भारत के महान संत और आध्यात्मिक गुरु रामकृष्ण परमहंस की 188वीं जयंती 18 फरवरी 2023 को मनाई जा रही है। उनका जन्म 18 फरवरी 1836 को हुआ था। आध्यात्मिक मार्ग पर चलते हुए, उन्होंने परमात्मा का ज्ञान प्राप्त किया, जिसे ‘परमहंस’ कहा जाता है। रामकृष्ण परमहंस की गिनती ऐसे ही महात्माओं में होती है, इसलिए उनके नाम के साथ परमहंस लगाया जाता है। उनका जन्म नाम गदाधर चट्टोपाध्याय था। रामकृष्ण परमहंस का जीवन और शिक्षा आज भी लोगों को प्रेरणा देते हैं।

रामकृष्ण परमहंस का मानना था कि ईश्वर का दर्शन किया जा सकता है। वे आध्यात्मिक चेतना की उन्नति पर जोर देते थे और धर्म को केवल साधन मानते थे। उनके अनुसार, संसार के सभी धर्मों में विश्वास होना चाहिए। उनके आचरण और उपदेशों ने बड़ी आबादी को प्रभावित किया, जिनमें उनके प्रमुख शिष्य स्वामी विवेकानंद भी शामिल थे। स्वामी विवेकानंद ने 1 मई 1897 को कोलकाता में ‘रामकृष्ण मिशन’ की स्थापना की, जिसका साहित्य आज भी लोगों की आध्यात्मिक उन्नति में मदद करता है।
गदाधर के रामकृष्ण परमहंस बनने की शुरुआत?
18 फरवरी 1836 को पश्चिम बंगाल के कामारपुकुर गांव में एक साधारण ब्राह्मण परिवार में गदाधर चट्टोपाध्याय का जन्म हुआ, जो आगे चलकर रामकृष्ण परमहंस के नाम से विख्यात हुए। गदाधर नाम के पीछे एक दिव्य घटना जुड़ी है। उनके पिता खुदीराम को स्वप्न में भगवान गदाधर (भगवान विष्णु) ने दर्शन देकर कहा था कि वे उनके पुत्र के रूप में जन्म लेंगे। वहीं, उनकी माता चंद्रमणि देवी को शिव मंदिर में पूजा करते समय अपने गर्भ में दिव्य प्रकाश का अनुभव हुआ था। इन अद्भुत घटनाओं के कारण बालक का नाम गदाधर रखा गया।
रामकृष्ण परमहंस अपने परिवार की चौथी और सबसे छोटी संतान थे। उनके दो बड़े भाई, रामकुमार और रामेश्वर, और एक बहन, कात्यायनी थीं। चट्टोपाध्याय परिवार भगवान विष्णु और राम के परम भक्त थे, इसलिए उनके पुत्रों के नाम में “राम” जोड़ा गया। रामकृष्ण को बचपन में रामकृष्णबाबू के नाम से भी पुकारा जाता था। मात्र सात वर्ष की आयु में उनके पिता का निधन हो गया, जिससे परिवार को कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। बालक गदाधर का जीवन प्रारंभ से ही ईश्वरीय आस्था और साधना से जुड़ा था, जो आगे चलकर उनके रामकृष्ण परमहंस बनने की नींव बनी।
रामकृष्ण परमहंस का पहला आध्यात्मिक अनुभव क्या था?
बताया जाता है कि रामकृष्ण को छह-सात वर्ष की उम्र में पहला आध्यात्मिक अनुभव हुआ था, जो उन्हें समाधि की अवस्था में ले जाने वाला था और जिसकी परिणति परम साक्षात्कार में हुई। एक दिन बालक रामकृष्ण धान के खेत की पगडंडियों पर चावल के मुरमुरे खाते हुए टहल रहे थे, तभी आसमान में पानी से भरे बादलों और उड़ते सफेद सारसों का दृश्य देखकर उनकी पूरी चेतना उसमें समा गई। चावल के मुरमुरे हाथ से छूटकर खेत में बिखर गए और वे अचेत होकर गिर पड़े। आसपास के लोग उन्हें उठाकर घर ले आए। यह रामकृष्ण का पहला आध्यात्मिक अनुभव था, जिसने उनके परमहंस बनने की दिशा तय की।
माता काली की साधना में रम गया मन
बालक रामकृष्ण की चेतना धीरे-धीरे अध्यात्म के अनंत समंदर में गोते लगाने लगी और उनका मन आध्यात्मिक स्वाध्याय में लगने लगा। नौ वर्ष की उम्र में उनका जनेऊ संस्कार कराया गया, जिससे वे वैदिक परंपरा के अनुसार धार्मिक अनुष्ठान और पूजा-पाठ करने योग्य हो गए। रानी रासमणि ने हुगली नदी के किनारे दक्षिणेश्वर काली मंदिर बनवाया था, जिसकी जिम्मेदारी रामकृष्ण का परिवार संभालता था। रामकृष्ण भी इस मंदिर में सेवा देने लगे और पुजारी बन गए। 1856 में उन्हें इस मंदिर का मुख्य पुरोहित नियुक्त किया गया, और उनका मन पूरी तरह से माता काली की साधना में रमने लगा।
किससे हुआ था रामकृष्ण परमहंस का विवाह?
रामकृष्ण परमहंस की माता काली की साधना के दौरान अफवाह फैल गई कि उनका मानसिक संतुलन बिगड़ गया है। परिवार ने सोचा कि शादी करा देने से रामकृष्ण पर पारिवारिक जिम्मेदारियां आएंगी और उनका मानसिक संतुलन ठीक हो जाएगा। 1859 में 23 वर्षीय रामकृष्ण की शादी करीब 5-6 वर्ष की शारदामणि मुखोपाध्याय से कर दी गई। शारदामणि को भी बाद में माता का दर्जा प्राप्त हुआ क्योंकि उन्होंने भी आध्यात्मिक मार्ग अपनाया और पति के संन्यासी हो जाने पर संन्यासिनी का जीवन व्यतीत किया।
कैसी हुई रामकृष्ण परमहंस की मृत्यु?
जीवन के आखिरी दिनों में रामकृष्ण परमहंस गले में सूजन की बीमारी से ग्रस्त थे। डॉक्टरों ने उन्हें गले का कैंसर बताया था, लेकिन वे इस बीमारी से विचलित नहीं होते थे। इसका जिक्र होने पर वे मुस्कराते और साधना में लीन हो जाते थे। इलाज कराने से उन्होंने मना कर दिया, लेकिन उनके शिष्य स्वामी विवेकानंद उनकी देखभाल और दवाई कराते रहे। 16 अगस्त 1886 को, 50 वर्ष की आयु में, रामकृष्ण परमहंस ने परम समाधि प्राप्त की और देह का त्याग कर दिया।
रामकृष्ण परमहंस के जीवन से क्या शिक्षा मिलती है?
रामकृष्ण परमहंस अपनी शिक्षाओं को छोटे-छोटे उदाहरणों और कहानियों के माध्यम से समझाते थे। उनके आध्यात्मिक आंदोलन में जातिवाद और धार्मिक पक्षपात की कोई जगह नहीं थी, इसलिए उन्होंने सभी वर्गों और सम्प्रदायों के दिलों में स्थान बनाया और लोगों को एकता और सामूहिकता में बांधा। उनकी शिक्षाएं जीवन के परम लक्ष्य मोक्ष पर केंद्रित थीं, जिसके लिए आत्मज्ञान आवश्यक है। रामकृष्ण परमहंस का मानना था कि आत्मज्ञान प्राप्त करने के लिए अहंकार को त्यागना होगा, क्योंकि यह अज्ञानता का पर्दा है।
ईश्वर में विश्वास, साधना, सत्संग और स्वाध्याय से अहंकार को दूर किया जा सकता है और आत्मज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। उनके उपदेश और शिक्षाएं लोगों को चेतनता की ओर ले जाती हैं, जिससे ईश्वरीय दर्शन की अभिलाषा का बीज अंकुरित हो जाता है।
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