पापमोचनी एकादशी की मान्यता है कि इस व्रत को करने से व्यक्ति सभी पापों से मुक्त हो जाता है। इस एकादशी का व्रत करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है और व्यक्ति जन्म-मरण के चक्र से छूट जाता है। यहां पढ़ें पापमोचनी एकादशी की व्रत कथा।

पापमोचनी एकादशी व्रत कथा
अर्जुन ने भगवान श्रीकृष्ण से कहा: “हे मधुसूदन! आपने फाल्गुन मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी, अर्थात आमलकी एकादशी के बारे में विस्तार से बताया। कृपा करके बताएं, चैत्र मास के कृष्ण पक्ष में आने वाली एकादशी का क्या नाम है और उसकी विधि क्या है? मेरी बढ़ती जिज्ञासा को शांत करें।
“भगवान श्रीकृष्ण ने कहा: “हे अर्जुन! चैत्र मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी को पापमोचनी एकादशी के नाम से जाना जाता है। एक बार पृथ्वीपति राजा मान्धाता ने लोमश ऋषि से यही प्रश्न पूछा था, जो तुमने मुझसे किया है। अतः जो कुछ भी ऋषि लोमश ने राजा मान्धाता को बताया, वही मैं तुमसे कह रहा हूँ।”
राजा मान्धाता ने महर्षि लोमश से पूछा: “हे ऋषिश्रेष्ठ! मनुष्य के पापों का मोचन किस प्रकार संभव है? कृपा कर कोई ऐसा सरल उपाय बताएं, जिससे सभी को सहज ही पापों से छुटकारा मिल जाए।”
महर्षि लोमश ने कहा: “हे नृपति! चैत्र मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी को पापमोचिनी एकादशी कहा जाता है। इस व्रत के प्रभाव से मनुष्यों के अनेक पाप नष्ट हो जाते हैं। मैं तुम्हें इस व्रत की कथा सुनाता हूँ, ध्यानपूर्वक सुनो।”
प्राचीन काल में एक चैत्ररथ नामक वन था, जिसमें अप्सराएँ किन्नरों के साथ विहार करती थीं। वहाँ सदैव वसंत का मौसम रहता था, और सदा विभिन्न प्रकार के पुष्प खिले रहते थे। कभी गंधर्व कन्याएँ विहार करती थीं, तो कभी देवेन्द्र अन्य देवताओं के साथ क्रीड़ा करते थे।
उसी वन में मेधावी नामक एक ऋषि तपस्या में लीन रहते थे। वे शिव के भक्त थे। एक दिन, मञ्जुघोषा नामक अप्सरा ने उन्हें मोहित करने और अपनी निकटता का लाभ उठाने का प्रयास किया, इसलिए वह कुछ दूरी पर बैठकर वीणा बजाने लगी और मधुर स्वर में गाने लगी।
उसी समय, शिवभक्त महर्षि मेधावी को कामदेव भी जीतने की कोशिश करने लगे। कामदेव ने मञ्जुघोषा की सुंदरता को अपना हथियार बनाया। उसकी भौंहों को धनुष, कटाक्ष को प्रत्यंचा और नेत्रों को सेनापति बनाया। इस तरह, कामदेव ने अपने शत्रु भक्त को जीतने की तैयारी की। उस समय महर्षि मेधावी युवा और हृष्ट-पुष्ट थे। उन्होंने यज्ञोपवीत और दण्ड धारण किया हुआ था, जिससे वे दूसरे कामदेव के समान प्रतीत हो रहे थे। मञ्जुघोषा ने जब उन्हें देखा तो कामदेव के वश में हो गई और मधुर वाणी में वीणा बजाकर गाने लगी। महर्षि मेधावी भी मञ्जुघोषा के मधुर गाने और उसके सौंदर्य पर मोहित हो गए। मञ्जुघोषा ने महर्षि को कामदेव से पीड़ित जानकर उनसे आलिंगन किया।
महर्षि मेधावी, मञ्जुघोषा के सौंदर्य से मोहित होकर शिव रहस्य को भूल गए और काम के वशीभूत होकर उसके साथ रमण करने लगे।काम के वशीभूत होने के कारण, मुनि को दिन-रात का कोई भान न रहा और वे लंबे समय तक रमण करते रहे। फिर मञ्जुघोषा मुनि से बोली: “हे ऋषिवर! अब मुझे बहुत समय हो गया है, कृपया स्वर्ग जाने की आज्ञा दें।”
अप्सरा की बात सुनकर ऋषि ने कहा: “हे मोहिनी! शाम को आई हो, सुबह होने पर चली जाना।”ऋषि की बात सुनकर अप्सरा उनके साथ रमण करने लगी और दोनों ने साथ में बहुत समय बिताया। एक दिन मञ्जुघोषा ने ऋषि से कहा: “हे विप्र! अब कृपया मुझे स्वर्ग जाने की अनुमति दें।”
मुनि ने फिर वही कहा: “हे रूपसी! अभी ज्यादा समय नहीं बीता है, कुछ और समय ठहरो।”
मुनि की बात सुनकर अप्सरा ने कहा: “हे ऋषिवर! आपकी रात बहुत लंबी है। आप सोचें कि मुझे आपके पास आए कितना समय हो गया है। अब और ठहरना क्या उचित है?”
अप्सरा की बात सुनकर मुनि को समय का बोध हुआ और वे गंभीरतापूर्वक विचार करने लगे। जब उन्हें अहसास हुआ कि वे रमण करते सत्तावन (57) वर्ष बिता चुके हैं, तो उन्होंने अप्सरा को काल का रूप मान लिया।इतना समय भोग-विलास में व्यर्थ चला जाने पर उन्हें अत्यंत क्रोध आया। वे भयंकर क्रोध में जलते हुए उस तप नाश करने वाली अप्सरा को घूरने लगे। क्रोध से उनके अधर काँपने लगे और इंद्रियां बेकाबू होने लगीं।
क्रोध से कांपते स्वर में मुनि ने उस अप्सरा से कहा: “मेरे तप को नष्ट करने वाली दुष्टा! तू महापापिन और दुराचारिणी है। तुझ पर धिक्कार है। अब तू मेरे श्राप से पिशाचिनी बन जा।”
मुनि के क्रोधयुक्त श्राप से वह अप्सरा पिशाचिनी बन गई। यह देख वह व्यथित होकर बोली: “हे ऋषिवर! कृपया मुझ पर क्रोध त्यागें और बताएं कि इस शाप का निवारण कैसे होगा? विद्वानों ने कहा है कि साधुओं की संगत अच्छा फल देती है और आपके साथ मैंने कई वर्ष बिताए हैं। कृपया मुझ पर प्रसन्न हो जाएं, अन्यथा लोग कहेंगे कि एक पुण्य आत्मा के साथ रहने पर मञ्जुघोषा को पिशाचिनी बनना पड़ा।”
मञ्जुघोषा की बात सुनकर मुनि को अपने क्रोध पर अत्यधिक ग्लानि हुई और अपनी अपकीर्ति का भय भी हुआ। अतः पिशाचिनी बनी मञ्जुघोषा से मुनि ने कहा: “तूने मेरा बड़ा बुरा किया है, किन्तु फिर भी मैं तुझे इस श्राप से मुक्ति का उपाय बतलाता हूँ। चैत्र मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी पापमोचिनी एकादशी कहलाती है। इस एकादशी का उपवास करने से तेरी पिशाचिनी की देह से मुक्ति हो जाएगी।”
ऐसा कहकर मुनि ने उसे व्रत का पूरा विधान समझा दिया। फिर अपने पापों का प्रायश्चित करने के लिए वे अपने पिता च्यवन ऋषि के पास गए।
च्यवन ऋषि ने अपने पुत्र मेधावी को देखकर कहा: “हे पुत्र! ऐसा क्या किया है तुमने कि तुम्हारे सभी तप नष्ट हो गए हैं और तुम्हारा समस्त तेज मलिन हो गया है?”
लज्जित मेधावी मुनि ने सिर झुकाकर कहा: “पिताश्री! मैंने एक अप्सरा के साथ रमण कर बहुत बड़ा पाप किया है। संभवतः इसी पाप के कारण मेरा सारा तेज और तप नष्ट हो गया है। कृपया इस पाप से मुक्ति का उपाय बताएं।” ऋषि ने कहा: “हे पुत्र! तुम चैत्र मास के कृष्ण पक्ष की पापमोचिनी एकादशी का विधि पूर्वक और भक्तिपूर्वक उपवास करो। इससे तुम्हारे सभी पाप नष्ट हो जाएंगे।”
अपने पिता च्यवन ऋषि के निर्देशों को सुनकर, मेधावी मुनि ने पापमोचिनी एकादशी का विधिपूर्वक व्रत किया। उसके प्रभाव से उनके सभी पाप नष्ट हो गए।मञ्जुघोषा अप्सरा भी पापमोचिनी एकादशी का उपवास करने से पिशाचिनी की देह से मुक्त होकर पुनः अपने सुंदर रूप में स्वर्गलोक लौट गई।
लोमश मुनि ने कहा: “हे राजन! पापमोचिनी एकादशी के प्रभाव से सभी पाप नष्ट हो जाते हैं। इस एकादशी की कथा के श्रवण और पठन से एक हजार गौदान के बराबर फल प्राप्त होता है। इस उपवास के करने से ब्रह्म हत्या, स्वर्ण चोरी, मद्यपान, अगम्य गमन आदि भयंकर पाप भी नष्ट हो जाते हैं और अंत में स्वर्गलोक की प्राप्ति होती है।”
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