्त व्यक्ति भय और मानसिक असंतुलन का अनुभव करता है।
  3. अर्जुन का दृष्टिकोण: अर्जुन को युद्धभूमि में केवल दुःखदायी पराजय की प्रतीति हो रही थी – वह शत्रु पर विजय पाकर भी सुखी नहीं होगा।

निष्कर्ष

अर्जुन के मन में निराशा और शंका की स्थिति उत्पन्न हो रही थी। “निमित्तानि विपरीतानि” शब्द महत्त्वपूर्ण हैं, जब मनुष्य को अपनी आशाओं में केवल निराशा दिखती है, तो वह सोचता है “मैं यहाँ क्यों हूँ?”

आत्मस्वार्थ बनाम परमात्मस्वार्थ

मनुष्य का वास्तविक स्वार्थ तो विष्णु या कृष्ण में निहित है, लेकिन बद्धजीव इसे भूल जाता है और भौतिक कष्ट उठाने पड़ते हैं। अर्जुन ने सोचा कि उसकी विजय केवल उसके शोक का कारण बन सकती है।

अंतिम विचार

यह श्लोक अर्जुन की मनोस्थिति को दर्शाता है, जहां वह आत्मसंघर्ष और मानसिक असंतुलन का अनुभव कर रहा है। उसके मन में युद्ध और उसके परिणामों को लेकर गहन शंका और भय था। यह स्थिति हमारे लिए यह संदेश छोड़ती है कि आत्मस्वार्थ से परे जाकर परमात्मस्वार्थ को समझना और अपनाना ही सच्ची शांति और सुख का मार्ग है।

Resources : श्रीमद्भागवत गीता यथारूप – बक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद, गीता प्रेस

Leave a Reply